
वह चला गया
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(ले. रामसिंह चौहान, ऑवलखेड़ा)वह मुट्ठी बांधकर आया था और हाथ पसार कर चला गया। अखण्ड ज्योति के चित्र पृष्ठ पर जो तीन फोटो छपे हुए हैं उनमें बीच वाले चित्र को जरा ध्यान से देखिए। जोश उनके चेहरे में से मानों टपक पड़ रहा हैं। झुकी हुई भौंह, स्थिर दृष्टि, होटों की गंभीरता अपना एक खास अर्थ रखती हैं। चेहरे की सरबटें जिन भावनाओं को प्रकट कर रही हैं उनसे किसी का भी हृदय प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह तीस वर्षीय योद्धा अपनी भरी जवानी में फूल की तरह हँसता हुआ अभी कल परसों इसी २५ मई को बैसाखी पूर्णिमा को इस दुनियाँ से चला गया।
यह था कौन? आगरा जिले के एक छोटे से नगले में पैदा हुआ था, मामूली सी हिन्दी की शिक्षा पाई थी, गरीब घराने में जन्म लिया था। फिर भी यह बहुत कुछ था। रग- रग में अदम्य उत्साह, छाती में धधकती आग, हृदय में अपूर्व जोश, मन में दृढ़ निश्चय और चेहरे पर हँसी की धारा लिए हुए यह पथिक उद्देश्य और सिद्धान्तों की लकड़ी के सहारे एक निश्चित मार्ग पर चला जा रहा था। विघ्न बाधाओं ने उसे हरचंद रोका। प्रलोभनों ने बार- बार फुसलाया। इसने उनकी पीठ थपथपाई और वैरागी की तरह पल्ला झाड़कर आगे चला गया। आज तो वह बिल्कुल ही चला गया। इसका नाम कमलसिंह चौहान था। ऑवलखेड़ा के एक छोटे नगले गढ़ी हज्जू में यह पैदा हुआ था। खेलने के दिन व्यतीत होते ही यह सैलानी घर छोड़कर परदेश चल दिया। अभी जी. आई. पी. रेलवे में नौकरी कर रहा है तो अभी पूना में ।। अभी बम्बई में दुकान लिये बैठा है तो अभी राजपुताने की सैर कर रहा है। बीस वर्ष की उम्र तक पहुँचते- पहुँचते यह अपने घुमक्कड़ पन से ऊब गया। सन् १९३० में महात्मा गांधी ने सत्याग्रह की रण भेरी बजाई तो उसका क्षत्रिय रक्त उबल पड़ा। पिछले सारे मनसुबे को उठाकर एक कोने में पटका और सर पर कफन बाँधकर शहीदों की टोली में जा मिला। राजनीति में लोग अक्सर हाथ पाँव बचा कर और मौके को देखकर काम करते हैं, पर यह अल्हड़ बछेड़ा उन बातों को जानता हुआ भी नहीं जानता था। उसके दिल की आग भीतर ही भीतर उसे जलाये डालती थी। एकबार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार नहीं, इन दस वर्षों में उसने पूरे सात बार जेल काटी। जरार के काण्ड में घोड़ों की टापों से कुचल डाला गया। फिर भी वह मरा नहीं, मृत्यु से लड़ा और लोट- पोट कर उठ खड़ा हुआ।केवल जोश ही नहीं, होश भी उसने सीखा था। सत्याग्रह बन्द होते ही दूने उत्साह के साथ रचनात्मक कामों में जुट गया। लोगों ने देखा कि वह खद्दर बुनना सिखाता है, सिर पर खादी की गठरी रख कर बेचता है, बीमारों को दवाऐं देता है, दौड़- दौड़ कर गाँवों में लोगों को रचनात्मक साहित्य पढ़वाता है, हरिजनों को शिक्षा देता है, और सर्व साधारण में सुविचार फैलाता है। लोगों ने उसका विरोध किया, बुरा बताया, दोष लगाये, बहिष्कार किये फिर भी वह विचलित नहीं हुआ। लोगों के भोलेपन को उसने एक मुस्कराहट के साथ देखा और सारे विरोधों को हँस कर टाल दिया। हिन्दू धर्म की रक्षा पुकार कानों में आई तो भी वह कमर कस कर खड़ा हो गया। ग्वालियर आर्य पाठशाला की अध्यापकी छोड़कर हैदराबाद जेल में पत्थर फोड़ने के लिये चला गया। आज के सुधार, देश का उद्धार करना चाहते हैं, पर उनमें से बहुतों के हृदय में नीच वासनाऐं भरी होती हैं। कुछ ही आगे बढ़ने पर पार्टीबाजी की बीमारी में वे इतने ग्रसित हो जाते हैं कि जरा भी स्वतन्त्र विचार रखने वाला उन्हें दुश्मन प्रतीत होने लगता है। ऐसी दुष्ट वृत्तियों से घिरे हुए साथी उसके विरोधी बन गये। फिर भी किसी को इतना साहस न हो सका कि उसके चरित्र पर उँगली उठावे। जेल की यातनाओं ने, लाठियों की मार ने, आर्थिक कठिनाइयों ने, साथियों के दुर्व्यवहार ने उसका शरीर जर्जर कर डाला था। आये दिन उसकी नाक में से खून का फुहारा छूट निकलता था। जरा सी गर्मी में चक्कर आ जाते थे। इन दिनों वह झगड़ों से ऊब गया था और आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने की प्यास उठ खड़ी हुई थी। अखण्ड ज्योति सम्पादक ने अपने इस बाल सखा को अपने ही पास बुला लिया था। और वह आगरे रह कर साधन तथा प्रचार कार्य करने लगा था। गत १५ मई को ज्वर आया, जो पाँच दिन में उतर गया। स्वास्थ्य सुधारने की इच्छा से आगरे से गाँव आया था किन्तु यहाँ फिर ज्वर आया। ज्वर ने कहा- चलों। वह चुपचाप सिर झुका कर उसके साथ चला गया। वह चला गया। जहाँ सबको जाना है वहाँ वह भी चला गया। साधारण तौर से नहीं, शहीदों की भाँति। तलवार से उसका सिर कटता किसी नहीं देखा, पर जानने वाले जानते है कि बूँद- बूँद करके उसने अपना सारा जीवन रस मातृभूमि के लिए टपका दिया था। अन्तिम घड़ी उसके पास खोखला शरीर बच रहा था, उसे उसने हँस कर छोड़ दिया। कोलाहल मयी दुनियाँ अपने नाच रंग में कुछ क्षण बाद उसे भूल जायेगी। पर स्वाधीन देश की महान भित्ति के गारे चूने का कोई निरीक्षण करेगा तो देखेगा कि इस मौन संन्यासी को रक्त ने उसे कितनी दृढ़तर बना दिया है।