
आरोग्यता की कुँजी
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नाना प्रकार की बीमारियों का एक ही प्रधान कारण है और वह है कब्ज। आयुर्वेद का मत है कि-
“सर्वेषामेव रोगाणाँ निदानं कुपितः मलाः।”
अर्थात्- मलों के कुपित होने से ही सब रोग उत्पन्न होते है। यदि मल ठीक प्रकार शरीर से बाहर निकलता रहे, उसके रुकने, सड़ने या बिगड़ने का अवसर न आवे तो मनुष्य समस्त बीमारियों से बचा रह सकता है। प्रसिद्ध शरीर शास्त्री ए.वी. स्टाक होम का कथन है कि-”मनुष्य की देह में होने वाली बीमारियों में से एक भी ऐसी नहीं है जिसका प्रधान कारण कब्ज न हों।” यही मत आरोग्य शास्त्र के आचार्य बरनर मेक फेडन् का है। उन्होंने लिखा है “कि सब रोगों का एक ही मूल कारण है और वह कब्ज।” ब्रीफ का भी यह अभिप्राय है वह कब्ज को एक प्रकार की ‘धीमी मृत्यु’ मानता है। आयु को घटाने वाला और देह को भीतर ही भीतर खोखला कर डालने वाला यह रोग बाहर से बहुत छोटा मालूम पड़ता है परन्तु इसके द्वारा होने वाले परिणाम बहुत ही भयंकर और घातक होते हैं। अमेरिका के सरजन कालेज के अध्यक्ष डॉक्टर फ्रेंकलिन मार्टिन ने बताया है। कि कब्ज के कारण ही पेट में छोटे छोटे जख्मों की बीमारी होती है और इस बीमारी से अमेरिका में 16 फी सैकड़ा आदमी मरते है। डॉक्टर अरबम्पनाट लेन ने हिसाब लगाकर बताया है कि दुनिया में आठ पीछे एक आदमी पेट के छोटे जख्मों से पीड़ित पाया जाता है। जिस का खास कारण कब्ज है। उन्होंने अपनी पुस्तक “ञ्जद्धद्ग स्द्गख्ड्डद्दश स्ब्ह्यह्लद्गद्व शद्ध ह्लद्धद्ग क्चशस्रब्” में बड़े गहरे अनुसंधान के आधार पर यह साबित किया है कि पचासों तरह के भयंकर रोग केवल कब्ज के करण ही पैदा होते हैं।
महात्मा गाँधी ने अपना अनुभव प्रकट करते हुए लिखा है कि-”संग्रहणी, अतिसार, अर्श आदि रोगों का कब्ज से बहुत ही घना सम्बन्ध है जिसका पेट ठीक तरह अन्न को नहीं पचाता उस का शरीर तेज रहित और निर्बल हो जाता है तथा नाना प्रकार के रोग उस पर अपना अधिकार जमाने लगते हैं।” प्रो. मेचनी काफ का कथन है कि जिसके पेट की खराबी रहती है वह लम्बी उम्र तक नहीं जी सकता है। कोष्ठबद्धता एक ऐसा रोग है जो हर घड़ी चुपके चुपके मनुष्य की आयु को खाता रहता है। संसार के सभी बुद्धिमान व्यक्ति इसी नतीजे पर पहुँच रहे हैं कि बीमारी और कमजोरी का उत्पत्ति स्थान पेट ही है। जब ऐंजन में गड़बड़ी पड़ी तो कारखाने का सारा काम गड़बड़ हो जाता है। पेट की मशीन के बिगड़ते ही देह के दूसरे पुर्जे भी ऐब लाने लगते हैं।
जो कुछ हम खाते है वह पेट में जाकर पचता है। पचे हुए भोजन में से सार भाग को शरीर चूसकर रक्त बना लेता है और निकम्मी वस्तुओं को मल मूत्र आदि के द्वारा बाहर निकाल देता है। अगर पाचन ठीक प्रकार न हो तो उसमें से सार भाग को शरीर नहीं खींच सकता। अतएव आवश्यक मात्रा में नया रक्त भी नहीं बनता। रोज हमें शारीरिक या मानसिक परिश्रम करना पड़ता है उसमें रोज रक्त का खर्च होता है। मोटर, रेल, जहाज आदि तेल की ताकत से चलते है। वैसे ही रक्त की ताकत से शरीर काम करता है। जितना खर्च होता है उतनी आमदनी न हो तो धीरे धीरे दिवाला निकलने लगता है। इसी प्रकार रोज के परिश्रम में जितना रक्त खर्च होता है। उतना पेट तैयार न करे तो मनुष्य दिन दिन निर्बल होता जाता है, हड्डी और माँस का संचित खजाना घटता जाता है यह कमजोरी या निर्बलता है। आवश्यक मात्रा में जब रोज रक्त नहीं बनता और खर्च जारी रहता है तो दिवाले की ओर-आपत्ति की ओर लगता है।
बीमारियों का कारण कमजोरी है क्योंकि जब शरीर में थोड़ा और निर्बल रक्त रह जाता है तो रोग कीटाणुओं के हमले का वह मुकाबला नहीं कर सकता। हवा, पानी, भोजन, छूत आदि के द्वारा तरह तरह के हजारों किस्म के रोग कीटाणु हर घड़ी हमारे शरीर में पहुंचते रहते हैं। अगर रक्त बलवान है तो उन हानिकारक कीटाणुओं को लड़ भिड़कर मार डालेगा या बाहर निकाल देगा किन्तु यदि वह कमजोर है तो यह कीटाणु आसानी से देह में अपना कब्जा जमा लेंगे और अपनी वंश वृद्धि करके तरह तरह की बीमारियाँ पैदा कर देंगे। इसके अतिरिक्त बीमारियाँ पैदा होने का एक कारण यह भी है कि पेट में गया हुआ भोजन जब पचता नहीं, कच्ची हालत में पड़ा रहता है तो वह आंतों में जाकर सड़ने लगता है। हर एक चीज के सड़ने पर एक प्रकार के तेजाब या विष पैदा होते है। जैसे साँप के काट लेने पर शरीर के किसी भी अंग में घुसा हुआ विष सारे शरीर में फैल जाता है। उसी प्रकार अन्न के सड़ने से पेट में पैदा हुए वे तेजाब और विष भी खून के दौरे के साथ सारे शरीर में फैल जाते है, और अपने हानिकारक प्रभाव से तरह तरह के रोग पैदा करते है। इस विष को शरीर के जिस अंग में ठहरने को अच्छी जगह मिल जाती हैं वहीं वह जड़ जमा लेता है। यदि कान में जगह मिली तो कान का दर्द होने लगा, गाँठ और जोड़ो में जगह मिली तो गठिया हो गई। परिस्थिति के अनुसार वही विष, फोड़ा, और ज्वर, दर्द, लकवा आदि के विभिन्न रूपों में प्रकट होता है।
इस प्रकार यह आसानी से जाना जा सकता है कि (1) रोगों का जो हमला बाहर से होता रहता है उसे रोकने की ताकत न होने या (2) मल के पेट में रुक जाने से उसकी सड़न द्वारा उत्पन्न हुए विष के प्रभाव से रोग उत्पन्न होते है। इसलिए पाचन शक्ति ठीक बनाये रखिए।