
प्रेम ही सुख शान्ति का मूल है।
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(श्री प. मुरारीलाल शर्मा, ‘सुरस’ मथुरा )
भगवान ने अपनी सृष्टि को सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए जड़ और चैतन्य पदार्थों को एक दूसरे से सम्बन्धित कर रखा है। निखिल विश्व ब्रह्माण्ड के ग्रह नक्षत्र अपने अपने सौर मण्डलों में आकर्षण शक्ति के द्वारा एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। यदि यह सम्बन्ध सूत्र टूट जाये तो किसी की कुछ स्थिरता न रहे। सारे ग्रह नक्षत्र एक दूसरे से टकरा जावें और सम्पूर्ण व्यवस्था नष्ट हो जावें। इसी प्रकार आपसी प्रेम सम्बन्ध न हो तो जीवधारियों की सत्ता भी स्थिर न रह सकेगी। जरा कल्पना तो कीजिए। माता का बालक से प्रेम न हो, पति का पत्नी से प्रेम न हो, भाई का भाई से प्रेम न हो तो कुटुम्ब की कैसी दयनीय अवस्था हो जाए। यह भ्रातृ भाव, स्नेह सम्बन्ध नष्ट हो जाए तो सहयोग के आधार पर चलने वाली सारी सामाजिक व्यवस्था पूर्णतया नष्ट भ्रष्ट हो जाए। सृष्टि का सारा सौंदर्य जाता रहे।
हर एक प्राणी के हृदय में प्रेम की अजस्र धारा बह रही है। पशु पक्षियों को देखिये वे अपने बच्चों को कितना कष्ट सह कर पालते हैं। यदि कोई उन बच्चों पर आक्रमण करता है तो प्राणों की परवाह न करके उसकी रक्षा में बड़े से बड़े खतरे का सामना करते हैं। विचार कीजिए कि ऐसा क्यों होता है? क्या वे बच्चे उन्हें कमाई खिलावेंगे? या बुढ़ापे में उनकी सेवा करेंगे? नहीं, बड़े होने पर तो वे माता-पिता को पहिचान भी न सकेंगे, बदला चुकाना तो दूर की बात रही। यह प्रेम स्वार्थ के ऊपर अवलम्बित नहीं है। अन्तःकरण में प्रेम की जो निर्झरिणी निरन्तर बहती रहती है यह उसी की प्रेरणा है। निस्वार्थ भाव से प्रेम करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। जिसके ऊपर सम्पूर्ण जातियों की शान्ति और सुव्यवस्था निर्भर है।
मानव जाति के इतिहास में कई बार भले और बुरे समय आये हैं। सतयुग और कलियुग के नाम से हम उन्हें याद रखते हैं, कोई समय ऐसा आता है जब सामूहिक रूप से सर्वत्र शान्ति और सुव्यवस्था दिखाई पड़ती है यही सतयुग है। कोई समय, ऐसा आता है जब सब जगह कलह, क्लेश, अभाव और अशान्ति का बाहुल्य रहता है यही कलियुग है। इन परिवर्तनों का कारण मनुष्य की उस प्रेम शक्ति का उन्नत अवनत होना है। जब लोगों की प्रवृत्ति स्वार्थ की ओर बढ़ती है तो अस्वाभाविक अवस्था का क्लेश युद्ध, अभाव, अशान्ति, का चारों ओर प्रसार हो जाता है, लोगों के कष्ट बढ़ जाते हैं, दिन दिन अवनति दिखाई देने लगती है। तब कहते हैं कि अब कलियुग का राज्य है। इसके विपरीत जब मानव जाति स्वार्थ में कमी करके प्रेम के परमार्थ में अधिक दिलचस्पी लेती है, स्नेह, सहयोग, भ्रातृ-भाव परोपकार को अधिक महत्व देती है तो सर्वत्र शान्ति, सुव्यवस्था और सम्पदा दिखाई पड़ने लगती है, इस प्रेम युग को इतिहासकार ‘सतयुग‘ नाम से उल्लेख किया करते हैं।
यदि हम सुख, शान्ति और सम्पदा पसन्द करते हैं तो आवश्यक है कि प्रेम भाव को अपनावें। दूसरों से उदारता, दया, मधुरता, भलमनसाहत और ईमानदारी का बरताव बरतें। जिन लोगों ने अपनी जीवन नीति प्रेममय बना रखी हैं वे ईश्वर प्रदत्त मानवोचित आज्ञा का पालन करने वाले धर्मात्मा हैं ऐसे लोगों के लिए हर घड़ी सतयुग है। चूँकि वे स्वयं सतयुगी हैं इसलिये दूसरे भी उनके साथ सतयुगी आचरण करने को विवश होते हैं।
जो प्रेम को अपनाता है उसके जीवन पथ की अनेक बाधाएं हट जाती हैं। उसे गरीबी में भी अमीरी का आनन्द आता है। जिस कुटुम्ब में, समाज में, प्रेम भाव की प्रचुरता है वहाँ साक्षात स्वर्ग ही समझिए, इसके विपरीत ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, कपट की जहाँ अधिकता है वे राजमहल भी नरक की ज्वाला में सुलगते रहेंगे। धर्म शास्त्रों में ईश्वर भक्ति का बड़ा महात्म्य है। विचारपूर्वक देखा जाए तो यह साधना मनुष्य की प्रेम भावना को ऊँची उठाने के लिए है। भक्ति द्वारा मनुष्य प्रेम वृत्ति को उन्नत करता है, जिससे स्वर्गीय आनन्द सहज ही उसे प्राप्त हो जाता है। यदि प्रेम भावना न हो तो केवल कर्मकाण्ड मात्र की जाने वाली पूजा पत्री निरर्थक है। महात्मा मलूक दास ने कहा है कि-
मक्का, मदीना, द्वारिका, बद्री और केदार।
बिना प्रेम सब झूठ है, कहें मलूक विचार॥
निस्सन्देह मनुष्य की वैयक्तिक तथा सामाजिक, लौकिक तथा पारलौकिक सुख शान्ति प्रेम के ऊपर निर्भर है। अतएव हमें अपने जीवन में निस्वार्थ प्रेम भावना को अधिकाधिक उन्नत तथा चरितार्थ करना चाहिए।