
लोभ-विमूढ़ता से सर्वनाश
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(श्री ‘हृदयस्थ’ जी श्रीवास्तव, ग्वालियर राज्य)
राजा प्रताप भानु अपने समय के चक्रवर्ती राजा थे। सभी प्रकार के सुख साधन उन्हें प्राप्त थे और आनन्दपूर्वक अपने दिन बिता रहे थे। एक दिन महाराज शिकार खेलने गये। वापिस लौटते समय वे रास्ता भूल गये, और जंगल में भटकते-भटकते एक ऐसे कपट वेशधारी मुनि के आश्रम में जा पहुँचे जो बाहर से तो साधु बना हुआ था पर भीतर उसके सारी असाधुता भरी हुई थी।
महाराज रातभर विश्राम करने तथा उत्तम सत्संग मिलने का यह सुअवसर जानकर घोड़े से वहीं उतर पड़े। कपट मुनि ने आदरपूर्वक उन्हें अपने यहाँ ठहरा लिया। प्रपंची एवं कपट वेष धारियों की कूट नीति में मूढ़ ही नहीं कभी-कभी चतुर मनुष्य भी भूल कर जाते हैं। इस मुनि ने कुछ ऐसे ही छल-बल भरे वार्तालाप से महाराज को चकित कर दिया और अपने से उन्हें मनोवाँछित अभिलाषा पूर्ति का वरदान माँग लेने के लिए लालायित कर दिया।
उत्तरोत्तर बढ़ती हुई विषम वासनाओं की पूर्ति होते जाने पर मन के ऊपर शासन करना, पिंजड़े में से उड़े हुये पक्षी को पकड़ने के सदृश दुष्कर सा है। महाराज प्रताप भानु की बुद्धि अस्थिर हो गई और यह अनाधिकार चेष्टा की ओर मुड़ पड़ी। अतीव अनुनय से वे याचना करने लगे-
जरा मरण दुख रहित तनु, समर जितै जनि कोउ।
एक छत्र रिपु हीन महि, राज्य कल्प शत होउ॥
कपट मुनि को उनकी यह आन्तरिक अभिलाषा जानकर यह विचार करने का अवसर मिला कि बिना किसी विशिष्ट साधना के ऐसे दुष्प्राप्य वरदान (माँगने से) मिल जाने पर विश्वास कर रहा है, धर्म अर्थ, काम, तीन पुरुषार्थों की प्राप्ति जिसे भले प्रकार हो चुकी है, उसकी मनोदशा का यह चित्र देखकर उनकी बुद्धि बल तथा भविष्य काल जानने में बड़ी सहायता मिली। और उसने अपने चंगुल में फँसे हुये पक्षी रूप महाराज को भले प्रकार अपने वाक् जाल में ग्रस लिया। फल यह हुआ कि उनके द्वारा एक लक्ष ब्राह्मणों को सकुटुंब भोजन कराके और उन्हें अभक्ष्य भोजन भक्षण कराने की दुष्क्रिया का आयोजन कराया जिससे उन महाराज को घोर श्राप दिया गया, साथ ही उनकी इस आन्तरिक दुर्बलता का परिचय पाकर अनेक शत्रु उठ खड़े हुये और उन चक्रवर्ती महाराज का घोर पतन हो गया।
भद्र पाठको! इस पौराणिक उपाख्यान के अन्दर आप महत्वपूर्ण तथ्य छिपा हुआ देखेंगे। वह यह है कि जो अल्प श्रम में बहुत बड़ा लाभ चाहता है वह लोभ विमूढ़ व्यक्ति अन्ततः बहुत घाटे में रहता है। ईमानदारी और सच्चाई के साथ कठोर परिश्रम करने से उत्तम फलों की प्राप्ति होना स्वाभाविक है, परन्तु दूसरों का अहित करके अथवा बिना परिश्रम के किसी की कृपा वरदान द्वारा जो वैभव चाहा जाता है वह प्राप्त नहीं होता यदि प्राप्त भी हो जाए तो ठहरता नहीं, स्वल्प काल में ही विदा हो जाता है और पीछे के लिए बड़े-बड़े दुखदायी परिणाम छोड़ जाता है।
हम लोगों को लोभ विमूढ़ होकर मृग तृष्णा के हवाई किले न बाँधने चाहिएं वरन् सन्मार्ग का अवलम्बन करके अपने पौरुष से उचित और सात्विक संपदाओं का संग्रह करने में ही प्रसन्न और संतुष्ट रहना चाहिए।