
बेहूदा मजाक
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(श्री भीकमचंद कपूरचंद पेखावाला, शिवगंज)
द्वापर के अन्त की बात है। युधिष्ठिर को राज सिंहासन मिलने वाला था। चारों ओर खूब सजावट हो रही थी, राजमहल तो अद्भुत कला कौशल के साथ सजाया गया था। कलाकारों ने बहुमूल्य काँच और मणियों से इस प्रकार के नक्षत्र बनाये थे जहाँ जल से भरे हुए स्थान थल, और थल दिखाई पड़ने वाले स्थान जलाशय प्रतीत होते। बड़े-बड़ों की बुद्धि वहाँ चकरा जाती थी। दुर्योधन को यह सब पता न था, जब वे उधर से निकले थे, सूखी जमीन के धोखे जलाशय में चले गये। कपड़े भीगकर तर हो गये, दर्शकों की दन्तावली उपहास करती हुई खुल पड़ी। उतावली द्रौपदी से न रहा गया उसने कह ही तो दिया- “अन्धे के अन्धे ही होते हैं।”
मजाक करना उच्चकोटि की कला है। किसी को चिढ़ाना मजाक नहीं मूर्खता है और खासतौर से जब कोई व्यक्ति किसी कष्ट में पड़ गया हो तब उसे चिढ़ाना तो परले सिरे का बेहूदापन है। दुर्योधन के कलेजे में द्रौपदी के शब्द तीर की तरह पार निकल गये। एक स्त्री द्वारा अपने पिता तक का अपमान होते सुनकर दुर्योधन का कलेजा जल-भुनकर खाक हो गया। मुँह से उस समय वह कुछ न बोला पर विषधर सर्प की तरह प्रतिहिंसा की आग स्थायी रूप से उसकी छाती में सुलग गई।
हर आदमी जानता है कि महाभारत में कैसी रोमाँचकारी रक्त की नदियाँ बहीं और अनेक दृष्टियों के कैसे-कैसे दुष्परिणाम निकले। इस सब की मूल में एक बहुत ही छोटी वस्तु थी, और वह थी- ‘बेहूदा मजाक।’ हममें से बहुत आदमी द्रौपदी की गलती को अक्सर दुहराया करते हैं और अकारण मित्रों को शत्रु बनाया करते हैं।
वेद की वाणी-