
चिर बन्धन या तलाक?
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(श्रीमती रत्नेश कुमारी जी नीराँजना)
हम कौन थे? क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी? आओ, विचारे आज मिलकर ये समस्यायें सभी॥
-भारत भारती
उपनिषद् में एक कथा वर्णित है कि प्रजापति ब्रह्मा से देवताओं तथा दानवों के सम्राट आत्मज्ञान का उपदेश लेने गये। सौ वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य से रहने के पश्चात दोनों को प्रजापति ने आज्ञा दी कि सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर देखो वही तुम्हारा आत्मा है। दानवेन्द्र को तो सन्तोष हो गया और दानवों में उन्होंने इसी देहात्मवाद का प्रचार किया, पर देवेश को संतोष न हुआ। दो बार और ब्रह्मचर्यदिक नियमों का सौ-सौ वर्ष तक पालन करके उन्होंने अपनी समस्त शंकाओं का समाधान प्राप्त करके यथार्थ तत्व प्राप्त किया।
आत्म विवेचन करने के समय साधक के सामने अनेक भ्रम आते हैं, उनका खण्डन करने के पश्चात यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है क्या शरीर ही मैं हूँ? क्या मन ही मैं हूँ? क्या बुद्धि ही मैं हूँ? अथवा इन तीनों की संयुक्तता ही मेरा आस्तित्व है? ये ही समस्याएं देवेन्द्र के सन्मुख आयी थीं और उन्होंने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक उनको सुलझाया। फिर यथार्थ ज्ञान प्रजापति से पाकर देवताओं में प्रचार किया। दैवी सभ्यता का यही यथार्थ ज्ञान हमारी आर्य संस्कृति का मूल तत्व है। किसी भी कार्य के ग्रहण अथवा त्याग की सदैव यही कसौटी रही है कि सर्वप्रथम तो ये देखे आत्मा की उन्नति अथवा कल्याण के लिये कितना लाभदायक है? पश्चात बुद्धि तथा मन के लिये तत्पश्चात शरीर को।
आजकल अधिकतर भारतीयों के विचार आसुरी सभ्यता (देहात्मवाद) की ओर झुक रहे हैं। वे किसी भी कार्य को ग्रहण अथवा त्याग करते समय शारीरिक सुख पर प्रथम दृष्टिपात करते तथा प्रधान स्थान देते हैं। वैवाहिक सम्बंध को भी उसी मूल सिद्धाँत के अनुसार आर्य संस्कृति मत से दो आत्माओं मन, बुद्धियों तथा शरीरों के एकत्व को विवाह मानते थे, पर आधुनिक काल में आत्मिक मिलन का क्रियात्मक अनुभव रखने वाले तो उंगलियों पर गिनने योग्य ही मिल सकेंगे। आजकल की विवाह की उच्चतम परिभाषा यही समझी जाती है कि दो हृदय सदैव के लिये एक हो जाएं।
पर पतन की ओर हमारा बढ़ना रुका नहीं है जारी ही है। कुछ भारतीय लोग भारत में तलाक प्रथा लाने का प्रयत्न कर रहे हैं यह प्रथा हमें पूर्णतया पतन के गड्ढे में गिरा देगी, तब अन्य देशों के समान हमारे यहाँ भी यही विवाह की साधारण परिभाषा बन जायेगी कि मन की क्षणिक भाप हिलोरों में बहकर एक दूसरे पर कुछ दिनों के लिये ही क्यों न हो, मुग्ध हो जाना एक दूसरे के अधिकतर निकट रहने की लालसा ही विवाह रूपी महल की आधार शिला है।
देहात्मकवाद रूपी दानव अपनी ‘तलाक बिल’ रूपी भुजाओं को बढ़ाये हमारी चिरकालीन आर्य संस्कृति नष्ट करने को बढ़ा आ रहा है, यदि हम सचेत न हुए, हमने अपने भूले हुए अमूल्य आदर्शों को न अपनाया, विवाह को तन, मन, आत्मा का चिर बन्धन न माना, अपने जीवन साथी से अभिन्न संबंध न स्थापित कर सके तो हमारे गृह कुविचारों से नर्क (यातना केन्द्र) बन जायेंगे। यदि हमारे हृदय में अपने जीवन साथी के लिए अभिन्नता का भाव प्रेम, विश्वास, सद्भावनायें, सहनशक्ति तथा स्वार्थ त्याग की इच्छा है तो हमारा घर में दैवी भावनायें स्वर्ग बनाये बिना रह ही नहीं सकती है। इसके विपरीत आसुरी सम्पत्ति के व्यक्तियों के मन में असन्तोष, क्रोध, घृणा, ईर्ष्यादिक नरकाग्नियों से जलाये बिना नहीं मानेंगे।
विष्णु पुराण में लिखा है, विशाल ब्रह्माण्ड के ही भाँति प्रत्येक गृह में भी एक विष्णु (गृह स्वामी) तथा एक लक्ष्मी (गृह स्वामिनी) होती है, वे ही उसमें सृष्टि (सन्तान) उत्पन्न करते हैं तथा पालन करते हैं और उस गृह के समस्त व्यक्ति के शासन, सुख, सुविधा आदिक गृह को व्यवस्थित रूप में चलाने वाले सभी कार्यों के उत्तरदायित्व का भार उन्हीं के ऊपर रहता है। कितनी सुन्दर भावना है जहाँ लक्ष्मी और विष्णु निवास करते हैं वही स्थान तो स्वर्ग होता है, आइये हम पुनः एक बार इस भावना को अपने हृदय में बसायें।
ये भावना कितनी उपयोगिनी है। यदि कोई पति सच्चे हृदय से अपनी जीवन संगिनी को लक्ष्मी समझे तो क्या वह भूल कर भी दुर्व्यवहार या उपेक्षा कर सकेगा? कोई पत्नी सम्पूर्ण हृदय से अपने चिरसंगी को यदि देवता माने तो स्वप्न में भी मन में दुर्भाव अथवा वाणी से वाक्य वाणों की निर्मम वर्षा अथवा कठोर व्यवहार रख सकेगी? आप ही विचारिये इन सब दुखदायी कारणों के न होने पर क्या अपना गृह जीवन स्वर्ग नहीं बन जायेगा। एक बार गहराई से विचार कीजिए, दो में से क्या चुनेंगे? तलाक या चिर बंधन? नर्क या स्वर्ग?