
तेरी खोज
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श्री आशा कान्त वी. आचार्य, अमरावती
मैंने तेरा पता न पाया!
आतुर, लोचन लिए पन्थ में बैठा हूँ चिर साधक तेरा!
तिमिराच्छन्न हुआ यह जीवन छाया है अवसाद घनेरा!
है तुझसे मिलने की आशा, तेरे दर्शन की अभिलाषा-
धू धू ज्वाल हृदय में जलती, जी मेरा अब है अकुलाया!
मैंने तेरा पता न पाया!
रे क्षण-भर भी पा जाता मैं तेरा प्यार विकल जीवन में।
रह न सकेगी कंचन काया वसुधा के विस्तृत अंचल में।
विह्वलता है बढ़ती जाती, नीर बिन्दु आँखें बरसाती-
जर्जर तन, है दुखमय जीवन, मैं तो जगती से उकताया।
मैंने तेरा पता न पाया!
हाहाकार विश्व में छाया तूने यह संहार न देखा?
मानव क्यों मानवता भूले लिया कभी इसका भी लेखा?
जग कहता व्यापक कण कण में, तू व्यापक भी दानवपन में?
निखिल विश्व में ढूँढ़ा तुझको, तू जाकर है कहाँ समाया?
मैंने तेरा पता न पाया!
दानव पन जगने अपनाया रे मुझको अब नहीं सुहाता?
मैं तो विह्वल हूँ जगती में चैन नहीं कुछ भी ले पाता।
सहता हूँ अब भी आघातें, बीत चुकी कितनी ही रातें-
गिन गिन तारे नील गगन के आँखों से था नीर बहाया।
मैंने तेरा पता न पाया!