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Magazine - Year 1944 - Version 2

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सहृदयता में जीवन की सार्थकता

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रूखापन जीवन का सबसे बड़ा दुश्मन है। कई आदमियों का स्वभाव बड़ा नीरस, रूखा शुष्क, निष्ठुर, कठोर और अनुदार होता है। उनका आत्मीयता का दायरा बहुत ही छोटा और संकुचित होता है । उस दायरे से बाहर के व्यक्तियों तथा पदार्थों में उन्हें कुछ दिलचस्पी नहीं होती, किसी की हानि लाभ, उन्नति अवनति, खुशी रंज, अच्छाई बुराई से उन्हें कुछ मतलब नहीं होता। अपने अत्यन्त ही छोटे दायरे में स्त्री, पुत्र, तिजोरी, मोटर, मकान आदि में उन्हें थोड़ा रस जरूर होता है। बाकी की अन्य वस्तुओं के प्रति उनके मन में बहुत ही अनुदारता पूर्ण रुखाई होती है। कोई कोई तो इतने कंजूस होते है कि अपने शरीर के अतिरिक्त अपनी छाया पर भी उदारता या कृपा नहीं दिखाना चाहते। इससे भी महान कंजूस इतने बड़े चढ़े होते है कि ये कंजूसी में ही तन्मय हो जाते है, आत्मा के साथ कृपा करना तो दूर शरीर के साथ में भी उदारता दिखाना नहीं चाहते। अच्छे भोजन, अच्छे वस्त्र, अच्छे मकान आदि आवश्यक वस्तुओं में भी आवश्यकता से अधिक कठोरता करते है। ऐसे रूखे आदमी यह समझ ही नहीं सकते कि मनुष्य जीवन में कोई आनन्द भी है, अपने रूखेपन के अत्युत्तर में दुनिया उन्हें बड़ी रूखी, नीरस, कर्कश, खुदगर्ज, कठोर और कुरूप मालूम पड़ती है।

रूखापन जीवन की बड़ी भारी कुरूपता है रूखी रोटी में क्या मजा है, रूखे बाल कैसे खराब लगते है, रूखी मशीन में बड़ी आवाज होती है और पुर्जे जल्दी ही टूट जाते है रूखे रेगिस्तान में जहाँ रेत का सूखा हुआ समुद्र पड़ा है कौन रहना पसंद करेगा। वैसे तो प्राणिमात्र ही विशेष रूप से ऐसे तत्वों से निर्मित है जिसके लिए सरसता की, स्निग्धता की, आवश्यकता है। मनुष्य का अन्तःकरण रसिक है, कवि है भावुक है सौंदर्य उपासक है, कला प्रिय है प्रेम मय है। हृदय का यही गुण है, सहृदयता का अर्थ कोमलता, मधुरता,आर्द्रता है जिसमें यह गुण नहीं उसे हृदय हीन कहा जाता है। हृदय हीन का तात्पर्य है जड़ पशुओं से भी नीचा। नीतिकार का कथन है कि “संगीत साहित्य कला विहीन साक्षात पशुः पुच्छविषाण हीनः” इस उक्ति में कला विहीन-नीरस मनुष्य को पशुओं से भी नीचा ठहराया गया है क्योंकि पशुओं में तो सींग पूछ की दो विशेषताएं तब भी है उस मनुष्य में तो इसका भी अभाव है।

जिसने अपनी विचार धारा और भावनाओं को शुष्क, नीरस और कठोर बना रखा है, वह मानव जीवन के वास्तविक रस का आस्वादन करने से वंचित ही रहेगा । उस बेचारे ने व्यर्थ ही जीवन धारण किया और वृथा ही मनुष्य शरीर को कलंकित किया। आनन्द का स्त्रोत सरसता की अनुभूतियों में है। परमात्मा को आनन्द मय कहा जाता है। क्यों?- इसलिए कि वह सरस है, प्रेम मय है । श्रुति कहती है- “रसोवैसः” अर्थात्-वह परमात्मा रस मय है । भक्ति द्वारा प्रेम द्वारा-परमात्मा को प्राप्त करना संभव बताया गया है। निस्संदेह जो वस्तु जैसी हो उसको उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। परमात्मा दीनबन्धु करुणासिन्धु, रसिक बिहारी, प्रेम का अवतार, दया निधान, भक्त वत्सल है। उसे प्राप्य करने के लिए अपने अन्दर वैसी ही लचीली, कोमल, स्निग्ध, सरस भावनाएं पैदा करनी पड़ती है। भगवान भक्ति के वश में है जिनका हृदय कोमल है, भावुक है, परमात्मा उनसे दूर नहीं है

आप अपने हृदय को कोमल, द्रवित, पसीजने वाला, दयालु, प्रेमी और सरस बनाइए। संसार के पदार्थों में जो सरसता का सौंदर्य का अपार भण्डार भरा हुआ है उसे ढूँढ़ना और प्राप्त करना सीखिए। अपनी भावनाओं को जब आप कोमल बना लेते है तो आपके अपने चारों ओर अमृत झरता हुआ अनुभव होने लगता है। जड़ वस्तुओं पर दृष्टि डालिए हर एक वस्तु अपने-2 ढंग की अनूठी है, वह अपने कलाकार की अमर कीर्ति का अपनी मूकवाणी द्वारा बड़ी ही भावुक भाषा में वर्णन कर रही है । मखमल सी घास, दूध के फेन से उज्ज्वल नदी नाले हँसते हुए पुष्प, खिलौने से सुन्दर कीट पतंग माता सी दयालु गौएं, भाई से साथी बैल, वफादार सेवक से घोड़े, स्वामिभक्त कुत्ते, जापानी खिलौने से चलते फिरते पक्षी, आप अपने चारों ओर देख सकते है। सिनेमा की सी चलती बोलती तस्वीरें सब तरफ घूम रही है, नाटक का सा अभिनय स्थान स्थान पर हो रहा है। प्रकृति के कोमल दृश्यों का कवित्व मय भावुकता के साथ यदि आप निरीक्षण करें तो सर्वत्र सौंदर्य की अजस्र धारायें बहती हुई दिखाई देगी। तस्वीर सा यह सुन्दर संसार आपके दिल की मुरझाई कली को हरी कर देने की परिपूर्ण क्षमता रखता है। भोले भाले मीठी मीठी बातें करते हुए बालक, प्रेम की प्रतिमायें देवियाँ, करुणामय मातृत्व की मूर्तियाँ माताएं, अनुभव ज्ञान और शुभ कामनाओं के प्रतीक वृद्ध जन, यह सब ईश्वर की ऐसी आनन्दमय विभूतियाँ है जिन्हें देखकर मनुष्य का हृदय कमल के पुष्प के समान खिल जाना चाहिए। पग पग पर आनन्द और उल्लास के ढेर हमारे सामने लगे हुए है, इन दिव्य तत्वों के द्वारा हम अपने को रात दिन आनन्द में सराबोर रख सकते है, फिर भी हाय! हम कैसे अभागे है कि जीवन को दुख शोकों से भरा रखते हैं। मनुष्य अपनी कोमल भावनाओं को जैसे जैसे जागृत करता जाता है वैसे ही उसे अमृत तत्व का रसास्वादन होने लगता है जिसके लिए सत चित आनन्द स्वरूप आत्मा इस हाड़ माँस कि शरीर में रहने को रजामन्द हुआ है, जिसके लोभ को संवरण न करके उसके मनुष्य शरीर धारण किया है। जीवन की सार्थकता कोमल वृत्तियों के मधुरता का रसास्वादन करने में है।

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