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Magazine - Year 1946 - Version 2

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आत्म रक्षा का उपाय

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आज देश का वातावरण बड़ा क्षुब्ध और अशाँत है। द्वितीय महायुद्ध के दिनों में भय और आशंका का वातावरण रहता था। पर चूँकि युद्ध क्षेत्र दूर था और इसलिए बहुत अधिक व्याकुलता नहीं थी और सामूहिक आक्रमण होने पर उससे बचने के सामूहिक उपायों का ढाढ़स था आज उससे भिन्न अवस्था है। ‘फूट डालो और लूट खाओ’ की साम्राज्यवादी नीति ने साम्प्रदायिक मतभेद इस देश में पैदा किये और विभिन्न तरीकों से उन्हें प्रोत्साहित किया। आज वह विष बेल बढ़ते चारों ओर छा गई है। राजनैतिक महत्वकाँक्षाओं की अभीष्ट सिद्धि करने के लिए अगुआ लोग तनातनी और कटुता को बढ़ाते ही जा रहे हैं। इस अवांछनीय स्थिति के कारण साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ता जा रहा है। एक वर्ग जब निरन्तर घृणा, कटुता, उत्तेजना, द्वेष उगले तो दूसरा वर्ग कितना ही शाँतिप्रिय क्यों न हो उसकी प्रतिक्रिया से वंचित नहीं रह सकता। ढेला फेंकने पर शाँत तालाब में भी लहरें उठने लगती हैं। कुएं की आवाज के समान मनुष्य स्वभाव भी क्षोभ वान है। दूसरों के व्यवहार की प्रतिक्रिया से उत्तेजना उत्पन्न होने से मनुष्य अपने आपको बचा नहीं सकता। दूसरों के दुर्व्यवहारों से जो कष्ट और क्लेश मिलता है उससे बचने के लिए आत्मरक्षा की दृष्टि से भी दुर्व्यवहारों के विरोध में कुछ न कुछ उपाय करना पड़ता है। आक्रमण की प्रतिक्रिया भी होती है, कुचल जाने पर चींटी भी काटने को तैयार हो जाती है।

हिन्दू-मुस्लिम समस्या नाम की वास्तव में कोई समस्या नहीं है। इनमें आपसी रोटी बोटी के व्यवहार नहीं है, एक दूसरे से छूतछात भी मानती है। हिन्दू धर्म में अनेकों परस्पर विरोधी रीति रिवाज, विचार एवं मान्यताएं प्रचलित हैं फिर भी सब आपस में परस्पर प्रेम पूर्वक सदियों से साथ-साथ रहते हुए चले आ रहे हैं। सैंकड़ों जातियाँ, उप जातियाँ, सम्प्रदाय, मत मतान्तर, भाषा, भेष आदि का होना कभी कलह या पृथकता का कारण नहीं बना। महाराष्ट्र, पंजाब, मद्रास आदि के निवासियों में कई दृष्टियों से काफी अन्तर दिखाई पड़ता है पर उस अन्तर के कारण कोई किसी से न तो लड़ता झगड़ता है और न पृथकता का दावा करता है। एक दूसरे को दुश्मन समझने और छोटी-छोटी बातों की आड़ लेकर कोई किसी की जान का ग्राहक नहीं बनता। शाँतिप्रियता भारतीय संस्कृति का प्रधान अंग है।

भारत के हिन्दू और मुसलमानों में एक ही रक्त है। एक ही जाति और एक ही वंश के हैं। धर्म या मजहब को बदल लेने मात्र से आज का भाई कल दुश्मन या विदेशी नहीं हो सकता। धर्म व्यक्तिगत रुचि की वस्तु है, उसे बदला जा सकता है पर इतने मात्र से उस प्रकार की पृथकता के दावे नहीं किये जा सकते जैसे कि लीगी नेता आज कल कर रहे हैं।

आज के युग में कूटनीति का बोल बाला है। अपनी मनमानी करने के लिए चाहे जिस पर चाहे जैसे इल्जाम लगाकर सीधी-साधी जनता को भड़का कर विद्वेष और घृणा उत्पन्न करना और उन स्थितियों से लाभ उठाकर खुद नेता बन बैठना, आज की राजनीति का बेढ़व जादू है। इस जादूगरी ने सीधे साधे लोगों को दिक् भ्रम करा दिया है। भाई-भाई को दुश्मन मान बैठा है। एक दूसरे का गला काटने के लिए आक्रमण कटिबद्ध हो रहा है।

विगत कई वर्षों से साम्प्रदायिक दंगों का जोर पड़ा है। अभी हाल में अहमदाबाद, इलाहाबाद, कलकत्ता, बम्बई, ढाका आदि में जो दंगे हुए हैं, उसके रोमाँचकारी वृत्तान्तों को सुनकर कलेजा काँप उठता है। निर्दोष बालकों, वृद्धों, महिलाओं के साथ नृशंसता बरती गई उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है, मनुष्य जाति पशुता से अभी बहुत कम ऊपर उठ सकी है। जो लोग इस प्रकार की पशुता उभारते हैं, भड़काते हैं और उससे अपनी नेतागीरी को मजबूत बनाने जैसे नीच काम करते हैं उनको किन शब्दों में क्या कहा जाय यह समझ में नहीं आता।

घृणा और द्वेष का निरन्तर प्रचार और विस्तार करने वाले नेता चैन की छानते हैं और निर्दोष जनता को उसका घातक परिणाम भुगतना पड़ता है। कानून, लड़ने वालों को तो पकड़ता है पर लड़ाने वालों के विरुद्ध कुछ भी करने में अपने आपको असमर्थ पाता है। इस स्थिति को भारतीय जनता का दुर्भाग्य ही कह सकते हैं। भगवान इस बुद्धि से न जाने कब तक हमें पार करेंगे।

आज इस दुर्बुद्धि के कारण चारों ओर अशाँति, आशंका और भय का वातावरण छाया हुआ है। जिन नगरों में साम्प्रदायिक विद्वेष वृद्धि पर है वहाँ के शाँति प्रिय लोगों को आकस्मिक विपत्ति की आशंका हर घड़ी बनी रहती है। मुस्लिम लीग सीधी कार्यवाही के नाम पर लोगों से क्या कराने जा रही है इसका कुछ आभास तभी से लगने लगा है जब से लीगी नेता चंगेज खाँ को धमकी दे रहे हैं और ‘अहिंसा’ पर अविश्वास प्रकट कर रहे हैं। वर्तमान राजनैतिक घटना चक्र के कारण साम्प्रदायिक उपद्रवों की आशंका बहुत बढ़ गई है।

जनता की जान माल को गुंडागिरी के आक्रमण से बचावे यह सरकार का कर्त्तव्य है। पर साथ ही हमें स्वयं भी सतर्क, सावधान रहना चाहिए और आत्मरक्षा के लिए सभी शाँतिमय साधनों से अपने आपको प्रस्तुत रखना चाहिए। थोड़े से संगठित बदमाश, असंगठित विपुल जन समूह को आतंकित कर देते हैं। अक्सर दस पाँच गुण्डे उपद्रव आरंभ करते हैं, उस उपद्रव को देखकर सब लोग भाग खड़े होते हैं, बाजार बंद हो जाते हैं और लोग अपने अपने घरों में भागकर छुप जाते हैं। इस भगदड़ का वे मुट्ठी भर बदमाश लाभ उठाते हैं और लूटमार, अग्निकाण्ड, हत्या आदि के मनमाने उपद्रव निधड़क होकर करते हैं। उन्हें इस प्रकार का खुला अवसर देने का बहुत कुछ दोष इन भगदड़ करने वालों पर भी है। इस भगदड़ का कारण आपस में एक दूसरे के सहयोग पर अविश्वास होना है। एक निर्दोष व्यक्ति सताया जा रहा हो तो उसकी सहायता करने की बजाय चुप रहने या भागने का विचार बहुत ही अनैतिक है। निर्दोष की सहायता करना और आक्रमणकारी को रोकना यह हर एक विचारवान व्यक्ति का कर्त्तव्य है, बिना इस कर्त्तव्य का पालन किये संगठित गुंडागिरी को नहीं रोका जा सकता। इसलिए हर जगह इस प्रकार के संगठन किये जाने चाहिए कि दूसरों की परवाह न करके केवल मात्र अपनी सुरक्षा की तरकीब सोचने की अपेक्षा सामूहिक सुरक्षा के लिए तत्पर रहेंगे। अपनी-अपनी बात सोचने से कोई किसी की मदद को नहीं आता और सब पिटते हैं। सबके साथ-साथ खुद भी बच जाते हैं। अकेलेपन में जितनी हानि की आशंका है, सामूहिकता में वह बहुत कम हो जाती है।

प्रेम, सहयोग, सद्भाव, संगठन सदा ही अच्छे होते हैं क्योंकि यह अध्यात्मिक गुण हैं। पर आजकल साम्प्रदायिक अशाँति के दिनों में तो हम इन्हें पूरी तरह चरितार्थ करके अपने जान माल की बचत कर सकते हैं और साम्प्रदायिक उपद्रवकारियों के आक्रमणों से बच सकते हैं। सामूहिक चौकीदारी, सामूहिक स्वयं सेवा, सामूहिक रक्षा के लिए सदा तत्परता यह सामूहिकता का आध्यात्मिक कार्यक्रम शीघ्र से शीघ्र हमारे व्यवहारिक जीवन में प्रयुक्त होना चाहिए। आत्म रक्षा की शिक्षा उसके उपयुक्त साधनों का संग्रह तो आवश्यक है ही पर सबसे आवश्यक और सर्व प्रधान सामूहिक सहयोग की भावना है उसे हमें बढ़ाना चाहिए। इस संघ शक्ति की ढाल के नीचे से हम आततायी तत्वों से अपनी रक्षा कर सकते हैं। हमें अपने संगठन की आज सबसे अधिक आवश्यकता है।

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