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Magazine - Year 1942 - Version 2

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गुरु की सीख

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First 17 19 Last
वह पठान बालक गुरु गोविन्द सिंह को प्राणों की तरह प्यारा था। बड़े लाड़ प्यार से सदा अपने पास उसे रखते थे। वह भी गुरु से वैसा ही स्नेह करता था। जैसा बालक अपने पिता पर करता है।

भक्त लोग कहा करते थे- “गुरु जी! आप यह क्या कर रहे हैं। सिंह का बच्चा बड़ा होने पर काटने ही दौड़ेगा।” गुरु जी हँस कर यह कहते हुए उनकी बात टाल देते - “फिर इसमें बुरा क्या है। सिंह को सिंह ही तो बना रहा हूँ।”

गुरु ने अपने जीवन का स्नेह पिलाकर उस पठान बालक को बड़ा किया। अब वह बड़ा हो चुका था। अठारहवाँ वर्ष समाप्त होते-होते जवानी का लहू उसकी नसों में दौड़ रहा था। गुरु जी के सभी लड़के मुसलमानों के खिलाफ युद्ध करते हुए एक-एक करके मर चुके थे यह पठान युवक ही अब उनकी आँखों का तारा था।

एक दिन युवक ने गुरु जी के चरण स्पर्श करते हुए कहा पिता जी कब तक आपके ऊपर भारी बनकर बैठा रहूँ अब मैं बड़ा हो गया हूँ आज्ञा दीजिए कि मैं उद्योग करके कुछ कमाऊँ।

गुरु जी की आँखों में उल्लास की एक बिजली दौड़ गई। उन्होंने उसे पुचकारते हुए कहा पुत्र! तुम जो कहते हो सो उचित ही है। पर अभी मुझे तुम्हें एक अन्तिम शिक्षा जो देनी है। कल प्रातः काल मेरे साथ एकान्त वन में चलना वहीं वह शिक्षाएँ दूँगा, जिसके लिए तुम्हें पाल कर इतना बड़ा किया हैं युवक ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर ली।

दूसरे दिन प्रातःकाल उस पठान युवक को साथ लेकर गुरु गोविन्द सिंह एकान्त वन में चलें। उन्होंने अपनी तलवार उतार कर उसके कंधे में डाल दी और एक नदी तट पर साल के एक विशाल वृक्ष के नीचे जा पहुंचे।

सघन वन की निस्तब्धता को चीरते हुए गुरु जी ने कहा बेटा इस स्थान को खोदो। उनके उँगली के इशारे से बताये हुए स्थान को युवक चुपचाप खोदने लगा। कुछ गहरा खोदने पर एक पत्थर निकला। जिस पर बहुत से लाल रंग के धब्बे लगे हुए थे युवक ने उस पत्थर को ले जा कर गुरुजी के सामने रख दिया।

उन्होंने कहा बेटा देखते हो इस पत्थर पर लाल निशान है, क्या तुम जानते हो कि यह निशान कैसे है? युवक ने उत्तर दिया- ‘पिता जी! मैं नहीं जानता।’

अच्छा तो सुनो! गुरुजी ने कहा यह तुम्हारे पिता के रक्त के दाग हैं। एक व्यक्ति ने तुम्हारे पिता को यहीं इसी स्थान पर तलवार से मारा था उसके रक्त से सना हुआ यह पत्थर मैंने इसलिए दवा कर यहाँ गाढ़ दिया था कि जब तुम बड़े होगे तो अपने पिता के हत्यारे का बदला लोगे। तुम्हें मैंने इसीलिये पाला है कि पिता के खून का बदला चुका कर पितृ ऋण से मुक्ति पाओ। बताओ क्या तुम्हारी धमनियों में पिता का रक्त है? पिता के हत्यारे से बदला लेने योग्य तुम्हारी भुजाओं में साहस है। बदला लेने के लिए व्याकुल स्वर्गस्थ पिता की आत्मा को उस हत्यारे के रक्त से तृप्त न करोगे ?

युवक की भुजाएं फड़कने लगी उसके नथुने फूलने लगे, क्रोध से आँखों में लाली झलक आई उसने कहा पिता जी अवश्य बदला लूँगा। आप उस हत्यारे का नाम तो बताइये, अब वह जीवित न रह सकेगा।

गुरु जी की बाछें खिल गई। उन्होंने कहा फिर विचलित तो न होगे? कुछ आगा-पिछा तो न सोचोगे ? सोचो तो पहले ही सोच लो नाम पूछने के बाद तो तुम्हें उस पर तलवार चलानी ही पड़ेगी। युवक ने भुजाएं ऊँची उठा कर शपथ खाई कि चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, उसे जीवित न छोड़ूंगा, पिता जी आप उस दुष्ट का नाम शीघ्र ही बताइए।”

गुरु जी ने उसके सिर पर हाथ फिराते हुए आशीर्वाद दिया-’वत्स, तेरा कार्य पूरा हो। म्यान में से तलवार खींच, मैं ही वह हत्यारा हूँ, जिसने तेरे पिता ही हत्या की थी।

युवक के पाँवों के नीचे से जमीन निकल गई। म्यान में से खींची हुई तलवार जहाँ की तहाँ रह गई वह किंकर्तव्यविमूढ़ पाषाण शिला की तरह खड़ा रह गया। गुरु जी ने देखा कि लड़का शिथिल होने वाला है। उन्होंने ललकारते हुए कहा-कायर! शरीरों से रिश्ता जोड़ता है। अपनी प्रतिज्ञा को याद कर, कर्तव्य को याद कर, पिता की याद कर और तलवार को चलाने में क्षण भर की भी देर न कर।’

इस ललकार ने पठान रक्त में बिजली कौंधा दी, उसने यन्त्र चालित पुर्जे की तरह गुरु जी पर तलवार का प्रहार किया और उन्हें मरणासन्न दशा में छोड़ कर भाग गया।

संध्या तक गुरु जी वापिस न पहुँचे, तो शिष्यों को आशंका हुई वे पद चिन्हों को खोजते हुए उस स्थान पर पहुँचे। देखा कि गुरु जी मृत्यु के निकट की पहुँच चुके हैं। शिष्यों की आँखों में आंसू भर आये, उन्होंने पूछा-’प्रभो! आपने यह क्या किया? गुरुजी ने कहा-’पुत्रों! मैंने तुम्हें अपनी अन्तिम सीख दे दी।’ यह सीख मैंने रक्त के अक्षरों में लिखी, जिससे कि तुम लोग इसे भूल न जाओ और अपनी पितृ भूमि में रक्त पान करने वालों से भरपूर बदला ले लो।’ यह कहते-कहते गुरुजी ने अपनी आँखें बन्द कर लीं।

निविड वन के घने अन्धकार में शिष्यगण गुरु गोविन्दसिंह के मृत शरीर को पीठ पर लाद कर ले जा रहे थे, रात्रि की नीरस भयंकरता को चीरता हुआ बीच में कोई-कोई वन्यपशु बोल जाता था-मानो शिष्यों को बार-बार याद दिलाता हो कि गुरु वर को भूलना मत।

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