
पातिव्रत-धर्म का मर्म
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(श्रीमती ब्रह्मवती देवी, वारा)
विवाह होने से पति तो मिले जाते हैं परन्तु पति की जिस लिए आवश्यकता होती है वह बात नहीं मिलती इसलिए आजकल के विवाह का उद्देश्य बेकार सा होता जा रहा है।
स्त्रियाँ देवी हैं, माता हैं यह कहा जाता है। शास्त्रों में स्त्रियों को “स्त्री समस्ता तवदेविभेदाः” देवियों को भेद विशेष ही बताया गया है तब जो शक्तियाँ देवियों में देखी जाती हैं और जिसके कारण उनकी मान्यता होती है वे सब तो आज की स्त्रियों में नहीं के बराबर होती हैं फिर स्त्रियों में कौन सा दोष घुस गया है जिसके कारण पुराने जमाने की स्त्रियाँ जैसी स्त्रियाँ आज नहीं पाई जातीं।
सुख पाना यही तो मनुष्य चाहता है लेकिन असली सुख को छोड़ कर जब मनुष्य नकली सुख के रास्ते पर चलना आरंभ कर देता है तो उसे असली सुख नहीं मिलता, आज के जमाने में इन्द्रियों को तृप्त करने में ही हम लोगों ने सुख मान रखा है। इन्द्रियाँ भोग से कभी तृप्त होती ही नहीं हैं जैसे जैसे भोग भोगे जाते हैं वैसे वैसे ही इन्द्रियों की लालसा बढ़ती जाती है। भागवत में भी इसी बात को कहा गया है-
“न जातु कामः कामनाँ उपभोगेन साभ्यति।”
इंद्रियां तृप्ति भोगों से नहीं होती वह तो संयम से मिलती हैं, ज्ञान से मिलती हैं, भक्ति से मिलती हैं, और इन्द्रिय तृप्ति का असली नाम ही सुख है। इस तृप्ति के लिए ही भगवान ने हम लोगों पर उपकार करके विवाह और पति की सृष्टि की है।
विवाह हो गया, पति भी मिल गये लेकिन सुख नहीं इसका एक मात्र कारण तो मैं यही समझी हूँ कि विवाह के पहले जो इन्द्रिय जन्म भोग की भावना जन्म से ही हम लोगों में संस्कारित की जाती है वह ही हमें न संयम से रहने देती है और न अपने धर्म को पालने देती है। धर्म और संयम के पास न रहने से हमसे अतृप्ति बढ़ती जाती है, यही दुःख का रूप धारण कर लेती है।
स्त्रियों को पातिव्रत धर्म के सिवाय दूसरा कोई धर्म सुखदाता नहीं होता, भक्त जैसे सब कुछ अपने देवता के लिए करते हैं, स्त्री भी जब अपने पति को परमात्मा मानकर अपना सब कुछ उसी के लिए करने लगती है तो यह सब कुछ करना पातिव्रत धर्म हो जाता है।
पति की सेवा, पति की आज्ञा पालन, पति की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझना और पति के हित में ही अपना हित मिला देना पातिव्रत-कर्म में शामिल होता है। जिस कर्म से बन्धन टूट जायं, उससे मुक्ति मिल जाय वही तो कर्म है। जो कर्म दुःख में घसीट ले जाय और संसारी बंधन में बाँध दे, बड़े-बड़े विद्वान, साधु संन्यासी योगी-यती उसे कर्म नहीं मानते। आज हम सब उसी के विपरीत तो अपना आचरण बनाये हुए हैं और इसीलिए भारी विपत्ति में पड़ी हुई हैं।
पहले समय में सावित्री जैसी सती हमीं लोगों में से तो थीं जिसने यमराज से लड़कर अपने पति को मरने से बचा लिया था। पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त कर लिया था। भारत की स्त्रियों की कितनी ही बातें इतिहास में लिखी हुई हैं जिनसे उनकी शक्ति और उनके सुख का पता मिलता है, वह सब उनके पातिव्रत धर्म का ही प्रभाव है। पुराणों में कथा है, महासती अनुसुइया ने अपने पति के कष्ट को देखकर अपने आश्रम के किनारे ही गंगाजी को बुला लिया था, चित्रकूट में आज भी वे गंगाजी मौजूद हैं।
जिस पति व्रत धर्म की इतनी महिमा बतलाई जाती है उसे या तो हम समझ नहीं पाती या अपने अज्ञान में इतनी भूली रहती हैं कि सब दुःख सहते रहने पर भी पातिव्रत धर्म रूपी बड़ी भारी दवाई की ओर झाँकती भी नहीं हैं।
धर्म के पालन में संस्कारों की जरूरत होती है, इसलिए कन्याओं में इस बात के संस्कार डालने की जरूरत है जिससे पति ही देवता, पति ही गुरु, पति ही धर्म और पति ही कर्म है, वे मानें। बच्चों पर माँ के संस्कारों का असर होता है। माँ जैसे रहती-करती-धरती है बच्चे भी उसी से अपना आचरण बनाते हैं। इसलिए अपनी कन्या का पतिव्रता बनाने के लिए माँ को भी पतिव्रत धर्म पालन करने की जरूरत होती है। माँ के ज्ञानवान होने से धर्म पालन की संभावना होती है। लेकिन कोरा ज्ञान भी अपना कोई असर नहीं करता। ज्ञान को जीवन में लाने या ज्ञान के अनुसार जीवन बनाने पर ही ज्ञानी होने की सार्थकता है।
जिसके पास ज्ञान होता है वह अपने हर एक काम के बाहरी भीतरी रूप को जानती है इसलिए भूलकर भी वह ऐसा कोई काम नहीं करती जो पति के कल्याण और उसकी उन्नति में बाधक हो। पति को खुश रखने की तो कोशिश करती है पर उसे ऐसे किसी भी रास्ते पर नहीं जाने देती जिससे उसका अहित हो। लेकिन वह उसका शासन नहीं करती, उस पर राज्य नहीं करती, अपनी प्रिय बोली, अपनी सेवा, अपने त्याग अपनी कर्तव्य परायणता और व्यवहार पटुता से वह पति को ऐसे रास्ते से लौटा लाती है जो कि उसे हानि करने वाला होता है। पत्नी की इस तरह की जागरुकता और पति के प्रति तन्मयता उसे इतनी शक्ति दे देती हैं जिससे कि वह यम से भी लड़ सकती है। पति को भगवान समझ कर स्त्री अपनी सोई हुई शक्ति को जगा लेती है। इससे वह दासी नहीं हो जाती। इससे तो वह अपने असली रूप को पालती है। वह पति की अंतर्शक्ति को जगाकर माता बन जाती है और स्त्री जन्म को सार्थक कर लेती है।
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