
कोई उलझन को सुलझादे
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(श्री अमरनाथ सिंह चौहान)
(1)
कौन आह! जो जीवन की इस उलझन को सुलझा दे;
मेरी इस असीम जड़ता में नव-नव स्फूर्ति जगा दे?
रे कितना क्रन्दन तड़पन है कितना है उन्माद!
जगतीतल पर संघर्षमय है कितना विषम विषाद!
मेरे निष्प्रभ नील गगन में आशालोक दिखा दे!
कोई उलझन को सुलझा दे!
(2)
मैं उद्भ्रान्त श्रान्त उन्मत्त हूँ, मेरा पथ अज्ञात;
खोज रहा हूँ नीरव निशि में अपना स्वर्ण-प्रभात!
दूर देश का पथिक कहाँ है, जीवन-पथ दिखला दे!
कोई उलझन को सुलझा दे!
(3)
कितना अरे प्रवंचनमय है यह निर्मम व्यापार;
आज लाँच्छना से परिवेष्टित-है विस्मित संसार!
दुरभिसन्धि से आकुल उर में विस्मृति गान सुना दे!
कोई उलझन को सुलझा दे!
(4)
मेरी अलसाई आँखों की वह प्रतिभा साकार!
कहाँ छिपी है, किस निर्जन में ले अतीत का प्यार?
वह स्वप्निल सुकुमार हृदय का टूटा तार बजा दे!
कोई उलझन को सुलझा दे!
(5)
अंतर्जग में आज प्रज्वलित विरहानल का ज्वाल-
उठती हैं जीवन में लहरें आज प्रबल उत्ताल!
मेरी नव्य-उमंगों में अब प्रिय अनुराग जगा दे!
कोई उलझन को सुलझा दे!!
*समाप्त*