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Magazine - Year 1940 - Version 2

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अहंभाव का प्रसार करो

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(ले. पं. शिवनारायण शर्मा हैड मास्टर वि. व. पाठशाला आगरा)

सर्वभूतस्थ मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योग युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।
आत्मोपम्येन सर्वत्र समं, पश्यनियोऽर्जुन।
सुखं वा यदिवा दुःखं स योगी परमोमतः।।

संसार में अशान्ति का उत्पात क्यों है? कौरव पाण्डवों के बीच जो घोर संग्राम हुआ था उसका मूल कारण क्या था? कौरव समझते थे कि पाण्डव हमसे अलग है। पांडव समझते थे दुर्योधनादि हमसे पृथक हैं। कौरव यदि पाण्डवों को अपना समझते या समझ सके होते तो क्या कुरुक्षेत्र का युद्ध होता? कदापि नहीं। आधुनिक, प्राचीन ,, जातीय या व्यक्तिगत सब ही विवादों का मूल अहंभाव का संकोच है। यदि मैं आपको मैं समझ सकता तो क्या आपके साथ विवाद कर सकता? कदापि नहीं। तू को मैं से पृथक जानने ही के कारण मैं तुमसे प्यार नहीं करता और विजातीय मानता हूँ। अहंभाव संकोच ही सारी अशान्ति का कारण है, इसका प्रसार सर्व शान्ति का मूल है। पड़ोसी को अपने से पृथक समझता हूँ, इसी से उसका सुख दुख मेरा सुख दुख नहीं हुआ या नहीं है। दुर्भिक्ष, भूकम्प, महामारी आदि ने आकर हजारों प्राणियों का नाश कर दिया है किन्तु हमारे प्राण नहीं रोये। वे कहाँ के थे? वे हमारे कोई नहीं। हम अपने से प्यार करते हैं जगत में हमको छोड़ कोई भी हमसे प्यार नहीं कर सकता। शास्त्र कहता है कि अहंता का नाश करो। तब ही शान्ति होगी। वही बात इस तरह भी कही जा सकती है कि अहंभाव का प्रसार करोगे तब ही शान्ति पाओगे। अहंभाव का नाश होने से हममें तुममें भेद नहीं रहेगा, और यही बात अहंभाव के प्रसार में भी होगी। अहं पन का नाश और प्रसार एक ही बात है। अहंता जब तक मुझमें बंधी हुई है तब तक वह शुद्ध वैयक्तिक अहंता है और वही विश्वव्यापी हो जाने पर मुझमें बँधी न रहेगी एवं तब उसका ध्वंस होना कहा जा सकेगा। शास्त्र कहता है- सब भूतों में जो आत्मा को देखता है वही विद्वान मोक्ष पाता है। वस्तुतः मुझमें तुझमें और उसमें कोई भेद नहीं। सर्वनाम, प्रोनाउन सब रट डाले परन्तु यह समझ नहीं आई कि तीन पुरुष पास- पास खड़े होकर बातचीत करें तो कहने वाला अपने को ‘मैं’ और सुनने वाले को ‘तू’ और तीसरे को वह ‘उस’ कहेगा, फिर मध्यम पुरुष वाला तू अपने को ‘मैं’ कहेगा और मैं वाले को ‘तू’ और तीसरे को वह ‘उस’ कहेगा। तीसरे को वह फिर तीसरा अपने को ‘मैं’ कहेगा तब इन तीनों के मैं में क्या भेद रहा, कुछ भी नहीं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहंत्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयि स्यामि माशुचः।।’’ यह मान अहंकारी रूप तो हैं, पढ़ा भी है परन्तु अन्तःकरण में भाव नहीं बैठा है। इसको विचारिये अभ्यास कीजिये तब यही पदार्थ जान पड़ेगा। ''एकमेवाद्वितियम्।''

अविद्या व अज्ञान वश हम भेद देखते हैं। इस तत्व की उच्च दार्शनिक मीमांसा यहाँ छोड़कर यदि स्थूल बुद्धि से भी देख पावेंगे के तुम्हारा और हमारा जीवन इतने घनिष्ट सम्बन्ध से बँध हुआ है कि जब तक कि आप मुझको आत्मीय समझ कर ग्रहण न कर सकेंगे, तब तक आपके सुख की आशा दुराशा मात्र है। आप धनी हैं आपको हैजा हुआ, डाक्टर या वैद्य हकीम आये, उपयुक्त चिकित्सा से आपको आराम हो गया। मैं दरिद्र हूँ हैजा या प्लेग हुआ, न वैद्य डाक्टर आये न अच्छा हो सका, मर गया, किसी ने भी खबर न ली, मेरे मृत देह से हैजे का विष चारों ओर फैल गया है, आपने मुझको त्याग अवश्य किया था परन्तु विषूचिका के विष को परित्याग नहीं कर सके, उसने आप पर तथा गाँव या मुहल्ले के अनेक लोगों पर आक्रमण किया गाँव नष्ट हो गया। यदि आप मुझको आत्मीय, अपना जान कर चिकित्सा और सुश्रुषा से बचा सकते अथवा कम से कम मृतदेह को शीघ्र ही दाह संस्कार भी करा सकते तो शायद ऐसा न होता। आपको तन्दुरुस्त रहने के लिये, बीमारी से बचने के लिये दूसरों को भी अपना ही समझकर स्वस्थ रखना चाहिये। ‘‘जो दूसरों की रक्षा करता है उसी की रक्षा होती है।’’ यह साधारण कहावत है इसके अर्थ का रहस्य भी अहंभाव का प्रसार है। आप अपने अहंभाव का प्रसार कीजिये अवश्य सुख से रह सकेंगे। जो बात पड़ोसी के विषय में कही है वही ग्राम, प्रान्त, देश आदि में भी समझ लीजिये। यूरोप, अमेरिका या एशिया में आज कोई नई बीमारी उत्पन्न हुई, दो ही एक दिन में देखेंगे कि वह सर्वर्त्र फैल गई। उदाहरण प्लेग इन्फ़्लुएञ्ज़ा स्पष्ट ही हैं। समाज या देश भेद से जगत का सब शुभाशुभ, समस्त घटनायें समस्त मानव जाति के पक्ष में साक्षात् वा परम्परा सम्बन्ध से भोगनी पड़ती है। अतएव शान्ति चाहते वाले पुरुष को सर्वत्र ही समदृष्टि रहनी चाहिये। केवल अपनी ओर दृष्टि रखने से काम न चलेगा, दूसरों की ओर भी दृष्टि रखनी चाहिये।

आप यथेष्ट धन उपार्जित करते हैं, किन्तु दरिद्र जगत उस धन से वंचित हैं। सैकड़ों पड़ोसी अन्न वस्त्रादि से दुःखी हैं। उन पर आपकी दृष्टि नहीं है। सैकड़ों पड़ोसी अभाव की पीड़ा से अज्ञान वश अधर्माचरण में प्रवृत्त हैं और आप अपने धन में ही मत्त हैं। किन्तु कुछ दिन बाद ही डाकुओं ने आपका सर्वस्व ले लिया। तब आप का अहंभाव संकोच संचित धन कहां चला गया? इसमें विचार कीजिये कि दोष किसका? आप कहेंगे कि डाकुओं का दोष हैं, परन्तु वास्तव में पहले आपका दोष है, पीछे उनका। आप अपने देश में दस्यु होने ही क्यों देते हैं? जो दस्यु हुए हैं वे शायद ऐसी प्रकृति वाले होते ही नहीं, यदि आप अपने द्रव्य का सदुपयोग करते।

आज कल पाश्चात्य जगत में सामाजिक धन, साम्य नीति पर बहुत आन्दोलन चल रहा है, और इसके दुरुपयोग के फल से अनेक स्थलों में निहिलिस्ट सोसलिस्ट आदि की सृष्टि पुष्ट होने से पाश्चात्य समाज में दिन दिन प्रशान्ति बढ़ रही है, किन्तु भारत वर्ष में प्राचीन काल से सर्वशास्त्र सार सिद्धान्त, संभूत अहंता का विनाश अथवा उसके विश्व विस्तार तत्व की शिक्षा होने से सात्विक दान धर्म की साधना से, आर्य समाज शान्ति की गोद में सोता था। उसी शिक्षा का ध्वंसावशेष अब भी भारत की रक्षा कर रहा है।

जब आपने शास्त्र सिन्धु मंथन कर ज्ञानामृत पान कर, देवता स्वरूप गृह में बैठकर देव कार्य में तत्पर रहे, वह ज्ञानामृत दूसरों को दान न करें और फिर सब असुर होकर आपके देव कार्य में बाधा देने लगें, तब फिर परिताप ही क्या? फिर आप उनके विनाश का उपाय सोचने लगते हैं। क्यों, इतने गोलमाल करने की आवश्यकता ही क्या? उनको भी ज्ञानामृत देकर देवता बनाया होता। देखिये देश में जितने असुर राक्षस हैं वे हमारे ही दोष से हैं।

हमारे पुत्र ने अच्छी तरह लिखना पढ़ना सीखा है, शान्त है, धार्मिक है, किन्तु पड़ोसी के पुत्र मूर्ख हैं। हमारा पुत्र भी उनके साथ मिल कर क्रम से सुहबत का असर पाकर मूर्ख हो जायेगा। अतएव केवल अपने पुत्र को पढ़ाने से ही काम न चलेगा, दूसरों के पुत्रों को भी लिखना पढ़ना सिखाना चाहिये।

जगत ब्रह्ममय है, अतएव परमार्थतः कोई भी किसी से जुदा नहीं है। छोटी चींटी के साथ भी आपका घनिष्ट सम्बन्ध है। ज्ञान विकाश के साथ हममे जो स्नेह है जब उसका क्रम से विस्तार होता रहे, तो सब भूतों में आत्मदर्शन हो और सब गोलमाल मिट जाय।

देखिये, आपके पुत्र या पौत्र ने जो आपके पास बैठा था या गोद में था, पेशाब कर दी, आप कहते हैं अरे भाई, इस बच्चे को ले जाओं इसने हमारे कपड़ों पर पेशाब कर दी। इससे जरा भी नाक नहीं सकोड़ी, किन्तु पड़ोसी का बालक आपके बिछौनों पर आकर कहीं पेशाब कर दे तो तुरन्त चिल्लाने लगते हो। ऐसे अलग अलग व्यवहार का कारण क्या है? वही अहंभाव का प्रसार न होना। आप उस बालक को अपना बालक नहीं समझते, इसी से भेदभाव है। बालक का मूत्र त्याग करना इस गोलमाल का कारण नहीं है। आपका बालक बीमार है। उठने की शक्ति नहीं है। मल मूत्र त्याग कर देता है, आप बिना क्लेश के उसे साफ कर देते हैं, बल्कि उसमें उत्साह अनुभव करते हैं, किन्तु हमारे पुत्र के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते? हमारे पुत्र का मलमूत्र उसका कारण नहीं है। तुम हमारे पुत्र को अपने पुत्र के समान नहीं जानते तुम्हारा अहंभाव अति संकुचित हैं। यदि अहंभाव विस्तारित होता तो हमारे पुत्र का मल मूत्र साफ करके भी तुम्हें आनन्द होता। मेहतर को क्यों नहीं छूते? क्या वह मूर्ख है इसलिये? यदि यह बसत है तब तो आप का अमुक सम्बन्धी भी उसी की तरह मूर्ख है, किन्तु उसके स्पर्श करने में कुछ भी विचार नहीं करते। अशौचाचारी, मलिन ,, अधर्मी, कुरुप इत्यादि कारणों से यदि उसे स्पर्श न करते हो तो स्नान करके आने पर तो स्पर्श करो। नहीं, ऐसा भी तो नहीं करते। तुम आप यदि मल स्पर्श करो तब तो हाथ पाँव इत्यादि धोने से पवित्र हो जाते हो, किन्तु मेहतर पवित्र नहीं होता? उसका कारण क्या मल स्पर्श है? शरीर मल संयुक्त होने पर उसे धोकर स्नान कर लिया जाय तो उसका अंग तुम्हारी तरह पवित्र क्यों न होगा? अब देखिए कि मल स्पर्श करने से मेहतर आपकी समझ में हेय नहीं हैं बल्कि तुमने उसे अपने मैं से बहुत दूरवर्ती और पृथक समझ कर ही अछूत मान लिया है।

कुष्ठ रोग से पीड़ित मनुष्य तुम्हारे सामने उपस्थित हुआ तो तुम्हें असह्य उद्वेग उत्पन्न हुआ, परन्तु यदि तुम्हें स्वयं कुष्ठ हो जाय, तब क्या करोगे? अतएव कुष्ठ रोग के कारण ही तुम कुष्ठी से घृणा नहीं करते बल्कि अहंभाव से कृपण होकर उसे स्वतंत्र समझ कर ही ऐसी घृणा करते हो। अपने शरीर पर एक घाव हो जाय तो उसकी चिकित्सा करते हो। जिससे आरोग्य हो जाओ ऐसी चेष्टा करते हो। परन्तु यदि दूसरे को भी अपना जानते तो उसके घाव को भी अपने घाव की तरह चिकित्सा करते।

तुम विद्वान, धार्मिक, धनी हो तो दूसरों को भी अपनी तरह धार्मिक और धनी बनाने का यत्न करो। पापी, रोगी, दरिद्र से घृणा न करो बल्कि उनको उन्नत अवस्था में लाने की चेष्टा करो। पूर्व ही कहा है कि ऐसा न करने से तुम्हारा अपना जो कुछ है वह भी वृथा है।

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