
क्रोध से पागल मत हूजिए!
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(श्री नरेन्द्र बहादुरसिंह, मथुरा)
क्रोध का मूल कारण होता है अपना विरोध। इसकी उत्पत्ति तब होती है जब कि मनुष्य अपनी मानसिक स्थिरता (Normal Stae of mind) खो बैठता है। पर वास्तव में देव भावनाएं जब सुप्त अवस्था में होती हैं और हमारी पाशविक प्रवृत्ति जोर मारती हैं तो हम क्रोधित होते हैं। अधिकतर तो यह अवज्ञा, अपमान या अन्य किसी कारण के प्रतिशोध के रूप में होता है। हमें ज्ञान नहीं रहता कि हम क्या कर रहे हैं, भले बुरे की बुद्धि नष्ट हो जाती है और मनुष्य ऐसे-2 कार्य कर बैठता है कि उसी को स्वयं पछताना पड़ता है।
क्रोध किसी सीमा तक लाभदायक भी है जैसे दुष्ट को दण्ड देने के लिए या किसी की विपत्ति में रक्षा के लिये। क्योंकि मान लीजिये यदि कोई किसी अबला के साथ बलात्कार करता है और आप क्रोध करते हैं तो यह बहुत ही उपयुक्त और सामयिक होगा। उस समय की शाँति अशाँति से भी भयंकर होगी। परन्तु अधिकाँश में ऐसी परिस्थिति नहीं होती। हम तनिक-2 सी बातों पर क्रोध कर बैठते हैं। जिसमें हम बल बुद्धि के नाश के सिवाय और कोई परिणाम नहीं देखते। जहाँ प्रेम से काम चलता हो वहाँ जूता पैजार करने से कोई लाभ नहीं। विशेष परिस्थिति की तो बात ही दूसरी है।
अब जब हम देखते हैं कि विरोध ही इसका मूल है तो प्रश्न उठता है कि इसका नाश किस प्रकार किया जाए? इसका सब से सरल उपाय ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ के सिद्धान्त का पालन करना है। कोई कार्य करने के पहले सर्वदा यह विचार कर लेना चाहिये कि यदि वही व्यवहार मेरे साथ होता तो मेरे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता और फिर यदि उसी प्रकार फल मिले तो उसे अपनी ही भूल समझना चाहिये।