
Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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धर्म युद्ध-महान तप
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धर्म युद्ध करना एक प्रकार का तप है, जो हमारे पाप तापों को धोकर पवित्र कर देता है। यह अग्नि देखने में तीखी, झुलसाने वाली, कष्ट-कर और अप्रिय लगती है, पर अन्त में यही सब से हितकर सिद्ध होती है। सोना अग्नि में पड़ने के बाद अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करता है, हथियार होता है। जीवन को धर्म युद्ध के तप में डाले बिना उसमें तीक्ष्णता, पवित्रता और महानता नहीं आ सकती। तप से ही वह तेज प्राप्त होता है, जिसके कारण मानव जीवन कुन्दन जैसा झिलमिलाता है। संघर्ष ही जीवन है। दो वस्तुओं के रगड़ने से गर्मी पैदा होती है। सत्संग से ज्ञान प्राप्त होता है, और युद्ध से महत्व प्राप्त होता है। जिसमें गति है वही जीवित है। शिथिलता और निष्क्रियता का नाम ही मृत्यु है। वे ही व्यक्ति जीवित कहे जायेंगे जो कर्तव्य क्षेत्र में सिपाही की तरह संग्राम करते हैं। जिन्होंने ढाल तलवार उतार कर रख दी वे मृतक नथओं में से साँस चलती रहे।
गीताकार ने जीवन को धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र की उपमा दी है। इसमें पाण्डवों को धर्म पक्ष की और कौरवों के, अधर्म पक्ष की सेनाएं मुकाबले में डटी हुई हैं। सुखाकाँक्षी मन अर्जुन मोह में पड़ कर कहता है, इस झंझट में पड़ने से मुझे क्या काम? युद्ध का काम अप्रिय है, इसमें ऐसे काम करने पड़ते हैं, जो देखने में कडुए और कठोर जान पड़े। अर्जुन इन कठोर कर्म से बच कर भिक्षा माँग खाने का सरल कार्य पसन्द करता है उसके मन में छिपी हुई कायरता लड़ाई तकरार से अलग रहने का तर्क करती है। मन की इस कमजोरी को आत्मा देखती है और उसकी विडम्बना के लिए धिक्कार देती है। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते है -हे क्षत्रिय! तेरे लिए धर्म युद्ध से बढ़कर और कोई कर्तव्य नहीं है। यह सोच विचार मत करे, कि इस लड़ाई में कौन मारा जायगा, कितनी विधवाएँ होंगी, क्योंकि यह सब तो दुनिया में होता ही रहता है। धर्म युद्ध के बिना तो यह सब जीवित भी मृत हो जायेंगे। पृथ्वी पापों के भार से लद जायगी। इसलिए हे परन्तप! युद्ध में प्रवृत्त हो, इस में जीतने से तेरी कीर्ति है और मरने पर स्वर्ग लोक है। अर्जुन रूपी मन की समस्त बातूनी जमा खर्च को काटते हुए योगेश्वर ने उसे युद्ध में प्रवृत्त होने को बाध्य किया है। करते भी क्यों न, जिस दिन मन का क्षत्रिय धर्म नष्ट हो जायगा उस दिन यह पृथ्वी प्रलय की गोद में चली जायगी।
राम के सामने यह प्रश्न उपस्थित होता था कि एक सीता के लिए रावण के इतने बड़े वंश को नष्ट क्यों करूं? अर्जुन के सामने भी यही प्रश्न आया कि अपने साथ हुई अनीति के बदले में कौरवों की इतनी बड़ी सेना को क्यों मारूं? यदि राम या अर्जुन धर्म युद्ध न करते, तो बुराई की चिनगारी कुछ समय बाद ऐसी विकराल दानव बन जाती कि असंख्य सीताओं और असंख्य पाण्डवों को उसमें जलना पड़ता और उसका पातक इन धर्म युद्ध न करने वालों को लगता।
विकार, अधर्म, अनाचार से प्रतिक्षण युद्ध करना हमारा स्वाभाविक धर्म है। विरोध और असहयोग का ईश्वरीय आदेश है। नाक में गर्द गुवार जमते ही छींक आती है, जो उसे बाहर निकाल फेंकती है, पेट में मल मूत्र की अधिकता होती है, शरीर उसे अलग कर देता है, आँखें अपने विकार को कीचड़ के रूप में, इसी प्रकार नाक, कान, और मुँह में जो मैल जमा होता है, वह रेंट, कीट और थूक के रूप में बाहर निकलता रहता है। खून में विष जमा हो जाय तो शरीर की सैन्य शक्ति उबल पड़ती है और उसे फोड़े फुन्सियों के रूप में बाहर खदेड़ देती है, वैसे तो यह कार्य पसीने के रूप में हर वक्त होता रहता है। शरीर शास्त्री जानते हैं, कि रक्त के श्वेत कीटाणु बाहर के विजातीय पदार्थों, विषों तथा रोग कीटों से निरंतर लड़ते रहते हैं। जहाँ विकार पैदा हुआ कि यह धर्मवीर लड़ने पहुँचे। जिसके शरीर से यह श्वेत कीट नष्ट हुए तब से उसकी मृत्यु ही समझनी चाहिए। इसी प्रकार हमारा मानसिक धर्म है कि अपनी निज की तथा दूसरों की पाप वासनाओं से निरंतर लड़े। हर वक्त लोहा बजावें और शूरवीर सिपाही की तरह धर्म युद्ध में वीर गति प्राप्त करें जिसके मन से यह पाप विरोधिनी शक्ति निकल गई समझना चाहिए कि अब यह मानवीय चैतन्यता को त्याग कर पतित जड़ योनियों में गिरने जा रहा है। जिस देश या जाति की यह धर्म युद्ध भावना नष्ट हो गयी समझना चाहिए कि अब इसे गरीबी और गुलामी की नारकीय यंत्रणाएं सहनी पड़ेगी। संघर्ष जीवन है और अकर्मण्यता मृत्यु संग्राम स्वर्ग है और निष्क्रियता नरक। मनुष्य का स्वाभाविक कर्तव्य यह है कि वह पाप का हर घड़ी विरोध करे तभी तो धर्म को धारण करने में समर्थ होगा।
आप अपने जीवन को संग्राम समझिए। अपने आस-पास जहाँ कहीं भी पाप शत्रुओं को पावे उनका मूलोच्छेदन के लिए तत्पर हो जावें। हो सकता है इससे आपको उलझन, कष्ट, कठिनाई और आपत्ति का सामना करना पड़े। परंतु एक सच्चे शूरवीर का कर्तव्य यही है कि धैर्यपूर्वक उन्हें सहन करे साथ अंगीकार करें। विश्व की विपत्ति निवारण के लिए उस आपत्ति को अपने सिर पर ले लेना, दूसरों को खाने वाली राक्षमी से स्वयं ही लड़ पड़ना पहले दर्जे का धर्म कार्य है। धर्मयुद्ध महान तप है। इस तप को स्वीकार करने से हम विश्व की महान सेवा कर सकते हैं।