
दुःख से हमारा असीम उपकार होता है
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(साधु वेष में एक पथिक)
दुःख की अत्यन्त अद्भुत महिमा है। प्रायः मनुष्य दुःखों से डरते हैं, पर यह नहीं जानते कि इस संसार में यदि कोई आया तो सुख की माया में मुग्ध होकर ही आया और यहाँ जो कोई बन्धन से जकड़ा गया तो सुख की मादकता में मतवाला होकर ही जकड़ा गया, साथ ही यहाँ जो भी बन्धन से छूटा वह दुःखों की ही कृपा से छूट सका।
इस जगत की छद्मवेशी आकृति प्रकृति का यदि किसी को ज्ञान हुआ तो दुःख की ही दया से ज्ञान हुआ। पापी से कोई धर्मात्मा बना तो दुःख ही के शुभ मुहूर्त से उसने यात्रा की अज्ञान अन्धकार से यदि कोई ज्ञान प्रकाश की ओर वापस हुआ तो दुःख ने ही उसे लौटने का बल दिया।
दुःख की तो विशेषता ही यह है कि वह जीवन को शुद्ध करने आता है, विनाश पथ में जाने को, शुद्ध करने को, अमृत का मार्ग बताने आता है, अन्धकार में भूले हुओं को प्रकाश का ज्ञान कराने आता है। यह दुःख तो अधर्मी को धर्म की ओर, रागी को त्याग की ओर, द्वेषी को प्रेम की ओर, स्वार्थी को परमार्थ की ओर प्रेरित करने और पथ प्रदर्शन करने आता है।
बुद्धिमान पुरुष जब दुःख से होने वाले महत लाभ को समझ लेते हैं, तब वे दुःख के आते ही सावधान होकर अपने दोषों का गहराई से निरीक्षण करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि दोषों के हुए बिना दुःख आ ही नहीं सकता। दोषों की उत्पत्ति सुख के लोभवश होती है, और संसार में सुख का लोभ अज्ञानवश ही होता है।
यह अज्ञान दूर होता है ज्ञान से और ज्ञान की प्राप्ति विचार करने पर ही होती है, यह विचार की दृष्टि दुःख की दया से खुलती है।
दुःख सुख दोनों संसार की वस्तुएं हैं पर दुःख मनुष्य को संसार के प्रत्येक बन्धन से मुक्त करने का द्वार खोलता है जब कि सुख प्राणी को संसार में सभी प्रकार से बाँधता रहता है।
सुख से भोग में और दुःख से योग में प्रवृत्ति होती है। जहाँ यह सुख मनुष्य को विविध वैभव ऐश्वर्य में मन्दोन्मत बनाता है, जहाँ यह ऐहिक बल-विभूतिसम्पन्न जनों को अभिमानी कठोर बनाकर, झूठे परिवर्तनशील पदार्थों, स्वामित्व का भोगी बनाकर, रोगी और शक्तिहीन कर देता है, वहीं पर दुःख हर एक अभिमानी तथा मदोन्मत्त मानव के ऐश्वर्य वैभव और मद को अपने आघात से चूर्ण करते हुए उसे सरल एवं विनम्र बनाता है।
भयानक से भयानक पशु-प्रकृति-प्रधान मनुष्य के सुधार का शुभ मुहूर्त इस दुःख के द्वारा सत्वर प्राप्त हो जाता है। आलसी प्रमादी कर्तव्यपरायण, कंजूस को दानी, क्रोधी को दयालु क्षमाशील और कठोर को नम्र बनाने वाला दुःख ही है।
जब मनुष्य के अज्ञानजनित दोषों को शक्तिमान का भय नहीं दूर कर सकता, जब उन्हें सन्त-सद्गुरुदेव अपने उपदेश से भी नहीं मिल पाते, जब दोषों की अधिकता में वेद, शास्त्र, श्रुति, स्मृति की भी कुछ नहीं चलती, तब वहीं परमशक्ति की विलक्षण लीला से एकमात्र दुःख को ही सफलता प्राप्त होती है, जो दोषों को खोते हुए कभी थकता ही नहीं। अन्ततः दुःख की ही विजय होती है।
जिन दोषों के कारण दुःख का दर्शन होते हैं, उन दोषों को जब तक दुखी अपने भीतर देख पाता, तब तक दुःख के आने पर प्रायः वह दूसरों पर ही दोषारोपण करते हुए, दूसरों को ही अपने दुःख का कारण ठहराता है और स्वयं दुःखी होते हुए अपने समीपवर्तियों के पास भी दुःख भेजता रहता है। इस प्रकार एक दोष के दुःख से मुक्त न होते हुए नये दोषों को पहले दोष के द्वारा बढ़ाता रहता है। दुःख अज्ञानजनित दोषों को ही खाने आता है फिर भी यह न जानने के कारण दुःखी मनुष्य उसी दुःख को अपना काम पूरा नहीं करने देता, सुख की चाहना में जहाँ तक उपाय काम देते हैं वहाँ तक दुःख को दूर भगाता रहता है। इसी कारण दोषों के द्वारा दोषों की ही सृष्टि बढ़ाती है, पुनः नवीन नवीन दोषों को मिटाने के लिये दुःख का वार वार आगमन होता रहता है, क्योंकि दोष ही तो दुःख की खुराक है।
दुःखी को दुःखों से न डर कर दोषों से डरना चाहिये। दुःखों को हटाने की चेष्टा न करके दोषों को मिटाना चाहिए। जहाँ दोष न रहेंगे वहाँ दुःख कदापि न आयेगा। दोषों पर ध्यान न देना तथा दुःखों से डरना और सुखों के पीछे पागलवत् दौड़ना दुःखी की अज्ञानजनित भयानक भूल है।
दुःखी होकर दुःखों से मुक्त होने का उपाय करने वाले व्यक्ति वस्तुतः विचारहीन हैं। उन्हें फिर संसार बन्धन का भय नहीं होता। लेकिन अज्ञानी जन दुःखी होकर पुनः उसी सुख प्राप्ति की इच्छा से संसार की ही शरण लेते रहते हैं, जिस सुख के कारण ही ये दोषी बने हैं और दुःखी हैं।
संसार से मिलने वाले सुख के लिये अज्ञानी मनुष्य इतने दरिद्र होते हैं कि परस्पर अपने ही समान दूसरे प्राणियों को सुख के लोभवश अनेकानेक दुःख देते रहते हैं। परन्तु परिणाम यह होता है कि अपने ही दिये हुए दुःख के प्रत्यावर्तन से अधिकाधिक दुःख के भार से दबते ही जाते हैं।
कोई भी मनुष्य दोषों का अन्त किये बिना दुःख से रहित नहीं हो पाते। अपने दोषों को जानना और उन्हें दूर करना सौभाग्यवान पुरुषार्थी का ही काम है।
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