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Magazine - Year 1944 - Version 2

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दिलचस्पी से काम करिए।

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एक तत्त्वदर्शी कवि की दिव्य अनुभूति है कि “जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रस धार नहीं। वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।” दार्शनिक थोरो का कथन है कि- “जीवधारी और कुछ नहीं एक बोलता और चलता पाषाण है। किन्तु यदि उसमें भावनाएं-कोमल सतोगुणी भावनाएं उठती हों, सौंदर्य स्नेह और सेवा की तरंगें उठती हों तो वह मनुष्य है। .............मैं मनुष्य उसे नहीं कहता जो बोलता और चलता हो मेरी दृष्टि में तो वही मनुष्य है जिसमें सहृदयता और सद्भावना का निवास है।” विद्वान जार्ज रसेल का मत है कि-”धर्म और पुण्य किसी मनुष्य के हृदय में कितना विद्यमान है इसकी एक मात्र परीक्षा यह है कि वह उच्च कोटि की सात्विक सौंदर्य भावनाओं में कितना प्रवाहित होता है।” रूखा मनुष्य दिखावट के लिए, वाहवाही लूटने के लिए या अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए कोई बड़े काम कर सकता है, पैसा खर्च कर सकता है और समय भी लगा सकता है परन्तु इन सब कामों से उसके अन्तराल में वह आनन्द, तृप्ति और सन्तोष उत्पन्न नहीं होता जो कि एक सहृदय गरीब के मन में किसी कष्ट पीड़ित की छोटी सी सहायता, किन्तु भावुकता पूर्ण सहायता करने से होता है।

आप अपनी रुक्षता, उदासीनता, खुदगर्जी, निष्ठुरता और अनुदारता को कम करते चलिए इसके स्थान पर स्नेह, दिलचस्पी, सेवा, सहायता, दया और उदारता को बढ़ाते चलिए। यह परिवर्तन जैसे जैसे आपमें होता जाएगा वैसे वैसे ही आपका आनन्द बढ़ता जाएगा। “दूसरे लोगों से हमें क्या काम, हमें तो अपने मतलब से मतलब,” ऐसे तुच्छ विचार रूखेपन को उत्पन्न करते हैं, इसलिए सावधान रहिए उन्हें अपने मस्तिष्क में प्रवेश मत होते दीजिये। आप एक समाजिक प्राणी हैं, दूसरों की अच्छाई बुराई के ऊपर आपकी अच्छाई बुराई निर्भर है, दूसरों के सुख दुख, हानि लाभ, ज्ञान अज्ञान का परिणाम आपको भी भुगतना पड़ता है। पेट में दर्द हो तो मस्तिष्क का भी कुछ न कुछ नुकसान जरूर होगा और मस्तिष्क की पीड़ा शरीर के अन्य अंगों को भी शक्तिहीन बनावेगी। समाज एक शरीर है और व्यक्ति उसका अंग हैं। अच्छे पड़ोसियों के बीच ही किसी की अच्छाई और सुख शान्ति निभ सकती है, इसलिए यह भली प्रकार से समझ लेना चाहिए कि दूसरों के -पड़ोसियों के मतलब के साथ अपना मतलब ऐसी मजबूती के साथ जुड़ा हुआ है कि उसे अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए अपने कुटुम्बियों के, पड़ोसियों के, संबंधियों के, साथियों के प्रति अपनी आत्मीयता अधिक से अधिक बढ़नी चाहिए, उनके विषय में भी दिलचस्पी होनी चाहिए और उनके विचार तथा कार्यों में यथोचित दिलचस्पी लेनी चाहिए।

यह एक नियम है कि जिस वस्तु में आप जितनी दिलचस्पी लेते हैं वह उतनी ही आनन्ददायक हो जाती है और जिसमें से अपनी रुचि हटा लेते हैं वह उतनी ही नीरस हो जाती है। अपना कुरूप पुत्र प्यारा होता है पर दूसरे के सुन्दर लड़के की ओर कुछ ध्यान नहीं जाता। कारण यह है कि अपने पुत्र में दिलचस्पी है, दूसरे के पुत्र में नहीं। अंधेरी रात में वही वस्तु चमकती है कि जिन पर दीपक का प्रकाश पड़ता है, इसी प्रकार संसार में भरी हुई अनेक वस्तुओं में से वही वस्तुएँ प्रिय दीखती हैं जिन पर दिलचस्पी रूपी प्रकाश पड़ता है। यदि आप अपने परिवार के द्वारा प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते हैं, अपने संबंधियों को अपने लिए आनन्दमय बनाना चाहते हैं तो उनकी ओर उपेक्षा, रूखापन, उदासीनता रखना छोड़ दीजिए और सच्ची दिलचस्पी के साथ आत्मीयता की भावनाएँ रखना आरम्भ कर दीजिए। जो वस्तुएँ कल तक आपको बेकार, भार चिढ़ाने वाली, तंग करने वाली, दिखाई देती थी, वे ही आज प्रिय एवं आनन्दवर्धक दृष्टिगोचर होने लगेंगी।

जो बात व्यक्तियों के संबंध में है वही बात काम काज के सम्बन्ध में भी है जिस कार्य में आपको रुचि है उसमें अधिक परिश्रम करने पर भी अच्छा होगा। जिस काम को अधूरे मन से उदासीनतापूर्वक करेंगे उसमें बहुत थकान आवेगी, थोड़ा काम होगा, खराब काम होगा। अच्छा और बढ़िया काम करने के लिए यह आवश्यक है कि आदमी अपने काम का सम्मान करे, उसे बढ़िया समझे, उसमें दिलचस्पी ले और गर्व अनुभव करे। ऐसा करने से वह हलका या मामूली काम भी बहुत बढ़िया तथा महत्त्वपूर्ण बन जावेगा। आर्य जाति की वर्ण व्यवस्था का इसी आधार पर निर्माण हुआ है कि एक समूह के लोग एक कार्य को अपना कर्त्तव्य धर्म समझ कर, बिना इधर उधर चित्त डिगाये, पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहें ऐसा करने से वह कार्य उत्तमतापूर्वक होते रहेंगे। अस्थिरता, आधे मन और झिझक के साथ जो कार्य किये जाते है वे प्रायः पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाते। काम में और व्यक्तियों में, दोनों क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने का एक ही सिद्धान्त है कि दिलचस्पी को बढ़ाओ, अधिक ध्यान दो। जिस क्षेत्र में काम करना पड़े, रहना पड़े, उसे उत्तम, ऊँचा, सुन्दर और श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करो। ऐसा करने से तुम्हारे आनन्द में सैकड़ों गुनी बढ़ोतरी हो जाएगी।

प्रेम के समान कोई वस्तु मनुष्य को प्रिय नहीं हैं। धन, मान, शरीर, प्राण सब कुछ मनुष्य प्रेम के ऊपर निछावर कर सकता है। पैसे की बहुतायत होते हुए भी यदि मनुष्य को प्रेम प्राप्त न हो तो उसका जीवन शुष्क ही रहेगा। इसके विपरीत यदि गरीबी और अभावग्रस्त अवस्था में भी प्रेम प्राप्त हो तो वह अमीरी की अपेक्षा कहीं अधिक संतोषदायक होगा। वह प्रेम क्या है? दिलचस्पी का-कोमलता का-दूसरा नाम ही प्रेम है। प्रेम के साथ सौंदर्य जुड़ा हुआ है-जिससे प्रेम होता है वह कुरूप होते हुए भी सुन्दर दिखाई पड़ता है, प्रेम के साथ उदारता जुड़ी हुई है, प्रेम के साथ सेवा और सहायता का सुदृढ़ सम्बन्ध है। प्रेम ही पुण्य है। उदारता, सेवा और सहायता यह पुण्य के प्रत्यक्ष लक्षण हैं, जिसके मन में प्रेम है वह पुण्यात्मा है। प्रेम का दूसरा नाम ही भक्ति है। भक्ति के वश में भगवान हैं, फिर मनुष्य की तो गणना ही क्या है। जिसके मन में प्रेम की कोमल, सरस, सात्विक धारा बहती है उसके लिए सारा संसार चित्र सा सुन्दर, पुष्प सा सुगंधित, दूध सा स्वच्छ, गंगा सा पवित्र है। हर आदमी की अपनी दुनिया अलग होती है, प्रेमी की यह अपनी पवित्र दुनिया अलग ही है। जो ऐसी दुनिया में रहता है वह स्वर्ग में ही रहता हैं। प्रसिद्ध भक्त माइकेल ऐंग्लो कहा करते थे कि ‘मुझे पत्थरों और चट्टानों में अप्सराओं जैसी दिव्य मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं।” महात्मा माइकेल को चट्टानों में भी सजीव स्वर्ग दिखाई पड़ता था। हम भी यदि अपने नेत्रों में प्रेम का अंजन लगा लें तो हम भी वैसा ही अनुभव कर सकते हैं। बुरी और कठिन परिस्थितियों में अपने आनन्द को अक्षुण्य बनाये रख सकते हैं। महाकवि शैली ने मृत्यु का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है, वह मृत्यु को सुन्दरी के रूप में, प्रेयसी रूप में देखता है, उसका बड़ा ही भावुक और कवित्वमय वर्णन करता है और मृत्युरूपी सुन्दरी की गोद में बैठने की बड़े आनंद और चाव के साथ उत्कंठा प्रकट करता है। जिसके मन में प्रेम की सरसता है उसके लिए मृत्यु भी सुन्दर दिखाई पड़ती है। प्रेम का ऐसा ही महात्म्य है। वह भयंकर कठोरताओं को स्निग्धता, सरसता और सरलता में बदल देता है।

आप कंजूस मत बनिये। जोड़ने जमा करने के चक्कर से बचकर उदारता का दरवाजा खुला, रखिए। आप खुदगर्ज मत बनिए-दूसरों की सेवा सहायता के लिए भी प्रयत्नशील रहिए। आप रूखापन धारण मत कीजिए-स्वयं प्रसन्न रहने और दूसरों को प्रसन्न करने का उद्योग किया कीजिए। आप शुष्क और नीरस मत बनिए, अपने हृदय में कोमलता, दया, करुणा, भ्रातृभाव के भावों को प्रवाहित किया कीजिए। आप उजड्ड और अभिमानी मत बनिये दूसरों को स्वागत, सत्कार, मधुर भाषण से, विनम्र व्यवहार से संतुष्ट करते रहिए। आप कृतघ्न मन बनिये, किसी के लिये हुए उपकार को भूलिए मत और उसे समय समय पर धन्यवादपूर्वक प्रकट करते हुए प्रत्युपकार के लिए प्रयत्नशील रहा कीजिए। अपने क्षेत्र को दोष मत लगाइए वरन् पवित्र मानिए। अपने शरीर को, अपने परिवार को, अपने कार्य को, अपने स्वजन संबंधियों को अपनी मातृभूमि को तुच्छ एवं घृणित मत समझिए वरन् उसमें पवित्रता, श्रेष्ठता और सात्विकता के तत्त्वों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर विकसित कीजिए। कुरूपता, गंदगी और अन्धकार को हटाकर सौंदर्य, स्वच्छता और प्रकाश का प्रसार करिए।

हे आत्मन्! प्रेम की वीणा बजाते हुए जीवन को संगीतमय बनाओ, इसे एक सुन्दर चित्र के रूप में उपस्थित करो। जिन्दगी को एक भावुक कविता के रूप में रच डालो। प्रेम का मधुरस पान करो, खय्याम की तरह अपने प्याले को छाती से चिपकाये रहो, हाथ से छूटने मत दो। प्रेम करो! अपने आप से प्रेम करो, दूसरों से प्रेम करो, विश्व से प्रेम करो। मनुष्यों! प्रेम करो, यदि जीवन का अमृत रस चखना चाहते हो तो प्रेम करो अपने अन्तःकरण को कोमल बनाओ, स्नेह से उसे भर लो। इस पाठ पर बार-बार विचार करो और बार-बार अन्तःकरण में गहराई तक उतारने की अनवरत साधना करते रहो।

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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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