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Magazine - Year 1946 - Version 2

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सद्गुणों का संतुलन कीजिए।

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(श्री दौलतराम जी कटरहा बी.ए. दमोह)

मानव जीवन अत्यंत रहस्यमय है। महान से महान व्यक्तियों में जहाँ अनेक सद्गुण पाये जाते हैं वहाँ ढूँढ़ने पर उनमें कुछ भद्दे दुर्गुण भी मिल जाते हैं। मनुष्य का जीवन ही ऐसा है कि जब वह कुछ सद्गुण प्राप्त करता है तो उसे कुछ दुर्गुण भी अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं, जिनकी कि उसे कुछ खबर भी नहीं होती।

मान लीजिये एक व्यक्ति धन संचय करने में प्रयत्नशील है और वह अपना सारा समय धनार्जन में लगाता है। फलस्वरूप उसे विपुल धन-राशि की प्राप्ति होती है और तत्पश्चात् हमारे देखने में यह भी आता है कि धन के साथ उसे धन मद भी प्राप्त हो जाता है जिसकी उसे खबर भी नहीं होती। उसी तरह राजाओं के पीछे राज-मद, विद्वानों के पीछे विद्या-मद, ज्ञानियों के पीछे ज्ञान-मद, बलवानों के पीछे बल-मद, और कुलीनों के पीछे कुल-मद लग जाता है। जिसका सब जगह आदर सम्मान होता है, वह दूसरों को अपने से छोटा समझ बैठता है और यह स्वाभाविक भी है। जब क्लर्क न्यायाधीश को बड़ा समझता है तो न्यायाधीश के मुँशी को छोटा न समझना अत्यंत कठिन हो जाता है।

हमारे जीवन के व्यापार ही ऐसे हैं कि गुणों के साथ-साथ चुपके-चुपके दुर्गुण भी प्राप्त हो जाते हैं। अतएव जहाँ हम सद्गुणों का विकास करने के लिये सचेष्ट हों वहाँ हम उन सद्गुणों के साथ-साथ उनके सहारे ही चुपचाप चोरों की नाई घुस आने वाले दुर्गुणों की तरफ से असावधान, उदासीन तथा बेखबर भी न हो। जब हम ज्ञानार्जन अथवा द्रव्यार्जन कर रहे हों तब हम साथ ही साथ नम्रता का भी विकास करें, वैराग्य का भी विकास करें, अन्यथा वही धन हमारे पतन और हमारे नाश का कारण होगा।

महात्मा ईसा ने एक धनी सेठ को अपना सारा धन गरीबों को बाँट देने का आदेश दिया था। कहा था कि तभी वह स्वर्ग के साम्राज्य में प्रवेश कर सकेगा। महात्मा ईसा आज होते तो सम्भव है यही आदेश आजकल के विद्वानों को भी देते। स्वतंत्र विचारक कहलाने वाले और प्रत्येक सिद्धाँत के (भले ही वह बुद्धि के परे हो) तर्क रूपी कसौटी पर कसने वाले आजकल के उपाधिधारी विद्वान, जब तक अपने विद्या रूपी धन का मोह नहीं छोड़ते जब तक उनका विद्याभिमान नहीं जाता तब तक उन्हें सत्य तत्व की प्राप्ति असम्भव है।

दूसरी बात जो ध्यान देने की है, वह यह है कि जब हम किसी गुण का विकास करें तब इस बात का ध्यान रखें कि वह गुण अज्ञान के संयोग से दोष की सीमा तक न पहुँच जावे, दोष न बन जावे, आसक्ति, बंधन और मोह का कारण न हो जावे। हमें चाहिये कि आत्मविश्वास अपनी आत्म श्रद्धा को जाग्रत करें और अपनी शक्तियों और गुणों की श्रेष्ठता में विश्वास करें किन्तु हमें यह भी ध्यान रहे कि हमारा यह आत्मविश्वास अभिमान अथवा अहंकार का विकृत रूप न धारण कर ले। रावण, कर्ण और कौरवों का यह आत्मविश्वास ही था जिसे हम आज अभिमान कहकर पुकारते हैं।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमें मितव्ययी होना है, पर कंजूस नहीं। हम उदार हों पर अपव्ययी नहीं। हम सत्यवादी हों पर अप्रिय-भाषी नहीं। हम में प्रेम हो किन्तु मोह नहीं, आसक्ति नहीं। हम अपने कुटुम्बियों से प्रेम करें किन्तु साथ ही अनासक्त होने का भी प्रयत्न करें। हम उनके स्वास्थ्य की देखभाल रखें किन्तु चिंतित या दुखी न हो। हम में नम्रता और भक्ति हो किन्तु दासता नहीं। हमें चाहिए कि हम गुरु और वेद के वचनों में श्रद्धा रखें किंतु साथ-साथ हममें अंधश्रद्धा भी तो न हो। हममें बौद्धिक स्वातंत्र्य भी तो हो।

यूरोप में देशभक्ति की लहर उठी, उसने मृत प्रायः जातियों को जगा दिया, उनमें नव जीवन का संचार किया। किन्तु वह मर्यादित और संयत न होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध का कारण हुई, जिसके फलस्वरूप हम दो भयंकर यूरोपीय महायुद्धों को भी देख चुके हैं। हमें चाहिये कि हम अपने देशवासियों से प्रेम करें किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम अन्य देशवासियों से द्वेष करें। हम में विश्व बन्धुत्व की भावना होनी चाहिये।

हम अपने धर्म तथा धर्मावलम्बियों से प्रेम करें, उन्हें अच्छा समझें, किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि हम अन्य धर्मों तथा धर्मावलम्बियों से द्वेष करें, उन्हें हीन समझें। याद रखिये कि न तो आपको आत्म श्रेष्ठता (Superiority Complex) की ही भावनाएं चैन लेने देंगी और न अमरत्व (Inforiorty Complex) की भावनाएं ही। आपको तो एक मध्य मार्ग ही, अभिन्नता का मार्ग ही पकड़ना होगा। अतएव हमें सदा स्मरण रखना चाहिये कि जहाँ हम मन्दिरों को आदर की दृष्टि से देखें वहाँ हम मस्जिदों और गिरजाघरों का भी अपमान न होने दें।

हम जहाँ अपने दृष्टिकोण को अच्छा समझते हैं, वहाँ हमें दूसरे व्यक्तियों के दृष्टिकोणों का भी सम्मान करना चाहिये। तभी हम में वास्तविक उदारता होगी। यह ठीक है कि हम मातृभक्त हों, पितृ भक्त हों, किन्तु इसका यह अर्थ न लगाया जावे कि हम दावा करें कि हमारे माता-पिता ही सर्वश्रेष्ठ हैं। यह तो फिर अंध-भक्ति होगी और संघर्ष को जन्म देगी।

हमें मानसिक संतुलन के लिए समता की भी आवश्यकता है, किन्तु समता तो तभी आवेगी जब राग द्वेष आदि द्वन्द्वों का अभाव होगा। कल कण्ठ से राग और कर्कश स्वर से द्वेष हमें जहाँ कोयल से प्रेम करावेगा वहाँ काक से द्वेष भी। हम राग द्वेष त्यागें और मानसिक संतुलन प्राप्त करें।

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