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Magazine - Year 1944 - Version 2

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धर्म का सच्चा स्वरूप

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धर्म वह वस्तु है जिसकी रक्षा करने से हमारी रक्षा होती है “धर्मे रक्षति रक्षतः” का सिद्धान्त ही सत्य है। मनुष्य बढ़ा स्वार्थी जीव है उसने हर दिशा में पहले यह देखा है कि इस कार्य को करने से मेरा कितना हित होगा, तत्पश्चात् उस कार्य को आरम्भ किया है । गाय, भैंस, घोड़े बकरी आदि की वह रक्षा करता है क्योंकि बदले में वह भी मनुष्य की सम्पत्ति तथा तन्दुरुस्ती की रक्षा करते है-बढ़ते हैं। सियार भेड़िया, हिरन, लोमड़ी, चीता, कछुआ आदि को आम तौर से नहीं पाला जाता क्योंकि इनकी रक्षा करने से मनुष्य की रक्षा नहीं होती। यही बात हर दिशा में है व्यापार, विवाह, मित्रता, कुटुम्ब पालन, विद्या-व्यायाम आदि को इसलिये उचित ठहराया गया है कि इनके द्वारा मनुष्य का हित साधन होता है, रक्षा होती है, सुख मिलता है। जिस कार्य से किसी अच्छे प्रतिफल की आशा नहीं होती उसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता।

धर्म को मनुष्य ने बहुत बड़ी वस्तु माना है छोटे मोटे सुखों का त्याग कर और कष्टों को अपना कर भी वह धर्म के लिए प्रयत्नशील रहता है क्योंकि लाखों वर्षों का अनुभव यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा करने से अपनी रक्षा होती है। रक्षक, पहरेदार, चौकीदार, सैनिक आदि रक्षा करने वाले व्यक्तियों को पैसा खर्च करके भी अपने पास रखा करते है क्योंकि यह बात अनुभव में आ चुकी है कि इनके द्वारा आने वाली आपत्तियों और हानियों से बचाव होता है। यदि यह बात न होती तो कोई भी पहरेदारों को न रखता। इसी प्रकार धर्म को भली भाँति परख लिया गया है कि वह हमारी रक्षा करता है, इसीलिए लोग धर्म की रक्षा करना उचित समझते है। यदि उसमें यह गुण न होता तो कोई उसे स्वीकार न करता।

गौ पालन, तुलसी स्थापना, गंगा स्नान, तीर्थ यात्रा, एकादशी व्रत, ब्रह्मचर्य आदि कार्यों को धर्म माना गया है। इस मान्यता से पहले परीक्षा कर ली गई है कि यह कार्य लाभदायक है। गाय पालन से दूध गोबर और बछड़े मिलते हैं तुलसी अनेक रोगों को दूर करने वाली एक अमोघ औषधि है। गंगा के जल में ऐसे रासायनिक तत्व पाये जाते है जो स्वास्थ्य सुधार के लिए उपयोगी है। तीर्थ यात्रा में देशाटन के अनुभव, सत्पुरुषों का सत्संग और वायु परिवर्तन होता है। एकादशी व्रत रखने से पन्द्रह दिन का कब्ज पच जाता है। ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान रहता है। इन प्रत्यक्ष लाभों की आकर्षक शक्ति ने ही मनुष्य को धर्म के साथ बाँध रखा है अन्यथा यह स्वार्थी जीव कब का धर्म को धता बता चुका होता।

जहाँ श्रेष्ठता होती है वहाँ कुछ बुराई भी घुस जाती है। धर्म पालन को लोग बहुत ही महत्वपूर्ण समझते है और उसके लिए त्याग भी करते है यह देखकर स्वार्थ परता-जो कि हर एक क्षेत्र में पाई जाती है-जागृति हुई और अनुचित रूप से व्यक्तिगत लाभ उठाने के आडम्बर रचे गये। धर्म गुरुओं में जहाँ अधिकाँश श्रेष्ठ पुरुष थे और रक्षा करने वाले धर्म का उपदेश दिया करते थे, वहाँ कुछ ऐसे ओछी मनोवृत्ति के लोग भी गुरुओं में मिल गये जिन्होंने व्यक्तिगत लाभ की प्रेरणा से नकली बातों को धर्म में जोड़ दिया। कालान्तर में वह और नकली बातें एक दूसरे के साथ मिलकर ऐसी शक्ल में आ गई। आज यह पहचानने में कठिनाई होती है कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित है उसमें कितनी बातें असली और कितनी नकली हैं?

इस असली नकली के संमिश्रण के कारण परिस्थिति ऐसी बन गई है कि धर्म के नाम पर जो कार्य किये जाते हैं उनमें से बहुत से पुण्य और बहुत से पाप होते हैं। आज नकली की मात्रा असली से अधिक हो गई है इसलिए धर्म के नाम पर जो कुछ किया जाता है उसमें पुण्य का भाग कम और पाप का अधिक होता है। धर्म के निमित्त जो कुछ जमा करते हैं वह फूटे पैंदे के घड़े में होकर नीचे बह जाता है। फलतः अपनी सम्पूर्ण शक्ति का पाँचवा हिस्सा धर्म के लिए खर्च करते हुए भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, लाभ के बदले उलटी हानि दिखाई पड़ती है।

धर्म के नाम पर पलने वाले व्यक्ति और धर्म के नाम पर चलने वाले संस्थानों के कार्यों पर जब हम गंभीर दृष्टिपात करते है तो उनके द्वारा उन्नति की बजाय अवनति के तत्व अधिक दिखाई पड़ते है। धर्म जिनकी घर गृहस्थी का पूरा पूरा खर्च चलाता है उनसे यह भी आशा करता है कि बदले में वे लोक हित की साधना करें। जनता जिन लोगों का पेट पालती है, जिनके जीवन की रक्षा करती है उन्हें भी उचित है कि बदले में जनता की रक्षा का कार्य करे, यही तो धर्म है। नौकरी और दान में यह अन्तर है कि नौकर तो जितने पैसे लेता है उतना ही काम करके छुट्टी पा जाता है परन्तु दान लेने वालों की जिम्मेदारी अनेक गुनी है क्योंकि उसने पैसे के अतिरिक्त श्रद्धा को भी प्राप्त किया है इसलिये उसे नौकरी की अपेक्षा कई गुना अधिक काम करके धर्म की मर्यादा की रक्षा करनी है। इसी प्रकार धर्म के नाम पर चलने वाली संस्थाओं का कर्तव्य है कि यजमानों के हित साधन के लिए प्राप्त पैसे की अपेक्षा अनेक गुना काम करके दिखायें। परन्तु हम देखते है कि धर्म के नाम पर चलने वाले व्यक्ति और संस्थान दोनों ही इस कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त खरे नहीं उतरते। नकली कामों का फल भी नकली हो होगा।

इस युग की शिकायत है कि “हमारी पंचमाँश शक्ति को धर्म खा जाता है परन्तु बदले में झूठी कल्पनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं देता।” इस शिकायत के उत्तर में हमारा कथन है कि आप जिसको अपनी शक्तियाँ सौंप रहे हैं वह धर्म नहीं है। क्योंकि धर्म एक प्रकार की उर्वरा भूमि है जिसमें बोया हुआ बीज कई गुना होकर लौटता है। धर्म में “नकद” होने की विशेषता है। इस हाथ लेकर उस हाथ देने का उसमें स्वाभाविक गुण है। जो धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी अवश्यमेव रक्षा करता है। यदि किसी प्रकार का प्रत्युत्तर, प्रत्युपकार, प्राप्त न हो तो समझना चाहिए यह नकली चीज है। जिसमें न तो गर्मी हो न चमक वह अग्नि नहीं कही जा सकती है। इसी प्रकार रक्षा करने पर भी न तो सुख में वृद्धि करता है और न आपत्तियों से रक्षा करता है वह धर्म नहीं है। यदि हम लोग वास्तविक धर्म की उपासना करते होते तो आज पतित, पराधीन, बीमार, बेकार और तरह तरह से दीन हीन होते । धर्म के साधक की यह दुर्गति तीन काल में भी नहीं होती । बहुत कुछ खोने के पश्चात बहुत कुछ ठोकरें खाने पश्चात् अब हमें होश में आना होगा और उस वास्तविक धर्म को ढूँढ़ना होगा जिसकी शरण में जाने से मनुष्य की सब प्रकार की आधि व्याधि मिट जाती है, सब प्रकार के क्लेश कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।

धर्म और अधर्म की व्यवस्था करते हुए पंचाध्यायी में एक बहुत महत्व पूर्ण श्लोक कहा गया है -

शक्तिः पुण्य पुण्य फलं सम्पच्च सम्पदः सुखम्।

अतोहि चयनं शक्तेर्यतो धर्मः सुखावहः॥

अर्थ- शक्ति पुण्य है, पुण्य का फल वैभव है। और वैभव से सुख प्राप्त होता है। इसलिए निश्चय से शक्ति का संचय सुखकारक धर्म माना गया है।

उपरोक्त श्लोक में सच्चे धर्म का असली मर्म खोलकर रख दिया गया है। जिससे अपनी-अपने समाज की शक्ति बढ़ती है वह धर्म है। विद्या स्वास्थ्य, धन, प्रतिष्ठा, पवित्रता, संगठन, सच्चरित्रता यह सात महावत माने गये है, जिन कार्यों से इन सात माँगो में अपनी या अपने समाज की उन्नति होती हो धर्म साधना के निमित्त उन्हीं कार्यों को करना अपनाना चाहिए। स्वयं इन सातों बलों को अपने पास एकत्रित करना धर्म कर्तव्य समझ कर सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए और महा सम्पत्तियाँ दूसरों को भी प्राप्त हों इसके लिए परोपकार भावना के साथ उद्योग करना चाहिए। ऐसी सभा संस्थाओं का स्थापन संचालन और सहयोग करना चाहिए जो स्वास्थ्य की उन्नति करती हो, जिनके द्वारा ज्ञान की वृद्धि होती हो, आर्थिक दशा सुधरती हो, गंदगी, मलीनता, कुरुचि हटती हो, मेल, ऐक्य भ्रातृभाव बढ़ता हो तथा सद्गुणों में सदाचार में न्याय में उन्नति होती हों। बलों की वृद्धि करना ही धर्म साधना का प्रधान कार्य है। रक्षा करने का एक मात्र हथियार ‘बात’ है। धर्म का गुण रक्षा करना माना जाता है। इसलिए वे ही कार्य धर्म ठहराये जा सकते है जिनके द्वारा हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक बल बढ़ता हो, उन्नति होती हो, सुख बढ़ता हो और आत्म रक्षा की क्षमता प्राप्त होती हो।

जो व्यक्ति उपरोक्त प्रकार के कामों में जितने परिश्रम और लगन के साथ जुटे हुए हों उन्हें उतना ही बड़ा धर्मात्मा मानना चाहिए। इसी तरह के व्यक्तियों को और कार्यों को बढ़ाने के लिए अपना प्रभाव समय और पैसा लगाना चाहिए। वास्तविक धर्म यही है। इसी मर्यादा में वे लोग भी आ जाते है जो किसी विपत्ति में फँस गये है। अपाहिज, असमर्थ, बालक, वृद्ध आदि ऐसे लोग जो अपनी शक्ति से अपना जीवन यापन स्वयं नहीं कर सकते तथा ऐसे लोग जो आकस्मिक विपत्ति में पड़ गये हैं जैसे बाढ़ अकाल, चोट, दुर्घटना, रोग अन्याय, आदि के सताये हुए। इन असमर्थों और पीड़ितों की सहायता करना भी मनुष्य का कर्तव्य है, ऐसे कर्तव्य पालन को दया धर्म कहते है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि अपनी उदारता से कही निठल्ले, बदमाश और ढोंगियों को सहायता न मिलती हो ऐसे लोगों की सहायता करना उनके निठल्लेपन, बदमाशी और ढोंग को और अधिक प्रोत्साहन देना है जो कि एक प्रकार का पाप ही है। ऐसी सहायता देने वाले को उलटा पाप लगता है। भिक्षा एवं दान के ऊपर जीवन निर्वाह करने का अधिकार अपाहिजों और लोक सेवी व्यक्तियों को है। पीड़ितों को उतनी मात्रा में सहायता लेने का हक है जिससे वे फिर अपने पांवों पर खड़े हो जावें। इसके अतिरिक्त और किसी को भी न भिक्षा लेनी चाहिए और देनी चाहिए। ईश्वर भजन व्यक्तिगत आवश्यकता है, जैसे भोजन करना, पानी पीना, स्नान करना, आदि। कोई आदमी इसलिए भिक्षा नहीं माँगता कि मैं भोजन करता हूँ। पानी पीता हूँ, स्नान करता हूँ, शौच जाता हूँ, यह तो हर आदमी के दैनिक कर्तव्य हैं जिन्हें करने के लिए किसी पर अहसान जताने की या धर्मात्मा बनने की जरूरत नहीं पड़ती। कोई व्यक्ति अधिक समय तक भजन करता है, अधिक ईश्वर भक्त है तो यह इसकी व्यक्तिगत महत्ता है, उसका अपना निजी लाभ है। निजी लाभ को स्वर्ग मुक्ति कमाने में लगे हुए व्यक्ति दान या भिक्षा की आशा क्यों करें?

हमें सच्चे धर्म को पहचानने की और उसी की रक्षा करने की आवश्यकता है जिससे हमारी भी रक्षा हो। अज्ञान और आडम्बर के पर्दे को हटा कर हमें भगवान सत्य के दर्शन करने चाहिए। सत्य का अवलम्बन करने में ही धर्म है और धर्म के ऊपर ही हमारी वैयक्तिक एवं सामूहिक उन्नति तथा रक्षा निर्भर है। अपनी पंचमाश शक्ति का जिस दिन हम सच्चे धर्म के लिए उपयोग करने लगेंगे उसी दिन हमारे सौभाग्य सूर्य का उदय होना आरम्भ हो जायगा।

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