
Magazine - Year 1942 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
दुर्बलता का पातक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विश्व में जितने भी महानतम पाप हैं उनमें दुर्बलता का सबसे बड़ा पाप है। गौहत्या, ब्रह्महत्या, बालहत्या आदि बड़े-बड़े पापों का वर्णन किया जाता है, पर दुर्बलता उन सबसे बढ़कर है क्योंकि यह समस्त पापों की जननी है। अत्याचार करने वाला जितना पापी है उससे अधिक पातकी वह है जो अत्याचार सहता है। फारसी की कहावत है कि-”जालिम का बाप बुज़दिल” दुर्बलता में ऐसी उत्पादक शक्ति है कि वह जालिम को सात समुद्र पार से न्योत कर बुला लाती है। बेइन्साफी, कायरता की सहेली है। वह छाया की तरह पीछे फिरती है, जहाँ कमजोरी रहेगी वहाँ कोई न कोई बेइन्साफी करने वाला जरूर पहुँच जायगा।
भेड़ की ऊन देखकर सबका मन उसे लेने को करता है पर रीछ के बालों की ओर किसी को आँख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं होती, गाय का दूध दुहने के लिए हर कोई तैयार रहता है पर बाघिन का दूध लेने की किसी की रुचि नहीं होती। बकरी का माँस प्यारा लगता है पर सिंह की ओर छुरी लेकर कोई नहीं चलता। जमींदार, साहूकार, पटवारी, दरोगा, दीवान आदि का जुल्म गरीब और भोले भाले लोगों पर ही होता है सशक्त और समझदारों के सामने तो उनकी नानी मर जाती है। बीमारी और अकाल मृत्यु का आक्रमण प्रायः दुर्बलों पर ही होता है। गुण्डे, उचक्के, ठग, बदमाशों की घात प्रायः कमजोरों पर ही चलती है।
यदि कोई दूसरा न सतावे तो स्वयं उनका आपा ही सताने लगता है। सुन्दर-सुन्दर भोग विलास की वस्तुएँ सामने रख दी जावें तो वे दूसरों को जहाँ प्रसन्नता का कारण होती थीं, उस बेचारे को दुख देने लगती हैं। खीर, पूआ, हलुआ पूड़ी, खाने पर या तो पेट फूल जाता है या दस्त लग जाते हैं। स्वरूपवती सुन्दर स्त्री उसको भार स्वरूप तिरस्कार करने वाली, और शत्रुवत प्रतीत होती है। गाना बजाना, सुनने से सिर में दर्द होता है और नाच तमाशा देखते-देखते आँखों में पानी भर आता है। रुपया पैसा हुआ तो चोर, दुश्मन, घाटे आदि का भय लगा रहता है और रात को पूरी नींद सोना हराम हो जाता है। क्रोध, झुँझलाहट, निराशा, चिन्ता, तृष्णा, अप्रसन्नता आदि के कारण स्वयं ही दुख पाता रहता है, व्यसन और बुरी आदतें अपने आप अपने से लगाता है और उनसे उत्पन्न होने वाले कष्टों को सहता है। कई बार तो ऐसे कष्ट चिपट पड़ते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। कल्पित शंका की डायन और भय का भूत मन में से अपने आप उपजते हैं और नाना प्रकार के उपद्रव करते हैं। रात में झाड़ी का भूत बन जाता है और कई बार उसके डर से प्राण तक निकल जाते देखे गये हैं। इस प्रकार एक नहीं अनेक आपत्तियाँ न जाने कहाँ-कहाँ से उत्पन्न होकर उसे दुख देने के लिए आ खड़ी होती हैं। यह विचारणीय प्रश्न है कि बेचारे गरीब और कमजोरों पर ही यह आपत्तियाँ क्यों आती हैं? ईश्वर इन गरीबों की सहायता क्यों नहीं करता? हमें जानना चाहिए कि ईश्वर को अपने सब पुत्र समान रूप से प्रिय हैं। वह किसी के साथ बेइन्साफी नहीं करता पर साथ ही किसी को पाप का दंड दिये बिना भी नहीं छोड़ता। ईश्वर ने मनुष्य को सम्पूर्ण योग्यताएं और शक्तियाँ देकर इस संसार में निर्भयतापूर्वक विचरण करने के लिए भेजा है। विश्व का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो उसे प्राप्त न हो सकता हो। ऐसा सर्वसंपन्न शरीर और मन देने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करे। जो व्यक्ति अपने शरीर और मन का दुरुपयोग करके उसको क्षीण एवं अशक्त बना लेता है वह एक प्रकार से ईश्वर की अमानत में खयानत करने वाला, उसे अपने दुष्कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ेगा। दुर्बल मनुष्य दो प्रकार से पापी हैं एक तो वह ईश्वर की अमानत में खयानत करता है, दूसरे अत्याचारियों को पैदा करता है। यदि उसमें विरोध करने की शक्ति हो तो अभ्यास उत्पन्न ही न हो, यदि हो तो वह कुछ ही क्षण जीवित रहकर मृत्यु के लिए विवश हो जाय।
मनुष्य का सबसे प्रथम धर्म यह है कि वह दुर्बलता को हटाता हुआ शक्ति संचय करे। शरीर को बलवान बनाना चाहिए, उसे निरोग और स्वस्थ रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। यह कार्य कुछ भी कठिन नहीं है, वरन् प्राकृतिक धर्म होने के कारण अत्यन्त ही सरल है शरीर पर जुल्म करना यदि हम छोड़ दें तो वह अपने आप स्वाभाविक गति से निरोग और स्वस्थ रह सकता है। अखण्ड ज्योति कार्यालय की स्वस्थ और सुन्दर बनाने की विद्या’ नाम की पुस्तक जिन्होंने पढ़ी है वे भली भाँति जानते हैं कि शरीर अपने आप स्वस्थ बनने के लिए प्रयत्नशील रहता है। बीमार और कमजोर तो हम उसे मार-मार कर बनाते हैं। इसी प्रकार मन का स्वभाव अपने आप उन्नति करना है। मन को यदि रूढ़ियों, कुविचारों, स्वार्थ, भय, घृणा, लोभ, द्वेष और अहंकार के भार से न दबाया जाय तो वह अपने आप उन्नति करता हुआ सबल हो सकता है।
स्मरण रखिए दुर्बलता सबसे बड़ा पाप है। कुत्ते की जिन्दगी जीना और कीड़े की मौत मर जाना मनुष्यता का सबसे बड़ा अपमान है। आप अपने प्राथमिक धर्म को पहचानिए, सब काम छोड़ कर सबसे पूर्व दुर्बलता को हटाने में लग जाइये। क्योंकि यह राक्षसी जब तक अन्दर बैठी रह कर आप के शारीरिक और मानसिक बल को खाती रहेगी तब तक आप पनप न सकेंगे और दुनिया का आनन्द प्राप्त करना तो दूर, चैन से जीने योग्य स्थिति भी उपलब्ध न कर सकेंगे, मनुष्य के लिए ईश्वर की सबसे प्रथम आज्ञा है कि वह ‘निर्बलता’ को अलग हटावें, पाठकों आप यदि उन्नति के पथ पर बढ़ने को उत्सुक हैं तो सबसे प्रथम दुर्बलता का पाप भार अपने सिर पर से हटा कर दूर फेंकने का प्रयत्न करें।