
पुस्तकें पढ़ा कीजिए।
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(श्री मंगलचन्द जी भण्डारी, अजमेर)
विद्वान ‘वेकन’ का कथन है कि ज्ञानवान बनने का प्रमुख साधन पुस्तकावलोकन अत्यंत आवश्यक है। शरीर की उन्नति के लिए पौष्टिक आहार चाहिए। इसी प्रकार ज्ञान वृद्धि के लिए विद्वान पुरुषों के विचारों को जानना जरूरी है। पेट में से कोई ज्ञानी नहीं होता वरन् परिस्थिति, संगति, एवं वातावरण में रहकर तदनुसार मनोभूमि का निर्माण होता है। हिन्दू का बच्चा हिन्दी, अरब का अरबी, और अंग्रेज का अँग्रेजी बोलने लगता है। उन बच्चों के आचार विचार और स्वभाव भी अपनी अपनी जाति के अनुसार हो जाते हैं। इससे प्रकट है कि मस्तिष्क स्वयं तो एक कोरे कागज की तरह है। जिस प्रकार के वातावरण में वह रहता है वैसे ही स्वभाव और विचारों से वह ओत प्रोत हो जाता है। इसलिए जिस दिशा में हमें मस्तिष्क को उन्नत करना है, उस दिशा में आगे बढ़े हुए विद्वानों की खोज के निष्कर्ष से परिचित होने का शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए। यह कार्य पुस्तकों की सहायता से आसानी के साथ हो सकता है। क्योंकि कई विद्वान जो इस संसार से गुजर चुके अथवा दूर देशों में रहते हैं अथवा कार्यों में इतने व्यस्त हैं कि सत्संग के लिए पर्याप्त समय हमें नहीं दे सकते। उनके विचारों से लाभ उठाने का एक ही मार्ग है, वह है- पुस्तकावलोकन।
अपने घर में रहकर, अपनी फुरसत के वक्त, आप संसार के वर्तमान और दिवंगत महापुरुषों से मनचाहा सत्संग करना चाहते हैं, दिल खोलकर उनकी बातें सुनना चाहते हैं तो उनकी पुस्तकें पढ़िये। पुस्तकें कागज पर स्याही से छपी हुई वस्तु का नाम नहीं है वरन् वह संदूक है जिसके अंदर बहुमूल्य रत्नों का भण्डार बंद रखा हुआ है। ईश्वर की कैसी महती कृपा है कि यह अमूल्य वस्तुएं हमें चन्द पैसों से आसानी के साथ मिल जाती हैं। भले ही इन छपे हुए कागज के पन्नों का मूल्य कुछ पैसे हो पर उनके अंदर जो अनमोल मानसिक संपदाएं भरी पड़ी हैं उनकी तुलना सोने चाँदी के बड़े से बड़े ढेर के साथ नहीं की जा सकती।
मूर्ख लोग ख्याल करते हैं कि हमारी अक्ल सब से बड़ी है, हम सब कुछ जानते हैं, किताबों में क्या रखा है। इस तरह की धारणा से वे अपने ज्ञान का मार्ग रुद्ध कर देते हैं, मस्तिष्क को आगे बढ़ने देने से वंचित कर देते हैं। वर्तमान युग के मनुष्य के सामने इतनी असंख्य समस्याएं हैं जिनको साधारण मनुष्य केवल मात्र अपनी असंस्कृत बुद्धि से नहीं सुलझा सकता। संसार की पेचीदगियाँ इतनी अधिक हो गई हैं जिनको भली प्रकार जाने, समझे और हल किये बिना जीवन की गतिविधि ठीक रीति से नहीं चल सकती। जितने ज्ञान की इस युग में आवश्यकता है, उतना अपने आप पेट में से नहीं उपजाया जा सकता, इसके लिए बाहर से ही ज्ञान उपार्जन करना पड़ेगा और उसका सबसे सरल तरीका पुस्तकों का पढ़ते रहना ही है।
विदेशों में हर व्यक्ति की निजी लाइब्रेरी होती है। हमारे देश में जेवरों से तो तिजोरियाँ भरी मिलेंगी पर अच्छी पुस्तकों के दर्शन मिलना दुर्लभ होगा। इससे प्रतीत होता है कि हम लोग बौद्धिक उन्नति की ओर से कितने उदासीन हैं और मानसिक भोजन की उपेक्षा करके अपनी दिमागी उन्नति को किस प्रकार रोके हुए हैं। स्वाध्याय हमारे धर्म ग्रन्थों में आवश्यक एवं दैनिक धर्म कर्तव्य माना गया है। तत्वदर्शी ऋषि जानते हैं कि निरंतर ज्ञान उपार्जन में लगे बिना मानसिक विकास नहीं हो सकता और मानसिक विकास के बिना मनुष्य किसी ऊंचे स्थान पर नहीं पहुँच सकता। आज संसार की सभी उन्नतिशील जातियों का जीवन क्रम स्वाध्याय से परिपूर्ण है, गरीब श्रेणी के लोग भी अच्छी ज्ञानवर्धक पुस्तकें खरीदने तथा सामयिक पत्र-पत्रिकाएं मंगाने में अपनी आमदनी का एक भाग खर्च करते हैं। एक हम हैं जो स्वाध्याय के नाम पर कभी हनुमान चालीसा या गोपाल सहस्रनाम का पाठ कर लिया तो बहुत, वरना स्कूल छोड़ने के बाद पुस्तकें पढ़ने की कोई जरूरत ही महसूस नहीं करते। हम भारतीय अपने को अन्य देश वासियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी होने का दावा करते हैं, साथ ही स्वाध्याय की इतनी उपेक्षा करते हैं, यह बहुत दुख और लज्जा की बात है।
स्वाध्याय हमारा नित्य कर्म होना चाहिए। कोई फुरसत का समय ज्ञान वर्धक पुस्तकें पढ़ने के लिए नित्य ही निकालना चाहिए। रामायण, गीता तथा पूजा पाठ की धार्मिक पुस्तकों का पाठ करने का समय अलग रहना चाहिए। साधारण, व्यावहारिक और साँसारिक ज्ञान की वृद्धि के लिए प्रतिदिन अच्छी अच्छी पुस्तकें पढ़नी चाहिएं। जो जानकारी देश विदेशों में भ्रमण करने से, विद्वानों का सत्संग करने से, भाषण सुनने से, घटनाओं का अवलोकन करने से प्राप्त होती है, वह पुस्तकें पढ़ने से घर बैठे ही प्राप्त हो जाती है। वर्तमान घोर युद्ध में रत सेनापति लोग भी कोई न कोई समय पढ़ने के लिए अवश्य निकालते हैं। सभ्य संसार में राजकीय सभाओं के अधिकारी, शासक, व्यापारी, यात्री, श्रमजीवी, किसान सभी श्रेणियों के व्यक्ति पढ़ने में पूरी दिलचस्पी रखते हैं। भारतीय ऋषियों ने स्वाध्याय के लिए बलपूर्वक आदेश किया है, उस पर विदेशी लोग आचरण करते हैं और अपने ज्ञान की वृद्धि करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। एक हम हैं जो तिलक लगाते समय एक पुस्तक के कुछ पन्ने उलटते रहने में ही स्वाध्याय की इतिश्री मान लेते हैं। पाठकों को सामयिक साहित्य पढ़ने से अपनी दिलचस्पी अधिकाधिक बढ़ानी चाहिए, इससे उन्हें लौकिक और पारलौकिक दोनों ही लाभ होंगे।