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Magazine - Year 1940 - Version 2

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सृष्टि की कथा

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(ले. प्रो. जयशंकर एम.ए.)

बुद्धि के विकाश के साथ- साथ ज्ञान की प्यास भी बढ़ती जाती है। जड़ता को छोड़कर मनुष्य जैसे जैसे चेतना में प्रवेश करता जाता ह वैसे ही वैसे वह अपने को अनेक प्रश्नों से घिरा हुआ पाता है। सबसे पहले उसकी निगाह अपने आसपास की चीजों पर जाती है। सोचता है कि यह सब क्या है? इसका इतिहास और कार्यक्रम क्या है? संसार के सब धर्म सृष्टि की कथा कुछ कुछ कहते हैं। अब तक उस पर जैसे तैसे विश्वास किया जाता रहा। परन्तु इस युग की वैज्ञानिक संक्रान्ति ने दुनियाँ का दिमाग फेर दिया है। इसलिए धार्मिक पुस्तकों की वे बातें लँगड़ी लूली और काल्पनिक कहानी प्रतीत होती है। दूसरे विभिन्न धर्मों द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार के उत्तर मिलते हैं और वे उत्तर आपस में एक दूसरे से रत्ती भर में भी नहीं मिलते। ऐसी दशा में दुखी होकर जिज्ञासु विज्ञान की ओर मुँह करके उसी से कुछ समाधान की इच्छा करता है।

विज्ञान ने सृष्टि की उत्पत्ति विकास और कार्यक्रम के बारे में बहुत कुछ खोज की है। यह खोज अंतिम रूप से निर्विवाद स्वीकृत हो गई हो सो बात तो नहीं, पर हाँ अब करीब करीब जिस सिद्धान्त को ज्योतिषी स्वीकृत कर रहे हैं उसी के पाश्चात्य सृष्टि विज्ञान को पाठकों की जानकारी के लिए वर्णन किया जा रहा है।

कुछ समय के लिए आप अपने मकान को बन्द करके चले जाते हैं। बाद को आकर जब उसे खोलते हैं तो मेज, कुर्सी, तस्वीर, पलंग, फर्श आदि सब चीजों पर धूलि की एकपतली तह जमी पाते हैं। यह धूलि कहाँ से आ गई? वायु मण्डल में धूलि के कण सदैव उड़ते रहते हैं। यन्त्रों द्वारा उसे एक हलके से बादल, बदली के रूप में हर समय उड़ता हुआ देखा जा सकता है। आंधी आने पर या गर्मी के दिनों में संध्या समय आकाश पर छाई हुई यह धूलि साफ दिखाई देती है। यही धूलि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति द्वारा खिंच कर बन्द मकानों में भी फर्श आदि पर जमा हो जाती है। इससे आप एक संसार व्यापी धूलि की बल की बदली की कल्पना कर सकते हैं।

सृष्टि का आरम्भ ऐसी ही एक असंख्य मील लम्बी चौड़ी बदली से शुरु होता है। जिसमें धूलि के समान पंच तत्वों के परमाणु भरे होते हैं। स्वभावतः यह परमाणु सर्वत्र बराबर वजन सा दूरी में नहीं रह सकते। कुछ एक स्थान पर एकत्रित होंगे तो कुछ दूसरे स्थान पर। बदली कहीं घनी हो जायेगी तो कही छितरी रहेगी। इस प्रकार वह अनेक भागों में बँट जायेगी। घने भाग अपनी आकर्षण शक्ति द्वारा छितरे भागों में से परमाणुओं को खींच खींच कर अपने को और अधिक मजबूत बनाते रहेंगे और पिंडों का रूप धारण कर लेंगे। यह बातें इस स्थान पर नहीं समझाई जा सकती कि घने भाग में किस प्रकार आकर्षण शक्ति का समावेश हो जाता है और चारों ओर से पदार्थ खिंच-खिंच कर एकत्रित हो, किस प्रकार उसकी शकल गोले के समान हो जाती है। इसके लिए पाठकों को भौतिक शास्त्र का क्रमिक अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करना होगा। इस समय आपको यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि यह दोनों सिद्धान्त भौतिक शास्त्रियों को सर्वमान्य हैं इसलिए हम भी स्वीकार कर लें।

अनंत में छाई हुई तात्विक परमाणुओं की बदली से पिंड बनते हैं और अरबों खरबों वर्ष में एक ठोस एवं विशालकाय ग्रह बन जाते हैं। यह प्रायः सहज ही समझ में आ जाती है कि भारी होने के कारण धातुओं के परमाणु पिंडों के भीतर चले जायेंगे और वायुओं के ऊपर रह जायेंगे। नक्षत्रों का रूप यही माना जाता है कि वे धातुओं जैसी ठोस वस्तुओं के गोले हैं और उनके चारों ओर वायु का आवरण है। जिन्होंने विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की हैं उन्होंने अपने पहले ही पाठ में पढ़ा होगा कि दबाव पड़ने एवं सिकुड़ने से गर्मी पैदा होती है। परमाणुओं के पिंड जब अपने घनत्व के कारा दबते और सिकुड़ते हैं तो भीषण गर्मी के साथ तप का प्रज्वलित हो उठते हैं। यह जलते हुए पिण्ड गर्मी के नियमानुसार अपनी धुरी पर घूमने लग जाते हैं। यह घूमने की गति केवल अपने निश्चित स्थान तक ही नहीं रहती वरन् दूसरे ग्रहों की आकर्षण शक्ति के कारण इस प्रकार से भी हो जाती है जैसे हम एक रस्सी में बाँध कर लोहे के टुकड़े को चारों ओर घुमाते हैं और एक निश्चित मार्ग से परिक्रमा भी करते हैं। आरम्भिक परिक्रमा बड़ी कठिन होती है। जिस प्रकार बड़े परिश्रम पूर्वक दूसरों से लड़ झगड़कर अपनी सुविधाऐं इकट्ठी करनी पड़ती हैं वैसा ही उन नवजात पिण्डों को करना पड़ता है। दूसरे पिंडों की आकर्षण शक्ति से वे खिंचते हुए परिक्रमा करने के लिए जब अग्रसर होते हैं तो रास्ता खाली नहीं पड़ा होता। रास्ते में दूसरे पिंड मिलते हैं। दोनों आपस में टकराते हैं और बड़े छोटे को अपने पेट में निगल जाता है। इस महायुद्ध में असंख्य पिंड एक दूसरे को उदरस्थ करते जाते हैं और अन्त में कुछ विशालकाय बहुभक्षी और ऐसे पिंड बने रहते हैं जिन्होंने दिग्विजय करके अपना रास्ता पूरी तरह से साफ कर लिया है। इनमें से जो सबसे बड़ा शक्तिशाली होगा वह सूर्य कहलावेगा और अन्य छोटे ग्रह उसकी परिक्रमा करते रहेंगे। यह सौर मण्डल बनने की बात हुई।

अखिल विश्व में ऐसे करोड़ों सूर्य सम्प्रदाय या सौर मण्डल हैं। हमारे सौर मण्डल में लगभग पाँच सौ ग्रह हैं जो इस सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं। अन्य सूर्यों में से कई इससे छोटे और कई बड़े है। कुछ बहुत बुड्ढ़े हो चले है और पृथ्वी के समान ठंडे होने जा रहे हैं कुछ हमारे सूर्य की तरह अधेड़ हैं और कुछ अभी बिलकुल बच्चे हैं। प्रो. पिंकरिंग नाम ज्योजिषी ने गणित बनाया है कि टाइजले नक्षत्र हमारे सूर्य से सत्तासी हजार गुणा अधिक प्रकाश और तेज वितरित करता है। एक दूसरे पंडित ने उन्नाभद्रपद नक्षत्र का विस्तार आश्चर्यजनक सिद्ध किया हैं। वे कहते है कि यदि इस नक्षत्र में सूर्य के घनत्व की अपेक्षा दो करोड़वाँ भाग भी घनत्व होता तो पृथ्वी को उसी तरह अपनी परिक्रमा करने के लिए बाध्य करता जैसे आजकल सूर्य करता है।

तात्विक परमाणुओं की महान बदली टूट टूट कर असंख्य भागों में बँट गई है। आजकल के ज्योतिषी ऐसी लगभग दो लाख बदलियों के बारे में जानकारी रखते हैं। फिर भी उनकी जानकारी पूरी नहीं है। इन अखिल ब्रह्माण्डों सौर मण्डलों और बदलियों की लम्बाई चौड़ाई मीलों में नहीं बताई जा सकती। क्योंकि बेचारे मनुष्य तुच्छ मस्तिष्क उतनी गणना की कल्पना भी नहीं कर सकता। रात को जो तारे हमें दीखते हैं उनमें से कई ऐसे हैं जिनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में लाखों वर्ष लगते हैं जबकि प्रकाश की चाल प्रत्येक सेकिण्ड में करीब एक लाख मील है। जो तारे हमें दीखते हैं उनमें से हजारों युगों पहले नष्ट भ्रष्ट हो गये होंगे किन्तु उनका पुराना प्रकाश ही अब तक यहाँ चला आ रहा होगा। इसी प्रकार युगों पहले ऐसे अनेक नक्षत्र नये बन चुके होंगे जिनका प्रकाश लाखों वर्षों से चलता आ रहा होगा और अब तक हमारे पास नहीं आ पहुँचा हैं। प्रतिदिन नक्षत्र, ग्रह, बदलियाँ और सौर मण्डल न जाने कितने बनते होंगे और कितने नष्ट हो जाते होंगे। बदलियों के विस्तार की भी मीलों में गणना नहीं हो सकती। हमारी पृथ्वी जिस बदली में है उसमें हमारे सौर मण्डल के समान करीब दो अरब सौर मण्डल हैं। ऐसी ही दो लाख बदलियों में कितने सौर मण्डल और कितने ग्रह उपग्रह होंगे इसकी कल्पना करने में भी मानवी मस्तिष्क अपने को असमर्थ पाता है।

यह समस्त ब्रह्माण्ड निर्जीव या धातुओं के ठंडे गरम गोले ही न समझने चाहिए। इनमें असंख्य पृथ्वी के समान सजीव भी हैं और उनमें इस पृथ्वी के प्राण धारियों के समान अल्पज्ञ बहुज्ञ, स्वल्पेन्द्रिय ,, बहु इन्द्रिय प्राणी भी हैं। निश्चय ही उनमें से किसी में हम सब मनुष्यों की अपेक्षा बहुत अधिक ज्ञानवान और विकसित जीव भी होंगे।

ऐसी इस कल्पनातीत प्रकृति में हमारी पृथ्वी एक तिल के बराबर है और उस पृथ्वी में हम एक धूलि के कण के बराबर है। महान विश्व में कितने तुच्छ होते हुये भी तुम कितने महान हो, क्या इसकी कल्पना करने के लिए अपने मस्तिष्क को कुछ कष्ट दोगे?

क्रमशः

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