
Magazine - Year 1942 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
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बन्दी की वेदना
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खोलो, मेरे बन्धन खोलो!
हाय! मौन बन अब न सताओ, बोलो, मुझसे बोलो।
वह प्रभात की स्वर्णिम रेखा नभ में नक्षत्रों का लेखा
रजत रश्मियों को कब देखा
देखा था, युग से बीते हैं, यह आकुलता तोला-
अब तो मेरे बन्धन खोलो!
पत्थर की इन दीवालों में विजडित लोहे के तालों में
व्यथितों की आहों-नालों में-
पलता हूँ, है यही दया बस ‘सो लो चाहे रो लो’-
कब तक?................कोई बन्धन खोलो!
मैं जग देखूँ जिय हुलसाऊं तट पर सन्ध्या गीत सुनाऊं
तन से मुक्त पवन छू पाऊं
चार पलों के लिये मुक्ति दो, पी लूँगा विष घोलो-
सुन लो कोई बन्धन खोलो!
-श्री द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गण’