
मानव-जीवन
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(रचयिता-श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी; टेढ़ा-उन्नाव)
दिन होली, रात दीवाली हो!
जीवन-पथ के शीतलच्छाय तरुओं का करता उन्मूलन,
अपने ही हाथों से तूने बोए हैं काँटों के ये बन,
अपनी आँखों से उठा अरे! अब अहंकार का अवगुण्ठन;
जड़ मानव! तेरे जीवन की मधुभरी छलकती प्याली हो!
दिन होली, रात दीवाली हो!
यह विश्व बने मधुबन तेरा बन घन जा तू इसका बनमाली,
कर सेचन प्रेम-सुधा से तू, छा जाए सुन्दर हरियाली,
तब मनोदेश से हट जाए छलना की घोर घटा काली;
हँसती, झुकती उल्लासभरी तरु-तरु की डाली-डाली हो!
दिन होली, रात दीवाली हो।
अंगार धधकते तब उरके सौरभमय सुमन-समान बनें,
आँखों से आँसू अधरों पर अब मन्द-मन्द मुसकान बनें,
वेदना भरे ये तेरे स्वर कोयल के मधुमय गान बनें;
तम के अंचल में मुसकाती सुन्दरी उषा की लाली हो!
दिन होली, रात दीवाली हो!