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Magazine - Year 1944 - Version 2

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मुरझाया हुआ फूल

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(ले. राजकुमारी-रत्नेश कुमारी जी मैनपुरी स्टेट)

न जाने कानों में कौन कह गया कि प्रियतम पधार रहे हैं। शरीर में बिजली सी दौड़ गई। ज्ञान और भक्ति रूपी उबटन, तैल इत्यादि लगाकर खूब मल-मल कर स्नान करने के बाद मैंने अपने को गीतोक्त दैवी सम्पत्तियों के बहुमूल्य वस्त्राभूषण से सुशोभित किया। सज धजकर मैं स्वरूप दर्शन हित विमल मति रूपी दर्पण के आगे खड़ी हो गई। अपनी शृंगार छटा देखकर मैं मुस्कराई- क्या इतने पर भी प्रियतम प्रसन्न न होंगे। मैं हृदयोद्यान से दौड़ कर सुंदरतम सुगन्धित पुष्प तोड़ लाई और उनका हार गूँथने लगी। साथ ही साथ विचारों की लड़ियाँ भी गूँथती जा रही थी। प्रियतम आएंगे तब मैं यह हार मुस्कराती हुई उनके गले में डाल दूँगी। फिर आप भी उन के हृदय से लग जाऊंगी और अनुरागपूर्वक कहूँगी ‘प्रियतम बड़ी राह दिखवाई’। मधुर-मधुर स्नेहमयी बातें होंगी और तन, मन, जीवन न्यौछावर कर दूँगी उन की मन मोहनी मूर्ति पर इत्यादि न जाने कितने मनोरथ मन में उठ रहे थे, हृदय आनन्द से उछल रहा था। प्रति क्षण प्रियतम के आगमन की आशा कर रही थी। कहीं कुछ आहट पाने पर उल्लास से हृदय भर जाता, आँखें दरवाजे की तरफ पहुँच जाती, होठों पर एक मधुर मुस्कान छा जाती।

प्रियतम आ रहे हैं। समय धीरे-धीर बीतने लगा प्रतीक्षा करते-करते एक आशंका उठ-उठ कर मुझे व्याकुल करने लगी अगर कहीं प्रियतम न आए तो? मेरा मुँह सूखने लगा आँखें सजल हो गई बड़ी बेचैनी मालूम पड़ने लगी। धीरे-धीरे आशंका ने बलवती होकर विश्वास का रूप धारण कर लिया, प्रियतम नहीं आवेंगे। आंखों से आँसुओं की धारा बहने लगी आँखों का काजल बह गया। बेचैनी के मारे पृथ्वी पर लोटने लगी जिससे सुगन्धित तेल लगा कर सजाई हुई अलकावली बिखर कर धूल में सन गईं। आभूषण टूट-टूट कर धूल में मिल गये सुन्दर रेशमी वस्त्रों में धूल लिपट गईं। सुगन्धित तेल अंगराग इत्यादि से बड़े परिश्रम लगन तथा विचारपूर्वक गूँथा हुआ हार हाथ से गिर कर टूट गया था। सुगन्धित तेल इत्यादि से सुगन्धित शरीर धूल रहित हो गया। पर अब इसकी चिन्ता किसे थी बस एक ही विचार हृदय में उठ-उठ कर तड़पा रहा था, हाय! सचमुच ही प्रियतम नहीं आवेंगे।

धीरे-धीरे व्याकुलता ने मर्मान्तक पीड़ा का रूप धारण कर लिया मैं बिना जल की मछली की तरह तड़पने लगी और हृदय में विचार करने लगी ठीक तो है, मैं विश्व मोहन को शृंगार दिखाने चली थी जैसे कोई मूर्खतावश सूर्य को दीपक या जुगनू, समुद्र को जल कुबेर को धन, कामदेव को रूप तथा सुरति को ऐश्वर्य का अभिमान दिखाए। मेरा यह अपराध उनसे भी गुरुतर है। इसका जो कुछ दण्ड मिल रहा है वह परम उचित है। हाय, मैंने यह न सोचा कि मुझमें भला सौंदर्य सागर को रिझाने लायक क्या है? जिनके कण मात्र सौंदर्य से जगत सौंदर्यवान होता है जिनके सौंदर्य की किंचित मात्र झलक किसी वस्तु में देखकर हमारा मन मुग्ध हो जाता है उन्हें मैं भला क्या रिझा सकती हूँ? पर सोचती कैसे शृंगार अभिमान से तो अन्धी हो रही थी। मैं इसी योग्य हूँ, तुमने ठीक ही किया नाथ जो दर्शन नहीं दिया। मुझे इसी तरह तड़पने दो मैं इसी लायक हूँ। व्यथातिरेक से मैं मूर्छित हो गई, न जाने कितनी देर बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरी व्यथा धीरे-धीरे कम हो रही है, न जाने कौन मेरे हृदय में आनन्द भर रहा है, मेरी आंखें खुल गई, मैंने देखा मोहन दरवाजे पर खड़े हुए अपनी मन मोहनी मुरली बजा रहे हैं कि जिसके मधुर स्वर तथा अपनी सुधा वर्षिणी प्रेम दृष्टि से चितचोर मेरे हृदय की समस्त व्याकुलता का हरण कर रहे हैं। मैं बड़ी देर तक एक टक मन मोहन की तरफ देखती रही।

मुझे तन मन की सुधि भूल गई प्रियतम के सिवाय और कुछ भी याद न रहा। फिर मैं सँभाल कर उठी चारों तरफ देखा सिवाय टूटे हुए हार के मुरझाए हुए फूलों के और वहाँ था ही क्या? मैंने उन्हें ही यत्नपूर्वक चुनकर दीनतापूर्वक जीवन सर्वस्व के चरणों पर चढ़ा दिया स्वीकार करें न करें की आशंका से मेरा हृदय धड़क रहा था। मैंने देखा कि सारी कुकल्पनाएं मिट गई। निश्चय ही दया निधान ने मेरी उस महान धृष्टता पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उन्होंने यत्नपूर्वक टूटे हुए हार को जोड़ा और मुरझाये हुए फूल उनके हृदय पर झूलने लगे एक निश्चिन्तता तथा कृतज्ञतापूर्ण पवित्र मुस्कान मेरे होठों पर आ गई, पवित्र इससे कि अब उसमें अभिमान का मिश्रण नहीं था उन फूलों को जो सम्मान प्रभु ने दिया उसे देखकर मेरा साहस बढ़ गया। ये मानों मेरे प्रियतम की कृपालुता और क्षमाशीलता का खुशी से झूम-झूम कर मूक स्वर से गान कर रहे थे और मैं भी करुणा निधान के चरणों पर गिर पड़ी क्योंकि मैं भी तो अब एक मुरझाया हुआ फूल ही थी।

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