
तर्क और श्रद्धा
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धार्मिक और आध्यात्मिक प्रसंगों में तर्क और श्रद्धा दोनों ही की आवश्यकता है। किन्तु किसी एक का आवश्यकता से अधिक बढ़ जाना मूल उद्देश्य के लिए विद्या तक सिद्ध होता है। पुरुषों में तर्क की अधिकता होती है और स्त्रियों में श्रद्धा की, इसलिए देखा गया है कि पुरुष नास्तिकता की ओर बढ़ते हैं और स्त्रियाँ अन्ध विश्वास को अपनाती हैं। इन दोनों का उचित मात्रा में होना ही आध्यात्मिक संतुलन ठीक रखने में उपयोगी होता है।
पिछले दिनों धार्मिक खंडन मंडन और कुरीतियों का विरोधी आन्दोलन प्रबल हुआ था। तर्क के कुल्हाड़े से अंध विश्वास और भ्रम पाखंडों की कटीली झाड़ियाँ काटकर साफ करने का कार्य आरंभ किया गया था, पर अब वह इतना अधिक बढ़ता हुआ दिखाई देता है कि हानिकर पौधों के साथ उपयोगी वृक्षों का भी मूलोच्छेदन आरंभ हो गया है। जिसका परिणाम बहुत बुरे रूप में सामने आने की संभावना है।
धार्मिक क्षेत्र में से अनावश्यक रीति रिवाजों और पिछड़े हुए प्रतिबन्धों को हटा देना उचित है परन्तु नवीन वृक्षाँकुरो का लगाना भी आवश्यक है। तर्क द्वारा कुप्रथाओं को हटाना चाहिए किन्तु श्रद्धा द्वारा सुव्यवस्था का प्रसार भी करना चाहिए। फोड़े के सड़े हुए मवाद को चीर कर निकाल देना चाहिए पर उसे अच्छा करने के लिए मरहम लगाना भी आवश्यक है। कुम्हार मिट्टी को फोड़ता है फिर सुन्दर खिलौने बनाता हैं, दर्जी कैंची से काटता है फिर सुई से सीता है, बढ़ई तख्ते चीरता है फिर उन्हें जोड़कर फर्नीचर बनाता है। तर्क को प्रधानता देने वाले खंडन वादी सुधारक पहले काम को तो करते हैं पर अक्सर दूसरे कामों को भुला देते हैं।
तर्क की एक सीमा है, वह कुछ हद तक हमारा पथ प्रदर्शन कर सकता है, पर जीवन धारा का निर्माण श्रद्धा के द्वारा ही होगा। पहले बीज हुआ या वृक्ष, पहले स्त्री उत्पन्न हुई या पुरुष, इन प्रश्नों का तर्क के पास कुछ उत्तर नहीं है। कौन तार्किक प्रमाणित कर सकता है कि अमुक व्यक्ति मेरा पिता है। यहाँ हमें श्रद्धा से ही काम लेना होगा। मानवीय सद्गुणों की आधार शिला तर्क के ऊपर नहीं श्रद्धा के ऊपर रखी गई है। पाश्चात्य सभ्यता ने तर्क को प्रधानता दी, फलस्वरूप उसके द्वारा जीवन का प्रति फल बड़ा संकुचित, स्वार्थपूर्ण, कटु और दुखमय हो गया। भारतीय संस्कृति में श्रद्धा का प्राधान्य है, वह अपने उद्देश्य के लिए मर मिटना सिखाती है, किन्तु तर्क कहता है कि -ऋण कृत्वा घृतम पिवेत। कर्ज लेकर घी पियो।
कुछ दिन पूर्व सुधारवादी महानुभाव देव पूजन, तीर्थ स्नान, तिलक चंदन आदि का उपहास करते थे, अब हम देखते हैं कि चोटी जनेऊ भी खिसकते जा रहे हैं। पुराणों का विरोध और वेदों का प्रतिपादन था पर अब वेद, यज्ञ, संध्या सभी से छुटकारा प्राप्त किया जा रहा है। देवताओं को काल्पनिक बताया जा रहा था पर अब ईश्वर भी ‘काल्पनिक जन्तु’ घोषित किया जाने लगा है।
एक बार एक खूनी को अदालत से साफ छुड़ा देने के लिए एक वकील ने 100 रुपये फीस तय की। वकील ने उसे कह दिया कि अदालत पूछे तो कुछ उत्तर मत देना, फिर एक शब्द ही दुहरा देना -भै, खूनी अदालत में पेश हुआ। न्यायाधीश ने उससे प्रश्न पूछे पर उसने हर उत्तर में यही कहा- ‘भै’। जज ने झुँझला कर कहा- यह ‘भै भै’ क्या करते हो? वकील ने कहा- हुजूर यह नासमझ है। कुछ जानता नहीं। अदालत ने उसे छोड़ दिया। खूनी जब छूट आया, तब वकील ने अपनी फीस माँगी। उसने यहाँ भी वही कहना शुरू किया- ‘भै’। वकील ने कहा- मुझ से भी ‘भै’? खूनी ने कहा- जब कत्ल के मुकदमे से ‘भै’ के कारण छूट सकता हूँ तो इसी से तुम्हारी फीस से भी छूट सकता हूँ। उसने वकील को एक पैसा भी न दिया और घर चला गया। तर्क को अत्यधिक प्रधानता देने के कारण अब लोगों के दृष्टिकोण में नास्तिकता घर करती जा रही है और उसके प्रभाव से आसुरी संपदा बढ़ रही है। इसका वृद्धि क्रम कुछ समय उपरान्त इस देश के तैंतीस करोड़ देवताओं को आदमखोर भेड़िये बना दे सकता है।
भारतीय योग शास्त्र का संसार के लिए यह संदेश है कि -’मस्तिष्क और हृदय को एक करके उन्नति के लिए आगे बढ़ो।’ तर्क करना उचित है पर श्रद्धा को भुला न देना चाहिए। हमें जिज्ञासु होना चाहिए, कुतर्की नहीं, हमें सत्य की शोध करनी चाहिए, वितंडावाद नहीं बढ़ाना चाहिए। दूसरे क्षेत्रों में तर्क की प्रधान रह सकती है परन्तु आत्म शान्ति के एक मात्र छायादार वृक्ष ‘श्रद्धा’ पर आक्रमण नहीं करना चाहिए। अन्यथा हम सर्वत्र अशान्ति ही अशान्ति अनुभव करेंगे। आत्म विश्राम करने के लिए श्रद्धा ही एक मात्र सुरभित वाटिका है। तर्क की थोड़ी सी गर्मी पाकर यह वाटिका फल फूलों से लद जायेगी किन्तु यदि दावानल से इसे जलाने का प्रयत्न किया जायेगा तो हमें चारों ओर अशान्ति और आशंका की लपटों में ही झुलसना पड़ेगा।
सूचना
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