
ब्रह्मचर्य
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(महात्मा—गाँधी) हमारे व्रतों में तीसरा स्थान ब्रह्मचर्य का है। हकीकत तो यह है कि दूसरे सब व्रत एक सत्य के व्रत में से ही उत्पन्न होते हैं और उसी के लिये रहे हैं। जो मनुष्य सत्य का प्रण किये हुए है, उसी की उपासना करता है, वह यदि किसी भी दूसरी चीज की आराधना करता है तो व्यभिचारी ठहरता है। तो फिर विकार को आराधना क्योंकर की जा सकती है? जिसकी सारी प्रवृत्ति एक सत्य के दर्शन के लिये है, वह सन्तान पैदा करने या गृहस्थी चलाने के काम में क्यों कर पड़ सकता है। भोगविलास द्वारा किसी को किसी को सत्य की प्राप्ति हुई हो, ऐसी एक भी मिसाल हमारे पास नहीं। अहिंसा के पालन को लें तो उसका सम्पूर्ण पालन भी ब्रह्मचर्य के बिना अशक्य है। अहिंसा के मानी हैं, सर्वव्यापी प्रेम। पुरुष के एक स्त्री को या स्त्री के एक पुरुष को अपना प्रेम अर्पण कर चुकने पर उसके पास दूसरे के लिये क्या रहा? इसका तो यही मतलब हुआ कि ‘हम दो पहले और दूसरे सब पीछे। पतिव्रता स्त्री पुरुष के लिये और पत्नीव्रता पुरुष स्त्री के लिये सर्वस्व होमने को तैयार होगा, यानी इससे यह जाहिर है कि उससे सर्व व्यापी प्रेम का पालन हो ही नहीं सकता। वह सारी सृष्टि को अपना कुटुम्ब कभी बना नहीं सकता, क्योंकि उसके पास उसका अपना माना हुआ कुटुम्ब है। या तैयार हो रहा है। जितनी उसमें वृद्धि होगी, सर्वयायी प्रेम में उतनी ही बाधा पड़ेगी। हम देखते हैं कि सारे जगत में यही हो रहा है। इसलिये अहिंसा व्रत का पालन करने वाला विवाह कर नहीं सकता, विवाह के बाहर के विकार की तो बात ही क्या? तो फिर जो विवाह कर चुके हैं, उनका क्या हो? उन्हें सत्य किसी दिन नहीं मिलेगा? वे कभी सर्वार्पण नहीं कर सकेंगे? हमने इसका रास्ता निकाला ही है। विवाहित अविवाहित सा बन जाय। इस दिशा में इस-सा सुन्दर अनुभव और कोई मैंने किया नहीं। इस स्थिति का स्वाद जिसने चखा है, वह इसकी गवाही दे सकता है। आज तो इस प्रयोग की सफलता सिद्ध हुई कही जा सकती है। विवाहित स्त्री-पुरुष का एक दूसरे को भाई बहन मानने लगना, सारी झंझटों में मुक्त होना है। संसार भर की सारी स्त्रियाँ बहनें हैं, माताएँ हैं, लड़कियाँ हैं, यह विचार ही मनुष्य को एकदम ऊंचा उठाने वाला है, बन्धन से मुक्त करने वाला है। इससे पति-पत्नी कुछ खोते नहीं उलटे अपनी पूँजी बढ़ाते हैं। कुटुम्ब-वृद्धि करते हैं। विकार रूपी मैल को दूर करने से प्रेम भी बढ़ता है; विकार नष्ट होने से एक दूसरे की सेवा भी अधिक अच्छी हो सकती है। एक दूसरे के बीच कलह के अवसर कम होते हैं। जहाँ प्रेम स्वार्थी और एकाँगी है, वहीं कलह की गुंजाइश ज्यादा है। इस मुख्य बात का विचार करने के बाद और इसके हृदय में ठंस जाने पर ब्रह्मचर्य से होने वाले शारीरिक लाभ, वीर्य-लाभ आदि बहुत गौण हो जाते हैं। इरादतन भोग विलास के लिये वीर्य हानि करना और शरीर को निचोड़ना कैसी मूर्खता है। वीर्य का उपयोग तो दोनों की शारीरिक मानसिक शक्ति को बढ़ाने में है। विषय भोग में उसका उपयोग करना उसका अति दुरुपयोग है और इस कारण वह कई रोगों का मूल बन जाता है। ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और काया से होना चाहिये। हर व्रत के लिये यही ठीक है। हमने गीता में पढ़ा है कि जो शरीर को काबू में रखता हुआ जान पड़ता है, पर मन से विकार का पोषण किया करता है, वह मूढ़ मिथ्याचारी है। सब किसी को इसका अनुभव होता है। मन को विकारपूर्ण रहने देकर शरीर को दबाने की कोशिश करना हानिकर है। जहाँ मन है, वहाँ अन्त को शरीर भी घसीटाये बिना नहीं रहता। यहीं एक भेद समझ लेना जरूरी है। मन को विकारवश होने देना एक बात है और मन को अपने आप अनिच्छा से, बलात् विकार को प्राप्त होना या होते रहना, दूसरी बात है। इस विकार में यदि हम सहायक न बनें तो आखिर जीत हमारी ही है। हम प्रति पल यह अनुभव करते हैं कि शरीर तो काबू में रहता है, पर मन नहीं रहता। इसलिये शरीर को तुरन्त ही वश में कर के मन को वश में करने की रोज कोशिश करने से हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं—कर चुकते हैं। यदि हम मन के अधीन हो जायें तो शरीर और मन में विरोध खड़ा हो जाता है, मिथ्याचार का आरम्भ हो जाता है। पर कह सकते हैं कि जब तक मनोविकार को दबाते ही रहते हैं तब तक दोनों साथ-साथ चलते हैं। इस ब्रह्मचर्य का पालन बहुत कठिन, लगभग, अशक्य ही माना गया है। इसके कारण का पता लगाने से मालूम होता है कि ब्रह्मचर्य का संकुचित अर्थ किया गया है। जननेन्द्रिय-विकार के निरोध को ही ब्रह्मचर्य का पालन माना गया है। मेरी राय में वह अधूरी और खोटी व्याख्या है। विषय मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है। जो और-और इन्द्रियों को जहाँ तहाँ भटकने देकर केवल एक ही इन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है, इसमें शक ही क्या है? कान से विकार की बातें सुनना, आँख से विकार उत्पन्न करने वाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु चखना, हाथ से विकारों को भड़काने वाली चीज को छूना और साथ ही जननेन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करेगा, यह तो आग में हाथ डालकर जलने से बचने का प्रयत्न करने के समान हुआ। इसलिये जो जननेन्द्रिय को रोकने का निश्चय करे उसे पहले ही से प्रत्येक इन्द्रिय को उस-उस इन्द्रिय के विकारों से रोकने का निश्चय कर ही लिया होना चाहिये। मैंने सदा से यह अनुभव किया है कि ब्रह्मचर्य की संकुचित व्याख्या से नुकसान हुआ है। मेरा तो यह निश्चय मत है, और अनुभव है कि यदि हम सब इन्द्रियों को एक साथ वश में करने का अभ्यास करें-रफ्त डालें तो जननेन्द्रिय को वश में करने का प्रयत्न शीघ्र ही सफल हो सकता है, तभी उसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसमें मुख्य स्वाद इन्द्रिय है। इसीलिये उसके संयम को हमने पृथक स्थान दिया है। उसका अगली बार विचार करेंगे। ब्रह्मचर्य के मूल अर्थ को सब याद रक्खें। ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की-सत्य की शोध में चर्चा, अर्थात् तत्संबंधी आचार। इस मूल अर्थ से सर्वन्द्रिय-संयम का विशेष अर्थ निकलता है। सिर्फ जननेन्द्रिय-संयम के अधूरे अर्थ को तो हम भुला ही दें।