
Magazine - Year 1942 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
न्याय का पालन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री दरबारी लाल जी सत्य भक्त)
पुराने समय में भारत वर्ष मैं कल्याणी देवी नाम की एक विदुषी महिला रहती थी, उनके पति का नाम शारदा चरण था। वे राजपुरोहित थे, राजकोष की तरफ से उन्हें काफी धन मिलता था। दोनों बड़े मजे में रहते थे। पति-पत्नि का अधिकाँश समय व्यासंग में आराम से कट जाता था। कुछ दिन बाद राजदरबार में एक महर्षि आये। जिन्होंने अपने अनुभव और विचार से सरस्वती की उपासना की थी। उस समय के रिवाज के अनुसार दोनों में वाद हुआ और देश में कोई बड़ा विद्वान न होने से कल्याणी देवी मध्यस्था बनाई गई। कल्याणी देवी को यह बात जंची कि महर्षि का पक्ष ही सच्चा सिद्ध हुआ है। एक तरफ पति प्रेम था, दूसरी तरफ सत्य था, पर सत्य न्याय में बाधक न हुआ, इसलिए कल्याणी देवी ने महर्षि की ही विजय घोषित की।
राज्य का ऐसा नियम था कि जो राजपण्डित को जीत लेगा, वह राजपण्डित माना जायेगा। इसलिए महर्षि राज पंडित माने गये। परन्तु महर्षि ने जिनका नाम सत्य शरण था, कहा अगर शारदा चरण सत्य को स्वीकार कर मेरे पास दीक्षा ले लें तो मैं उन्हें ही राज पंडित बनाऊंगा। अभिमानी शारदा चरण ने यह बात स्वीकार न की और लज्जावश वे नगर छोड़कर जंगल में जाने लगें। कल्याणी देवी भी साथ चलने लगी। शारदा चरण ने कहा तुम्हें जंगल में चलने की कोई जरूरत नहीं है पराजय मेरी हुई न कि तुम्हारी।
कल्याणी ने कहा- मेरे देवता! नारी के पराजय होने की जरूरत नहीं है। पति की जय ही उसकी जय है, पति की पराजय ही उसकी पराजय है। फिर जो कुछ सीखा है, मैंने आप ही से सीखा है। आप मेरे पति भी हैं और गुरु भी।
शारदा चरण- यदि ऐसा था तो तुमने मेरी पराजय घोषित क्यों की?
कल्याणी- मैं आपकी पराजय घोषित कर रही हूँ, यह मुझे ख्याल ही नहीं आया। मुझे तो यही ख्याल आया कि सत्य के आगे मैं झुक रहीं हूँ। मैं अपना ही पराजय घोषित कर रही हूँ।
शारदा चरण- तो तुमने महर्षि के पास दीक्षा क्यों न ले ली, कदाचित महर्षि तुम्हें ही राजपंडित बना देते?
कल्याणी- राज पंडित बनने की अपेक्षा आपकी अनुचरी (पीछे चलने वाली) बनने में मुझे अधिक सुख है मेरा कर्तव्य भी यही है। धर्म की भी आज्ञा है।
लोगों के आवागमन से रहित एक जंगल में जाकर वे दोनों तपस्वी की तरह रहने लगे। जंगल के फल कन्दमूल आदि खाकर गुजर करते थे। बलकल पहिने थे। एक झोपड़ी बना कर रहते थे। झोपड़ी को स्वच्छ रखना उसके चारों तरफ जो आँगन बनाया गया था उसे साफ रखना फूलों की क्यारियों में पानी देना फल फूल लेने पति के साथ जाना, उन्हें अच्छी तरह पत्तों में सजा कर पति को परोसना, बचे हुए समय में तत्व चर्चा करना, काम करते समय भी हंसी विनोद से पति के चित्त को प्रसन्न रखना, वे सब काम कल्याणी देवी उत्साह से करती थी। कल्याणी देवी ने ही मुझे पराजित घोषित किया इस बात को लेकर शारदा चरण के मन में जो गल्प था, वह कल्याणी देवी की सेवा परायणता और प्रेमी जीवन से दूर हो चुका था और जब एक बार तीन दिन को शारदा चरण बीमार पड़ें तब कल्याणी देवी ने जो दिन रात अटूट सेवा की उससे शारदा चरण का मन बिलकुल पिघल गया और उसने रोते-रोते कहा कि तुम्हारी निष्पक्षता के कारण तुम्हारे प्रेम पर मुझे अविश्वास हुआ था। किन्तु उस भूल का अब मुझे गहरा पश्चाताप हो रहा है।
कल्याणी ने समझा मेरी तपस्या फल गयी। आज प्रेम की पूरी जय हुईं। उस जंगल में जब ये दंपत्ति स्वजन, परिजन, वैभव आदि से रहित जीवन बिता रहे थे, शारदा चरण के तीन दिन के लंघन के बाद जब कल्याणी देवी उन्हें पथ्य दे रही थी उसी समय मनुष्यों का कल-कल सुनाई दिया। कोई कह रहा था इधर-इधर। कल्याणी ने देखा वह एक ब्राह्मण कुमार है जिसे कि उनने उस दिन राज सभा में महर्षि के साथ देखा था। उसके पीछे ही बटुकों के साथ खुद महर्षि जी चले आते थे। कल्याणी ने उन्हें बैठने के लिए आसन देते हुए कहा महाराज हम गरीब लोग इस जंगल में आपका और क्या स्वागत कर सकते हैं?
महर्षि-बेटी, तुम्हारी इस गरीबी पर हजारों राज्य वैभव न्यौछावर किए जा सकते हैं। कीचड़ मिले पानी में शक्कर डालने से मिठास तो आयेगी पर वह शुद्ध जल की बराबरी न स्वाद में ही कर सकता हैं न स्वास्थ्य में ही। तुम्हें इस जंगल में जो सुख मिलता हैं वह राजाओं को भी न तो राज सिंहासन पर मिल सकता है, न रनिवास में। उसमें कितनी शक्कर पड़ी हो पर कीचड़ सारा मजा किरकिरा कर देता है। और उसमें जो रोगोत्पादक कीटाणु होते हैं। उनका विचार किया जाय तो दुख पहाड़ के आगे सुख कण सा ही दिखाई देगा।
कल्याणी ने विनयपूर्वक लज्जा के कारण सिर नीचा झुका लिया, किन्तु महर्षि कहते ही गये बेटी एक दिन तूने राज सभा में पति की पराजय घोषित की थी, किन्तु आज में अपना पराजय घोषित करने के लिए इस जंगल में आया हूँ।
कल्याणी ने कहा- महाराज, यह आपकी नम्रता है। उस दिन जो सत्य मालूम हुआ वह अपने विरुद्ध होने पर भी मैंने स्वीकार किया। अगर मैं ऐसा न करती तो मैंने सत्य की अवहेलना करके पति प्रेम के बदले पतिमोह का परिचय दिया होता। पति मोह से मैंने पति को भी खोया होता। पति प्रेम से आज दोनों को पाया है।
महर्षि- इसीलिए तो कहता हूँ कि उस दिन तेरी ही जय हुई थी, पर मेरी पराजय हुई थी।
कल्याणी- नहीं महाराज अगर आपकी जय न हुई होती तो उस दिन आपकी जय कभी घोषित नहीं करती मेरा क्या? मैं तो उस दिन मध्यस्थ थी। वादी-प्रतिवादी नहीं। इसलिए मेरी जय क्या और पराजय क्या ?
महर्षि- निःसन्देह उस दिन शब्द वाद में मेरी जय थी पर अर्थवाद में तेरी ही जय हुई।
प्रेम और मोह में क्या अन्तर है यह बात मैं जीवन भर शब्दों में ही कहता रहा हूँ। पर तूने उसे जीवन में उतार कर बताया। जीवन की परीक्षा में मैं उतना उत्तीर्ण नहीं हुआ जितनी तू हुई है। जिस दिन से तुम दोनों ने घर छोड़ा उस दिन से मैं और मेरे शिष्य गुप्त रूप से तुम्हारी गतिविधि पर बराबर ध्यान देते रहे हैं। कल जब शारदा चरण की बीमारी और तेरी सेवा परायणता के मुझे समाचार मिले तब तेरा पुण्य तेज मेरे लिए असहन हो गया और आज रोता हुआ उसी तरह मैं चला आ रहा हूँ जैसे कोई बाप अपने बेटी के लिए दौड़ा चला आ रहा हो।
इसी समय शारदा चरण धीरे-धीरे झोपड़ी में से आये और महर्षि की चरण वन्दना करके बोले गुरुदेव उस दिन शब्द से पराजित हुआ था, आज अर्थ से पराजित हो रहा हूँ इसलिए मैं आपको अपना गुरु मानता हूँ प्रेम और मोह का अन्तर तो कल्याणदेवी ने अपने जीवन से बतला दिया पर उस अन्तर को परखने वाले जगत में कहाँ है? आप उन्हीं पारखियों में से हैं। आपको गुरु बनाकर आज मैं कृतार्थ हो रहा हूँ।
महर्षि- बेटा, गुरु बना कर कोई शिष्य कृतार्थ नहीं होता, वह कृतार्थ होता है गुरु दक्षिणा देकर।
शारदाचरण- गुरुदेव आज मेरे पास क्या है जो आप को गुरु दक्षिणा मैं दूँ? फिर भी जो कुछ मेरे पास सर्वस्व कहलाने लायक हो वह आप माँग लीजिए।
महर्षि-एक दिन वादी बनकर मैंने तुम्हारा वह घर उजाड़ा था, आज यह घर उजाड़ता हूँ। गुरु दक्षिणा में तुम्हारी यह झोंपड़ी ले लेता हूँ।
कल्याणी- गुरुदेव ------------!
महर्षि- नहीं अब कुछ नहीं सुनूँगा। तुम लोग इसी समय मेरी झोपड़ी में से निकल जाओ अपने पुराने घर में चले जाओ। वहाँ तुम्हारा सारा वैभव तुम्हारी बाट देख रहा है। कुछ मुट्टी मेरा भी उसमें शामिल हो गया है।
कल्याणी- पर ये बीमार हैं गुरुदेव -
महर्षि -रहने दो तुम दोनों के लिए दो पालकियाँ तैयार है, जाने में कोई कष्ट न होगा।
कल्याणी की आँखों में आँसू निकल आये शारदाचरण ने भी आँखें पोंछी, महर्षि बड़ी कठिनता से आँसू पोंछ पाये। भरे गले को साफ करते हुए उनने कहा बेटी प्रेम और मोह में आकाश पाताल का अन्तर है। पर रंग−रूप में उनमें कैसी साधारण समानता है।
कल्याणी गला भर जाने से कुछ बोल न सकी उसने गुरुदेव के साथ कल्याणी को विदा किया जैसे बाप अपनी बेटी को विदा करता है।
‘सत्यामृत’
कथा-