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Magazine - Year 1946 - Version 2

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श्राद्ध का रहस्य

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हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डों में आधे से अधिक श्राद्ध तत्व भरा हुआ है। सूरज, चाँद, ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी, अग्नि, जल, कुआँ, तालाब, नदी, मरघट, खेत खलिहान, भोजन, चक्की, चूल्हा, तलवार, कलम, जेवर, रुपया, घड़ा, पुस्तक आदि निर्जीव पदार्थों की विवाह या अन्य संस्कारों में अथवा किन्हीं विशेष अवसरों पर पूजा होती है। यहाँ तक कि नाली या कूड़े तक की पूजा होती है। तुलसी, पीपल, वट, आँवला आदि पेड़-पौधे तथा गौ, बैल, घोड़ा, हाथी आदि पशु पूजे जाते हैं। इन पूजाओं में उन जड़ पदार्थों या पशुओं को कोई लाभ नहीं होता, परन्तु पूजा करने वाले के मन में श्रद्धा एवं कृतज्ञता का भाव जरूर उदय होता है। जिन जड़ चेतन पदार्थों से हमें लाभ मिलता है उनके प्रति हमारी बुद्धि में उपकृत भाव होना चाहिए और उसे किसी न किसी रूप में प्रकट करना ही चाहिए। यह श्राद्ध ही तो है। मृतकों का ही नहीं, जीवितों, जानदारों और बेजानों का भी हम श्राद्ध करते हैं। ऐसे श्राद्ध के लिये हमारे शास्त्रों में पग-पग पर आदेश है।

मरे हुए व्यक्तियों को श्राद्ध कर्म से कुछ लाभ होता है कि नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि-होता है, अवश्य होता है। संसार एक समुद्र के समान है जिसमें जल कणों की भाँति हर एक जीव है। विश्व एक शिला है तो व्यक्ति उसका एक परमाणु। हर एक आत्मा जो जीवित या मृत रूप से इस विश्व में मौजूद है अन्य समस्त आत्माओं से सम्बद्ध है। संसार में कहीं भी अनीति, युद्ध, कष्ट, अनाचार, अत्याचार हो रहे हैं तो सुदूर देशों के निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है। जब जाड़े का प्रवाह आता है तो हर चीज ठण्डी होने लगती है और गर्मी की ऋतु में हर चीज की उष्णता बढ़ जाती है, छोटा सा यज्ञ करने से उसकी दिव्यागन्ध तथा दिव्य भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुँचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शाँतिमयी सद्भावना की लहरें पहुँचाता है। यह सूक्ष्म भाव तरंगें सुगंधित पुष्पों की सुगंध की तरह तृप्ति कारक आनन्द और उल्लासवर्धक होती हैं, सद्भावना की सुगंध जीवित और मृतक सभी को तृप्त करती है। इन सभी में अपने स्वर्गीय पितर भी आ जाते हैं। उन्हें भी श्राद्ध यज्ञ की दिव्य तरंगें आत्मशाँति प्रदान करती हैं।

मर जाने के उपरान्त जीव का अस्तित्व मिट नहीं जाता वह किसी न किसी रूप में इस संसार में ही रहता है। स्वर्ग, नरक निर्देह, गर्भ, संदेह आदि किसी न किसी अवस्था में इस लोक में ही बना रहता है। इसके प्रति दूसरों की सद्भावनाएं तथा दुर्भावनायें आसानी से पहुँचती रहती हैं। स्थूल वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान तक देर में कठिनाई से पहुँचती है परन्तु सूक्ष्म तत्वों के संबंध में यह कठिनाई नहीं है उनका यहाँ वहाँ आवागमन आसानी से हो जाता है। हवा, गर्मी, प्रकाश, शब्द आदि को बहुत बड़ी दूरी पार करते हुए कुछ विलम्ब नहीं लगता। विचार और भाव इससे भी सूक्ष्म हैं वे उस व्यक्ति के पास जा पहुँचते हैं जिसके लिए वे फेंके जाय। सताये हुए व्यक्तियों की आत्मा को जो क्लेश पहुँचता है उसका शाप शब्द बेधी तीर या राकेट बम की तरह निश्चित स्थान पर जा पहुँचता है। सेवा, संतुष्ट, उपकृत, अहसानमंद, कष्ट उद्धरति व्यक्ति की सद्भावना, दुआ, वरदान, आशीर्वाद भी इस प्रकार उपकारी व्यक्ति के पास पहुँचते हैं जिसने कोई परोपकार किया है। कोई व्यक्ति जीवित हो या मृतक उसके पास जहाँ कहीं भी वह रहे लोगों के शाप, वरदान पहुँचते हैं उसे मालूम हो पावे या न हो पावे वे शाप, वरदान उसे दुख या सुख देने वाले परिणाम उसके सामने उपस्थित करते रहते हैं। इसी प्रकार कृतज्ञता की श्रद्धा की भावना भी उस व्यक्ति के पास पहुँचती है जिसके लिए वह भेजी जाती है। फिर चाहे वह स्वर्गीय व्यक्ति किसी भी योनि या किसी भी अवस्था में क्यों न हो। श्राद्ध करने वाले का प्रेम, आत्मीयता कृतज्ञता की पुण्य युक्त सद्भावना उस पिता आत्मा के पास पहुँचती है और उसे आकस्मिक, अनायास, अप्रत्याशित, सुख, शाँति प्रसन्नता, स्वस्थता एवं बलिष्ठता प्रदान करती है। कई बार कई व्यक्तियों को आकस्मिक, अकारण आनन्द एवं संतोष का अनुभव होता है संभव है यह उनके पूर्व संबंधियों के श्राद्ध का ही फल हो।

श्रद्धा- कृतज्ञता हमारे धार्मिक जीवन का मेरु दंड है। यह भाव निकल जाय तो धार्मिक समस्त क्रियाएं व्यर्थ, नीरस एवं निष्प्रयोजन हो जायेगी। श्रद्धा के अभाव में यज्ञ करना और भट्टी जलाना एक समान है। देव मूर्तियों और बालकों के खिलौनों में, शास्त्र श्रवण और कहानी कहने में, प्रवचनों और ग्रामोफोन के रिकार्डों में कोई अन्तर न रह जायेगा। अश्रद्धा एक दावानल है जिसमें ईश्वर, परलोक, कर्मफल, धर्म, सदाचार, दान, पुण्य, परोपकार, प्रेम, एवं सेवा सहायता पर से विश्वास उठता है और अन्त में अश्रद्धालु व्यक्ति अपनी छाया पर, अपने आप पर भी अविश्वास करने लगता है। भौतिक वादी नास्तिक दृष्टिकोण और धार्मिक आस्तिक दृष्टिकोण में प्रधान अन्तर यही है। भौतिकवादी नीरस, शुष्क, कठोर दृष्टिकोण वाला व्यक्ति स्थूल व्यापार बुद्धि से सोचता है, वह कहता है पिता मर गया-अब उससे हमारा क्या रिश्ता जहाँ होगा अपनी करनी भुगत रहा होगा उसके लिए परेशान होने से हमें क्या मतलब? इसके विपरीत धार्मिक दृष्टि वाला व्यक्ति स्वर्गीय पिता के अपरिमित उपकारों का स्मरण करके कृतज्ञता के बोझ से नत मस्तक हो जाता है, उस उपकार मयि स्नेह मयि देवोपम स्वर्गीय मूर्ति के निस्वार्थ प्रेम और त्याग का स्मरण करके उसका हृदय भर जाता है। उसका हृदय पुकारता है ‘स्वर्गीय पितृ देव तुम सशरीर यहाँ नहीं हो, पर कहीं न कहीं इस लोक में आपकी आत्मा मौजूद है। आपके ऋण भार से दबा हुआ मैं बालक आपके चरणों में श्रद्धा की अंजुली चढ़ाता हूँ।’ इस भावना से प्रेरित होकर वह बालक जल की अंजुली भर कर तर्पण करता है।

तर्पण का वह जल उस पितर के पास नहीं पहुँचा वहीं धरती में गिर कर विलीन हो गया, यह सत्य है, यज्ञ में आहुति दी गई सामग्री जल कर वहीं खाक हो गई यह भी सत्य है, पर यह असत्य है कि ‘इस यज्ञ के तर्पण से किसी का कुछ लाभ नहीं हुआ।’ धार्मिक कर्मकाण्ड स्वयं अपने आप में कोई बहुत बड़ा महत्व नहीं रखते, महत्वपूर्ण तो वे भावनाएं हैं जो उन अनुष्ठानों के पीछे काम करती हैं। मनुष्य भावनाशील प्राणी है। दूषित तमोगुणी, नीच भावनाओं को ग्रहण करने से वह असुर, पिशाच, राक्षस एवं शैतान बनता है और ऊंची सात्विक, पवित्र, धर्ममयि भावनायें धारण करके वह महापुरुष, ऋषि, देवता अवतार बन जाता है। यह भावनाएं ही मनुष्य को सुखी, समृद्ध, स्वस्थ, सम्पन्न, वैभवशाली, यशस्वी, पराक्रमी तथा महान बनाती है और इन भावनाओं के कारण ही मनुष्य दुखी, रोगी, दीन, दास, तिरष्कृत तथा तुच्छ हो जाता है। शारीरिक दृष्टि से लगभग सभी समान एक से ही होते हैं उनके बीच जो जमीन आसमान का अन्तर दिखाई पड़ता है यह भावनाओं का ही अन्तर है। धार्मिक दृष्टिकोण, सद्भावनाओं, सात्विक, परमार्थिक वृत्तियों को ऊंचा उठाता है, धार्मिक कर्मकाण्डों का आयोजन इसी आधार पर है, धर्म, हृदय का ज्ञान है। अन्तरात्मा में सतोगुणी तरलता उत्पन्न करना धर्म का, धार्मिक कर्मकाण्डों का मूल प्रयोजन है। समस्त कर्मकाण्डों की रचना का यही आधार है। स्थूल व्यापार बुद्धि से धार्मिक कृत्यों और भावों की उपयोगिता किसी की समझ में आवे चाहे न आवे पर सूक्ष्म दृष्टि से उनका असाधारण महत्व है। इन कर्मकाण्डों में कुछ समय और धन अवश्य खर्च होता है पर उसके फलस्वरूप वे तत्व प्राप्त होते हैं जो मनुष्य प्रेरणा केन्द्र का निर्माण करते हैं। उसके अंतरंग तथा बहिरंग जीवन को सुख-शाँति से पूरित करते हैं।

ब्राह्मणत्व रहित, विद्या, विवेक, आचरण त्याग, तपस्या से रहित, वे व्यक्ति जो शूद्रोपम होते हुए भी वंश परम्परा के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं, उन्हें श्राद्ध का या अन्य किसी प्रकार दान प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। श्राद्ध के निमित्त किया हुआ दान या भोजन उन्हीं सच्चे ब्राह्मणों को दिया जाना चाहिये जो वस्तुतः उसके अधिकारी हैं। श्रुतियों में कहा गया है कि ब्राह्मण अग्निमुख है उसमें डाला हुआ अन्न देवता एवं पितरों को प्राप्त होता है, उससे विश्व का कल्याण होता है परन्तु वे ब्राह्मण होने चाहिये अग्निमुख, त्याग, तपस्या, विद्या और विवेक की यज्ञ अग्नि जिनके अन्तःकरण में उज्ज्वलित है वही अग्निमुख है। अग्नि में न डालकर कीचड़ में यदि हवन सामग्री डाली जाय तो कुछ पुण्य न होगा, इसी प्रकार अग्निमुख ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्यों को दिया हुआ दान भी निरर्थक होता है। शास्त्र का मत है कि कुपात्रों को दिया हुआ दान दाता को नरक में ले जाता है।

श्राद्ध करना चाहिये जीवितों का भी, मृतकों का भी। जिन्होंने अपने साथ में किसी भी प्रकार की कोई भलाई की है उसे बार-बार प्रकट करना चाहिये क्योंकि इससे उपकार करने वालों को संतोष तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। वे अपने ऊपर अधिक प्रेम करते हैं और अधिक घनिष्ठ बनते हैं, साथ-साथ अहसान स्वीकार करने से अपनी नम्रता एवं मधुरता बढ़ती है। उपकारों का बदला चुकाने के लिये किसी न किसी रूप में सदा ही प्रयत्न करते रहना चाहिये जिससे अपने ऊपर रखा हुआ ऋण भार हल्का हो। जो उपकारी, पूजनीय एवं आत्मीय पुरुष स्वर्ग सिधार गये हैं उनके प्रति भी हमें मन में कृतज्ञता रखनी चाहिए और समय-समय पर उस कृतज्ञता को प्रकट भी करना चाहिए। जल की एक अंजली, दीपक या पुष्प से भी श्राद्ध किया जा सकता है। श्राद्ध में भावना ही प्रधान है। श्रद्धा भावना का हमें कभी परित्याग न करना चाहिए। श्रद्धा की परम्परा समाप्त हो जाने पर तो पिता को कैद कर लेने वाले शाहजहाँ ही चारों ओर दृष्टि गोचर होने लगेंगे।

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