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Magazine - Year 1944 - Version 2

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अखंड ज्योति का ज्ञान यज्ञ

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अखंड-ज्योति अपने साथ एक ठोस उद्देश्य और शक्तिशाली कार्यक्रम लेकर जन्मी है। आज से पाँच वर्ष पूर्व इस महा संस्थान की नींव जिस दिन रखी गई थी, उस दिन भारत के उच्चकोटि के आध्यात्मिक पुरुषों ने एक स्थान पर एकत्रित होकर संसार की और मानव जाति की विभिन्न समस्याओं पर बहुत गम्भीरतापूर्वक विचार किया था। करीब एक सप्ताह तक प्रतिदिन बारह बारह घंटे इस प्रश्न पर विभिन्न दृष्टिकोणों के साथ विचार किया कि “मनुष्य जाति को वर्तमानकालीन सर्वतोमुखी दुर्गति से निकाल कर मनुष्योचित सुख शान्ति की अवस्था तक कैसे लाया जाया सकता है?” विभिन्न दृष्टिकोणों से गम्भीर विचार विनिमय के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि “आत्मिक उन्नति सब उन्नतियों की जननी है।” विवेक बुद्धि के-सद्ज्ञान के-जागृत होने से मनुष्य शरीर में बिखरी हुई अनन्त दिव्य शक्तियाँ जग पड़ती हैं और लौकिक एवं पारलौकिक सुख शान्ति के साधन आसानी के साथ उपलब्ध हो जाते हैं।

दुनिया में चारों ओर दुख शोक फैले हुए हम देखते हैं। बीमारी, गरीबी, अनीति, कुप्रवृत्ति, व्यसन, व्यभिचार, ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, कलह, शोक, चिन्ता, भय, पराधीनता आदि के कारण मनुष्य जाति नाना प्रकार के दुख भोग रही है। इन व्याधियों को दूर करने के लिए बाह्य उपचार किये जाते हैं परन्तु हम देखते हैं कि वे स्थायी और इच्छित फल देने वाले नहीं होते। कारण यह है कि समस्त व्याधियों की जड़ मनुष्य के मन में है। दवा सेवन करने से कुछ दिन के लिए रोग दब सकता है परन्तु यदि मन असंयमी है, चटोरेपन से प्रेरित होकर कुपथ्य किया करता है तो सदा बीमार ही रहेगा, बेशकीमती दवाएं उसके लिए निरर्थक होंगी। यदि मन संयमी हो तो बीमारी, बिना दवा के भी बहुत जल्द अच्छी हो जाएगी और आहार विहार के संयम के कारण स्वास्थ्य जल्दी न बिगड़ेगा। कानून द्वारा, दंड द्वारा पाप पूर्ण कार्यों को कुछ हद तक ही रोका जा सकता है, यदि जनता की मानसिक स्थिति पापपूर्ण है तो राजदंड या समाज दंड से बचने और गुप्त रीति से पाप करने की तरह तरह की तरकीबें पैदा हो जाएँगी। यदि लोगों की सदाचार की ओर रुचि हो तो दण्ड और कानून का भय न होते हुए भी मनुष्य सदाचारी रहेंगे। धनी, विद्वान, गुणवान, प्रतिष्ठित आदि बनने के लिए तीव्र इच्छा और लगन की जितनी आवश्यकता है और किसी बात की उतनी आवश्यकता नहीं है। शोक, चिन्ता, भय, द्वेष आदि की उत्पत्ति और समाप्ति परिस्थितियों के कारण नहीं होती वरन् मनोभावों के कारण होती है। एक आदमी धन नाश हो जाने पर अत्यन्त शोक ग्रस्त होकर आत्म हत्या कर लेता है परन्तु दूसरा आदमी इसकी परवाह न करके धन नाश हो जाने पर भी घबराता नहीं। ध्यानपूर्वक देखा जाए तो पता चलता है कि हर प्रकार की व्यथा-वेदना के बीज मन में रहते हैं यदि मानसिक स्थिति का, आत्मबल का, विवेक बुद्धि का सुधार हो जाए तो मानव जीवन के सम्पूर्ण रोग शोक आसानी से दूर हो सकते हैं।

जैसे व्यथा वेदनाओं के उत्पन्न करने का बीज मन के अन्दर है वैसे ही उनका निवारण करके सुख, शान्ति, भय परिस्थितियों को प्राप्त करने का, लौकिक और पारलौकिक उन्नति का, बीज भी मन के अन्दर ही है। गीता कहती है कि-जिस के जैसे विचार हैं वह वैसा ही बन जाता है। यदि विचारधारा उच्च हो तो जीवन का बाह्य रूप भी उच्च ही बन जाता है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, धार्मिक सब प्रकार के सुधारों की कुँजी मन के भीतर है। एक तत्त्वदर्शी आचार्य का कथन है कि क्रान्तियाँ तोप और तलवारों से नहीं होती वरन् विचार बल से होती हैं। विचारों में ऐसी प्रचण्ड शक्ति है कि बेचारे तोप तमंचे उसके आगे झक मारते हैं। इतिहास बताता है कि बड़ी बड़ी बलवान सत्ताएं, रूढ़ियां, अनीतियाँ कुप्रवृत्तियाँ जो अपने को अजेय समझती थीं विचारों की तूफानी आँधी के सामने अधिक न ठहर सकीं और धड़ाम से गिरकर चकनाचूर हो गईं।

दुख शोकों का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वे मानसिक विकारों का फल मात्र हैं। अज्ञान के साथ साथ वे उसी प्रकार प्रकट होते हैं जैसे रात्रि के साथ तारे और विवेक के साथ वे उसी प्रकार छिप जाते हैं जैसे सूर्य के उदय होते ही चमगादड़। मनुष्य जाति को धन, औषधि, मशीन, विज्ञान, ऐश, मनोरंजन, शासन, कानून आदि द्वारा दुख से नहीं छुड़ाया जा सकता क्योंकि वास्तविक सुख शान्ति बाहर की किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है वरन् मनोदशा के ऊपर अवलम्बित है। उत्तम विचारधारा, उच्च दृष्टिकोण और सद्भाव को यदि मनुष्य अपना ले तो धन आदि की कमी होते हुए भी इसी जीवन में स्वर्ग का आनन्द उपलब्ध किया जा सकता है। वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, शरीर में मस्तिष्क श्रेष्ठ है, यज्ञों में ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है, गीता की इस उक्ति का यही तात्पर्य है कि मनुष्य जीवन का मर्मस्थान उसका विचार है। विचार ही इस हाड़ माँस के पुतले को दुखी, दरिद्र, नीच, रोगी, पापी, पतित बनाते हैं और उन्हीं के प्रभाव से वह सुखी सम्पन्न, पूजनीय, स्वस्थ, धर्मात्मा प्रतापी और जीवन मुक्त होता है।

इस महान् तत्त्व ज्ञान की अचल सत्यता के आधार पर एक सप्ताह तक विचार विनिमय करने के पश्चात् अखंड ज्योति का शिलान्यास करने वाले महात्मा इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य जाति को वर्तमान पतितावस्था से ऊँचा उठाने के लिए, आध्यात्मिकता का, श्रेष्ठ विचारधारा का, उच्च दृष्टिकोण का प्रसार किया जाए। यह निश्चित हैं कि जितनी ही मनोदशा बदलेगी उतनी ही सुख शान्ति में वृद्धि होगी। भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब मैं अवतार लिया करता हूँ। आज का समय ठीक वैसा ही है जैसे में कि अवतार की आवश्यकता होती है। तत्त्वदर्शी महात्मा अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहे हैं कि अब भगवान् अवतार ले रहे हैं। असंख्य अन्तःकरणों में उस अदृश्य शक्ति की अदृश्य प्रेरणा हो रही है कि-दुख को, पाप को हटाने के लिए कर्तव्य में प्रवृत्त हुआ जाए। तपस्या और योगसाधना में लगे हुए, जीवन मुक्त महात्मा ईश्वर की उसी अवतारमयी प्रेरणा से प्रेरित होकर लोक सेवा के, जन कल्याण के कार्यों में साधारण मनुष्यों की भाँति जुट गये हैं। अखंड ज्योति भी एक ऐसा ही मिशन है। जिसका कार्यक्रम मनुष्य जाति को सन्मार्ग की ओर सदाचार की ओर, सद् विचारो की ओर, कर्त्तव्य-परायणता की ओर प्रेरित करना है, जिससे दुखों की निवृत्ति और आनन्द की प्राप्ति हो सके।

‘अखंड ज्योति’ संस्थान की ओर से यह मासिक पत्रिका निकलती है जिसकी पंक्तियाँ आप इस समय पढ़ रहे हैं। सद्ज्ञान ग्रन्थ माला की 38 एक से एक उत्तम पुस्तकें छपी हैं। परन्तु ऐसा न समझ लेना चाहिये कि इतना मात्र ही हमारा कार्यक्रम है। अखंडज्योति के हजारों पाठक अपनी-अपनी योग्यता और स्थिति के अनुसार अपने-अपने क्षेत्रों में ज्ञान प्रचार का कार्य करते हैं। कई सौ गृही और वैरागी सन्तजन देश के कोने-कोने में सदाचार का, सद्विचार का, नारद ऋषि की भाँति दिन-रात प्रचार करते रहते हैं। मथुरा कार्यालय में कर्मयोग की शिक्षा प्राप्त करने के लिये सदैव कुछ न कुछ महानुभाव आते ही रहते हैं। सत्संग और स्वाध्याय द्वारा ज्ञान वृद्धि का महान् कार्य सदा चलता ही रहता है।

भगवान् को प्रसन्न करने के लिये उनकी आज्ञा पालन करने के लिये समय समय पर विभिन्न प्रकार की आवश्यकताएं हुआ करती हैं। उन आवश्यकताओं को सच्चे ईश्वर भक्त समय समय पर प्रकट किया करते हैं। एक समय था जब इस देश में वर्षा बहुत अधिक होती थी, कीचड़, और सील रहने के कारण वायु दूषित हो जाती थी और मलेरिया आदि रोग फैलने की अधिक आशंका रहती थी। उस समय वायु को शुद्ध करने के लिये हवन करना, अग्नि जलाना आवश्यक था। तत्कालीन ऋषियों ने घोषणा की कि-’यज्ञ हवन करना ईश्वर को प्रसन्न करने का मार्ग है।’ इसके पश्चात् ऐसा समय आया जब कि धर्म शिक्षा की, ज्ञान वृद्धि की अधिक आवश्यकता अनुभव हुई। तत्कालीन ऋषियों ने घोषित किया कि-”कथा सुनने से, धर्म ग्रन्थों का पाठ करने से, ईश्वर प्रसन्न होता है।” एक समय था जब मनुष्य की समझ में ईश्वर पूजा की बात धंसती ही न थी, उस समय ऐसी आवश्यकता अनुभव की गई कि ईश्वर के चित्रों की सन्निकटता से लोगों का ध्यान ईश्वर की ओर आकर्षित किया जाए। तत्कालीन ऋषियों ने घोषणा की कि ‘मूर्ति की पूजा करने से ईश्वर प्रसन्न होता है।’ एक समय था जब मनुष्य-हिंसा में बहुत प्रवृत्त था। तत्कालीन ऋषियों ने ‘अहिंसा परमोधर्म’ को पालन करना ईश्वर की श्रेष्ठ पूजा बताया। एक समय था जब मनुष्य बहुत स्वार्थी और माया लिप्त हो गया था, भगवान् बुद्ध ने संन्यास द्वारा, त्याग द्वारा, परमात्मा को प्राप्य घोषित किया। इसी प्रकार समय समय पर जप, तप, व्रत, तिलक, छाप, कंठी, माला, ध्यान, मन्त्र, कीर्तन आदि के द्वारा ईश्वर का प्रसन्न होना बताया गया था। विभिन्न देशों में विभिन्न सम्प्रदाय, मजहब भी इसी तथ्य के आधार पर चले हैं। देशकाल की स्थिति के अनुसार मनुष्य जाति को सन्मार्ग पर लाने का जब जो भी मार्ग सब से अच्छा दिखाई पड़ा तब उसे ही ईश्वर की प्रसन्नता का सर्वश्रेष्ठ तरीका घोषित कर दिया गया। वैसे ईश्वर, पूजा पत्री का भूखा नहीं है, भक्त और अभक्त के बीच में भेद भाव भी वह नहीं करता। जो उसकी आज्ञाएं मानता है, उसकी इच्छा का पालन करता है, संसार में सुख शान्ति बढ़ाने के लिए समयानुकूल कार्य करता है, वही उसका प्यारा है, वही उसका भक्त है।

आज की स्थिति में उच्चकोटि की आत्माओं को अपने अन्तःकरण में ईश्वर की ऐसी प्रेरणा अनुभव होती है कि अपने व्यक्तिगत स्वर्ग और मुक्ति की परवाह न करके दुखी संसार को सुखी बनाने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रेरणा से प्रेरित होकर जो कार्य किया जाता है वह ईश्वर भक्ति का वर्तमानकालीन श्रेष्ठ तरीका है। अखंड ज्योति को चलाने वाली अदृश्य सत्ता इसी कार्यक्रम में लगी हुई है। उसके संचालक, परिवार के सदस्य, पाठक, इसी योजना के एक अंग हैं। इस प्रकार ईश्वर की आज्ञा पालन का, परमात्मा की भक्ति का समयानुसार यह एक अत्युत्तम पथ है। ज्ञान दान को-ब्रह्मदान या जीवनदान कहा जाता है। भगवान् ने कहा है-”ज्ञानं ज्ञानवतामहम्” अर्थात् ज्ञानवानों में जो ज्ञान है, वह ज्ञान परमात्मा ही है। “नहि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते” अर्थात्-ज्ञान के समान इस संसार में और कोई पवित्र करने वाली वस्तु नहीं है। “श्रेयान्द्रव्य मया यज्ञाज्ज्ञान यज्ञः परंतप” अर्थात्-वस्तुओं द्वारा होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है।

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