
स्वर योग
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(ले. श्री. नारायण प्रसाद तिवारी कान्हीवाड़ा) चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र इन चारों में और विशेषकर शुक्ल पक्ष में बाई नाड़ी चलना शुभ है। रवि, मंगल और शनि इन वारों में और विशेषकर कृष्ण पक्ष में दक्षिण नाड़ी चलना शुभदायक है। रविवार को सूर्योदय पर सूर्य नाड़ी और चन्द्रवार को चन्द्र नाड़ी चलना शुभ माना गया है।
चन्द्र स्वर में शुक्ल पक्ष का (दूज को) प्रथम चन्द्र दर्शन होना शुभ कहा गया है।उदयं चन्द्र मार्गेण सूर्येण्णस्तमणं यदि।
तदा ते गुणसंधाता विपरीतं विवर्जयेत।। यदि दिन चन्द्र के स्वर से उदय और सूर्य के स्वर से अस्त हो तो इससे अनेकों गुण उत्पन्न होते हैं और यदि इसके विपरीत हो तो अनेकों दोष होते हैं। दिन को जो चन्दा चलै, रात चलावे सूर।
तो यह निश्चय जानिये, प्राण गमन है दूर।। स्वाभाविक यह प्रश्न हो सकता है कि प्राकृतिक चलते हुए स्वर को यदि वह अशुभ भी है तो क्या किया जावे? मनुष्य बहुत थोड़े अभ्यास से स्वर बदल सकता है और इच्छा पूर्वक स्वर चला सकता है। हाँ कभी- कभी जबकि कोई आपत्ति जनक घटना घटने वाली ही होती है तो स्वर हठीला हो जाता है, किन्तु जब भी मनुष्य प्रयत्न से बहुत कुछ स्वर बदल सकता है जिसके लिये कुछ नियम इस प्रकार है। (१) जो स्वर नहीं चल रहा है उसे अंगूठे से दबावे और जिस नथुने से साँस चलता है उससे हवा खींचे फिर जिससे श्वाँस खींची है उसे दबा कर पहले नथुने से यानि जिससे स्वर चलाना है उससे श्वाँस छोड़े। इस प्रकार कुछ देर तक बार- बार करे। श्वाँस की चाल बदल जावेगी। (२) जिस नथुने से श्वाँस चल रही हो उसी करवट लेट जावे तो स्वर बदल जावेगा। इस प्रयोग के साथ पहला प्रयोग करने से स्वर और भी शीघ्र बदलता है। (३)जिस तरफ का स्वर चल रहा है उस ओर कांख में कोई सक्त चीज कुछ देर दबा रखो। पहले और दूसरे प्रयोग साथ यह प्रयोग करने से शीघ्र स्वर बदलेगा। (४) घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलता कहा जाता है। (५) चलित स्वर में पुरानी स्वच्छ रुई का फोहा रखने से स्वर बदलता है। शुभ या अशुभ कार्य के लिये प्रस्थान करते समय चलित स्वर के शरीर भाग को हाथ से स्पर्श कर उसी चलित स्वर वाले कदम को (यदि चन्द्र नाड़ी चलती है तो ४ बार और सूर्य स्वर है तो ५ बार) जमीन पर पटक का प्रस्थान करे। चन्द्र स्वर में पूर्व और उत्तर की ओर नहीं जाना चाहिये और सूर्य स्वर में पश्चिम तथा उत्तर को जाना मना है। दूर के युद्ध में चन्द्र स्वर (इड़ा नाड़ी) विजय देने वाला है और निकट के युद्ध में सूर्य स्वर (पिंगला नाड़ी) इस काम के लिये ठीक है। जिधर का स्वर चलता हो उसी ओर का पैर पहले आगे धर कर यात्रा करे, अवश्य फलीभूत होगा। यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना ह तो अचलित स्वर (जो स्वर न चल रहा हो) के पैर को पहले आगे बढ़ा कर प्रस्थान करना चाहिये और अचलित स्वर की ओर उस पुरुष को करके बातचीत करना चाहिये। इस रीति से उसका क्रोध शान्त कर अपने मनोरथ में सिद्धि प्राप्ति होगी। गुरु, मित्र, ऑफिसर, राज दरबार से जबकि वाम स्वर चलित हो उस समय वार्तालाप और कार्यारंभ करना श्रेयस्कर है। यात्रा के समय विवाह में नगर इत्यादि के प्रवेश आदि शुभ कार्यों में चन्द्र स्वर सदा सिद्धि देने वाला कहा गया है।जो जीवांग (अर्थात जिधर का स्वर चलता हो) उसी अंग में वस्त्र पहिन कर जीवं रक्ष, जीवं रक्ष ऐसा मन्त्र जपता है वह विजयी होता है।सूर्य स्वर में किसी भी सवारी अश्व, मोटर साईकिल इत्यादि पर दाहिना पैर पहले सवारी पर रख कर बैठना उत्तम है। मासिक धर्म के ५ वे दिन जबकि पुरुष की सूर्य तथा स्त्री की ईड़ा नाड़ी चलती है उस समय गर्भदान होने से अवश्य पुत्र प्राप्ति होगी इसके विपरीत कन्या, तथा शुषुम्ना स्वर में गर्भदान होने से सन्तान किसी भी इन्द्रिय से हीन होगी।बाँझपन मिटाने के लिये इसकी परीक्षा करने वालों से निवेदन है कि मासिक धर्म के पहले पन्द्रह दिन के अन्दर जबकि पुरुष की तीव्र सूर्य नाड़ी तथा स्त्री की तीव्र चन्द्र नाड़ी चलती हो संगम किया जावे। यदि स्वाभाविक न चले तो उपर्युक्त रीति से चलाने का प्रयत्न करना चाहिये। तत्वअब में स्वरोदय के अन्य विषयों पर विचार करने के पूर्व तत्व पर सूक्ष्म प्रकाश डाल देना चाहता हूँ क्योंकि बिना तत्व ज्ञान के अन्य विषयों की विवेचना स्पष्ट न होगी। यह कहा जा चुका है कि तत्व पाँच हैं।धाती अरु आकाश है, और तीसरी धौन। पानी पावक पाँच यों, करत श्वाँस में गान।।सम्पूर्ण लोकों में स्थित जीवों की देह तत्वों से भिन्न नहीं है अर्थात सभी पंच भूतात्मक हैं परन्तु नाड़ी भेद भिन्न हैं।लोग कहते हैं कि भूख लगने पर कुछ खा लेना चाहिये वरना भूख मर जाती है। यह भूख मरने वाली कहावत बच्चे तक जानते हैं पर बात विचारणीय है कि भूख मरी कैसे? इसका उत्तर यही है कि तत्व तथा स्वर बदल जाता है। अग्नि तत्व भूख पैदा करती है। आकाश तत्व वात कारक है अतएव भूख लगने पर अग्नि तत्व में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए कुछ न रहने से खाली घर में आकाश प्रवेश कर अग्नि को शीतल कर वायु अपना अधिकार जमाती है जिससे वात पैदा होती है ।। आपने देखा होगा कि वात प्रकृति का पुरुष देखने में तो मोटा अवश्य दीखेगा किन्तु उसे सदा भूख कम लगती है और सदा वह चूरन की पुड़ियों से पेट भरना अपना नियम बना लेता है। आप चूल्हे में आग जलाइए। यदि उसमें और भी लकड़ियाँ बराबर न लगाते रहेंगे तो उन लकड़ियों की अग्नि क्रमशः शीतल हो जावेगी। इसलिए अग्नि तत्व तथा सूर्य स्वर में भोजन करना उत्तम माना गया है। किस समय कौन से तत्व का अधिकार है इसके जानने के लिए इस विषय में बहुत अभ्यास की आवश्यकता है। उषा काल में तत्व परीक्षा का अभ्यास उत्तम हैं।(१) के छेदों में दोनों मध्यमा (बीच की अंगुली) दोनों आँखों पर तर्जनी तथा अनामिकाओं कनिष्ठा से आठों को बन्द करे, इसे पण्मुखी मुद्र कहते हैं।यदि पीला रंग दीखे तो पृथ्वी, सफेद हो तो जल, लाल हो तो अग्नि, काला या नीला हो तो वायु तत्व समझना चाहिये और विचित्र मिश्रित रंग दीखें तो आकाश तत्व समझना चाहिये। (२) दर्पण में देख कर श्वाँस छोड़े, उसमें यदि चौकोण आकार हो तो पृथ्वी, अर्धचन्द्र हो तो जल, त्रिकोण हो तो अग्नि, वर्तुलाकार हो तो आकाश तत्व समझना चाहिये। (३) मुँह का स्वाद मीठा हो तो पृथ्वी, कसैला हो तो जल, तीक्ष्ण हो तो अग्नि, खट्टा हो तो वायु और कड़वा हो तो आकाश तत्व समझना चाहिये। (४) पाँच रंग की गोली बना कर जेब में डाले और एक गोली हाथ डाल कर निकाले, जिस रंग की गोली निकले वही तत्व की उस समय प्रधानता समझी जावे (यह निकृष्ट नियम है) (५) वायु का स्वर आठ अंगुल चलता है, अग्नि का स्वर चार, पृथ्वी का बारह, जल का सोलह अंगुल चलता है, आकाश तत्व की चाल ही निराली है कोई नियमित रूप से नहीं चलता। पृथ्वी तत्व में स्थिर कर्म, जल तत्व में चर कर्म, अग्नि तत्व में क्रूर कर्म, वायु तत्व में मारण उच्चाटन कर्म करना वर्जित है, क्योंकि फलीभूत नहीं होता। कारण आकाश शून्य है। पृथ्वी तत्व और जल तत्व दोनों शुभ दायक है। अग्नि तत्व मृत्यु दायक, वायु तत्व क्षय दायक है। पृथ्वी तत्व विलम्ब से लाभदायक है। जल तत्व शीघ्र ही फलदायक हैं। अग्नि और वायु तत्व हानिकारक है। दिन में पृथ्वी तत्व और रात्रि में जल तत्व सहज शुभ दायक है। जीवन में, जय में, खेती के कार्यों में, धन पैदा करने में, मन्त्र जप में, युद्ध के प्रश्न में, आने जाने में, पृथ्वी तत्व उत्तम है।
तदा ते गुणसंधाता विपरीतं विवर्जयेत।। यदि दिन चन्द्र के स्वर से उदय और सूर्य के स्वर से अस्त हो तो इससे अनेकों गुण उत्पन्न होते हैं और यदि इसके विपरीत हो तो अनेकों दोष होते हैं। दिन को जो चन्दा चलै, रात चलावे सूर।
तो यह निश्चय जानिये, प्राण गमन है दूर।। स्वाभाविक यह प्रश्न हो सकता है कि प्राकृतिक चलते हुए स्वर को यदि वह अशुभ भी है तो क्या किया जावे? मनुष्य बहुत थोड़े अभ्यास से स्वर बदल सकता है और इच्छा पूर्वक स्वर चला सकता है। हाँ कभी- कभी जबकि कोई आपत्ति जनक घटना घटने वाली ही होती है तो स्वर हठीला हो जाता है, किन्तु जब भी मनुष्य प्रयत्न से बहुत कुछ स्वर बदल सकता है जिसके लिये कुछ नियम इस प्रकार है। (१) जो स्वर नहीं चल रहा है उसे अंगूठे से दबावे और जिस नथुने से साँस चलता है उससे हवा खींचे फिर जिससे श्वाँस खींची है उसे दबा कर पहले नथुने से यानि जिससे स्वर चलाना है उससे श्वाँस छोड़े। इस प्रकार कुछ देर तक बार- बार करे। श्वाँस की चाल बदल जावेगी। (२) जिस नथुने से श्वाँस चल रही हो उसी करवट लेट जावे तो स्वर बदल जावेगा। इस प्रयोग के साथ पहला प्रयोग करने से स्वर और भी शीघ्र बदलता है। (३)जिस तरफ का स्वर चल रहा है उस ओर कांख में कोई सक्त चीज कुछ देर दबा रखो। पहले और दूसरे प्रयोग साथ यह प्रयोग करने से शीघ्र स्वर बदलेगा। (४) घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलता कहा जाता है। (५) चलित स्वर में पुरानी स्वच्छ रुई का फोहा रखने से स्वर बदलता है। शुभ या अशुभ कार्य के लिये प्रस्थान करते समय चलित स्वर के शरीर भाग को हाथ से स्पर्श कर उसी चलित स्वर वाले कदम को (यदि चन्द्र नाड़ी चलती है तो ४ बार और सूर्य स्वर है तो ५ बार) जमीन पर पटक का प्रस्थान करे। चन्द्र स्वर में पूर्व और उत्तर की ओर नहीं जाना चाहिये और सूर्य स्वर में पश्चिम तथा उत्तर को जाना मना है। दूर के युद्ध में चन्द्र स्वर (इड़ा नाड़ी) विजय देने वाला है और निकट के युद्ध में सूर्य स्वर (पिंगला नाड़ी) इस काम के लिये ठीक है। जिधर का स्वर चलता हो उसी ओर का पैर पहले आगे धर कर यात्रा करे, अवश्य फलीभूत होगा। यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना ह तो अचलित स्वर (जो स्वर न चल रहा हो) के पैर को पहले आगे बढ़ा कर प्रस्थान करना चाहिये और अचलित स्वर की ओर उस पुरुष को करके बातचीत करना चाहिये। इस रीति से उसका क्रोध शान्त कर अपने मनोरथ में सिद्धि प्राप्ति होगी। गुरु, मित्र, ऑफिसर, राज दरबार से जबकि वाम स्वर चलित हो उस समय वार्तालाप और कार्यारंभ करना श्रेयस्कर है। यात्रा के समय विवाह में नगर इत्यादि के प्रवेश आदि शुभ कार्यों में चन्द्र स्वर सदा सिद्धि देने वाला कहा गया है।जो जीवांग (अर्थात जिधर का स्वर चलता हो) उसी अंग में वस्त्र पहिन कर जीवं रक्ष, जीवं रक्ष ऐसा मन्त्र जपता है वह विजयी होता है।सूर्य स्वर में किसी भी सवारी अश्व, मोटर साईकिल इत्यादि पर दाहिना पैर पहले सवारी पर रख कर बैठना उत्तम है। मासिक धर्म के ५ वे दिन जबकि पुरुष की सूर्य तथा स्त्री की ईड़ा नाड़ी चलती है उस समय गर्भदान होने से अवश्य पुत्र प्राप्ति होगी इसके विपरीत कन्या, तथा शुषुम्ना स्वर में गर्भदान होने से सन्तान किसी भी इन्द्रिय से हीन होगी।बाँझपन मिटाने के लिये इसकी परीक्षा करने वालों से निवेदन है कि मासिक धर्म के पहले पन्द्रह दिन के अन्दर जबकि पुरुष की तीव्र सूर्य नाड़ी तथा स्त्री की तीव्र चन्द्र नाड़ी चलती हो संगम किया जावे। यदि स्वाभाविक न चले तो उपर्युक्त रीति से चलाने का प्रयत्न करना चाहिये। तत्वअब में स्वरोदय के अन्य विषयों पर विचार करने के पूर्व तत्व पर सूक्ष्म प्रकाश डाल देना चाहता हूँ क्योंकि बिना तत्व ज्ञान के अन्य विषयों की विवेचना स्पष्ट न होगी। यह कहा जा चुका है कि तत्व पाँच हैं।धाती अरु आकाश है, और तीसरी धौन। पानी पावक पाँच यों, करत श्वाँस में गान।।सम्पूर्ण लोकों में स्थित जीवों की देह तत्वों से भिन्न नहीं है अर्थात सभी पंच भूतात्मक हैं परन्तु नाड़ी भेद भिन्न हैं।लोग कहते हैं कि भूख लगने पर कुछ खा लेना चाहिये वरना भूख मर जाती है। यह भूख मरने वाली कहावत बच्चे तक जानते हैं पर बात विचारणीय है कि भूख मरी कैसे? इसका उत्तर यही है कि तत्व तथा स्वर बदल जाता है। अग्नि तत्व भूख पैदा करती है। आकाश तत्व वात कारक है अतएव भूख लगने पर अग्नि तत्व में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए कुछ न रहने से खाली घर में आकाश प्रवेश कर अग्नि को शीतल कर वायु अपना अधिकार जमाती है जिससे वात पैदा होती है ।। आपने देखा होगा कि वात प्रकृति का पुरुष देखने में तो मोटा अवश्य दीखेगा किन्तु उसे सदा भूख कम लगती है और सदा वह चूरन की पुड़ियों से पेट भरना अपना नियम बना लेता है। आप चूल्हे में आग जलाइए। यदि उसमें और भी लकड़ियाँ बराबर न लगाते रहेंगे तो उन लकड़ियों की अग्नि क्रमशः शीतल हो जावेगी। इसलिए अग्नि तत्व तथा सूर्य स्वर में भोजन करना उत्तम माना गया है। किस समय कौन से तत्व का अधिकार है इसके जानने के लिए इस विषय में बहुत अभ्यास की आवश्यकता है। उषा काल में तत्व परीक्षा का अभ्यास उत्तम हैं।(१) के छेदों में दोनों मध्यमा (बीच की अंगुली) दोनों आँखों पर तर्जनी तथा अनामिकाओं कनिष्ठा से आठों को बन्द करे, इसे पण्मुखी मुद्र कहते हैं।यदि पीला रंग दीखे तो पृथ्वी, सफेद हो तो जल, लाल हो तो अग्नि, काला या नीला हो तो वायु तत्व समझना चाहिये और विचित्र मिश्रित रंग दीखें तो आकाश तत्व समझना चाहिये। (२) दर्पण में देख कर श्वाँस छोड़े, उसमें यदि चौकोण आकार हो तो पृथ्वी, अर्धचन्द्र हो तो जल, त्रिकोण हो तो अग्नि, वर्तुलाकार हो तो आकाश तत्व समझना चाहिये। (३) मुँह का स्वाद मीठा हो तो पृथ्वी, कसैला हो तो जल, तीक्ष्ण हो तो अग्नि, खट्टा हो तो वायु और कड़वा हो तो आकाश तत्व समझना चाहिये। (४) पाँच रंग की गोली बना कर जेब में डाले और एक गोली हाथ डाल कर निकाले, जिस रंग की गोली निकले वही तत्व की उस समय प्रधानता समझी जावे (यह निकृष्ट नियम है) (५) वायु का स्वर आठ अंगुल चलता है, अग्नि का स्वर चार, पृथ्वी का बारह, जल का सोलह अंगुल चलता है, आकाश तत्व की चाल ही निराली है कोई नियमित रूप से नहीं चलता। पृथ्वी तत्व में स्थिर कर्म, जल तत्व में चर कर्म, अग्नि तत्व में क्रूर कर्म, वायु तत्व में मारण उच्चाटन कर्म करना वर्जित है, क्योंकि फलीभूत नहीं होता। कारण आकाश शून्य है। पृथ्वी तत्व और जल तत्व दोनों शुभ दायक है। अग्नि तत्व मृत्यु दायक, वायु तत्व क्षय दायक है। पृथ्वी तत्व विलम्ब से लाभदायक है। जल तत्व शीघ्र ही फलदायक हैं। अग्नि और वायु तत्व हानिकारक है। दिन में पृथ्वी तत्व और रात्रि में जल तत्व सहज शुभ दायक है। जीवन में, जय में, खेती के कार्यों में, धन पैदा करने में, मन्त्र जप में, युद्ध के प्रश्न में, आने जाने में, पृथ्वी तत्व उत्तम है।