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Magazine - Year 1948 - Version 2

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(श्री. विद्याशंकर पट्टानी इंजीनियर, पूना)

विगत सात वर्षों से मैं ‘अखण्ड ज्योति’ के संपर्क में हूँ। इस बीच में कई बार मथुरा जाने का और ‘अखण्ड ज्योति’ कार्यालय में निवास करने का अवसर मिला है। कुल मिलाकर चार मास से अधिक समय तक मैं वहाँ रह चुका हूँ।

इन सात वर्षों में अत्यन्त बारीकी और सावधानी के साथ ‘अखण्ड ज्योति’ की क्रिया प्रणाली की परीक्षा करता रहा हूँ इस परीक्षण के आधार पर विश्वास पूर्वक यह कहा जा सकता है कि यह संस्थान मानव जाति के वास्तविक उत्कर्ष के लिए असाधारण कार्य कर रहा है।

‘अखण्ड ज्योति’ संस्थान को एक आध्यात्मिक अस्पताल कहा जा सकता है। अस्पतालों में अगणित प्रकार के रोगी आते हैं, इनमें से कुछ तो साधारण बीमारियों से पीड़ित होते हैं और अनेक ऐसे आते हैं जो भयंकर जीव-संकट में ग्रस्त हैं। जहर खाये हुए, साँप के काटे हुए, घायल, दुर्घटना ग्रस्त ऐसे रोगी आते हैं जिनका जीवन डॉक्टर की योग्यता और सतर्कता पर ही निर्भर रहता है। अस्पतालों में कुशल डाक्टरों द्वारा निस्संदेह अनेक रोगियों की भयंकर विपत्तियों को दूर किया जाता है। ‘अखण्ड ज्योति’ आध्यात्मिक अस्पताल है। यहाँ नाना प्रकार के मनोविकारों से ग्रस्त व्यक्ति अपने कष्टों से छुटकारा पाते हैं। शोक से संतप्त, चिन्ता से व्याकुल, क्रोध से झुलसते हुए, निराशा से खिन्न, कठिनाइयों में भयभीत, अज्ञान से अन्धे, लोभ से कातर, विषय वासनाओं से जकड़े हुए, भ्रम में उलझे हुए व्यसनों के दास अगणित व्यक्ति इस अस्पताल में प्रविष्ट होते हैं। इन रोगों के रोगी इतने दुखी होते हैं, इतनी विपन्न अवस्था में होते हैं कि यदि उनका उचित उपचार तुरन्त ही न हो तो वे अपने आपको ही नष्ट कर लेने तक सीमित न रहकर अन्य अनेकों व्यक्तियों को अपने कुकृत्यों से दुखी बना सकते हैं। हैजा, प्लेग, तपैदिक, खाज जैसे छूत रोगियों की तरह यह मनोविकार में फंसा कर उन्हें दुख के गर्त में डुबा सकते हैं। ऐसे रोगियों की चिकित्सा करना-उन्हें मनोविकारों से मुक्त करना हर किसी का काम नहीं है। इस दुस्साध्य कार्य को ‘अखंड ज्योति’ पूरा करती है। आचार्यजी का आकर्षक व्यक्तित्व, उज्ज्वल चरित्र, बालकों सा मृदुल स्वभाव, अगाध ज्ञान, ब्राह्मणोचित तप, तथा बुद्धि कौशल इतना सर्वांग पूर्ण है कि उस की छाया में आने के पश्चात् संभव नहीं कि कोई दुख संतत मनुष्य दुखी रह सकें। मैंने स्वयं अपनी आँखों ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों को ‘अखण्ड ज्योति’ संस्थान में देखा जो विपरीत परिस्थितियों या प्रभावों के कारण अपने आपको बड़ा दीन, दुखी, अभाग, नीच, पतित समझते थे और तात्कालिक किसी घटना के आवेश के कारण आत्म हत्या तक की तैयारी कर रहे थे पर जैसे ही आचार्य जी की छाया उन पर पड़ी कि उनकी विचार धारा कुछ से कुछ हो गई।

लोभी को करोड़ों रुपये देकर भी सन्तोष नहीं कराया जा सकता, कामी को सुरपुर की सारी अप्सराएं मिल जायं तो भी मन न भरेगा, क्रोधी के हाथ में वज्रदंड हो तो भी शान्ति से न बैठेगा, अज्ञान और भ्रम से जिसकी बुद्धि तमसाच्छन्न हो रही है उसको सीधी बातें उलटी दिखाई पड़ेंगी, इस प्रकार के मनोविकार ग्रस्त मनुष्यों को उनकी इच्छित वस्तुएं प्राप्त करा देने से उनके दुख को दूर नहीं किया जा सकता, आज की इच्छित वस्तु प्राप्त होने पर उनके मनोविकार फिर नई नई विचित्र आवश्यकताएं उत्पन्न करेंगे। और वे इतनी अमर्यादित होंगी कि उनकी पूर्ति असंभव होगी। इन उलझनों को सुलझाने का सही आधार तो मनुष्य के दृष्टि कोण का, उसके सोचने के तरीकों का; परिमार्जन करना ही हो सकता है। आचार्यजी यही करते हैं और यह होता है कि आते समय जो अपने को दुख दारिद्र से ग्रस्त समझते थे वे जाते समय सुख सौभाग्य से अपने को पूर्णतया सम्पन्न अनुभव करते हैं। इतना बड़ा दान कौन कर सकता है? याचकों को अयाचक बना देने की क्षमता आज किस दानी में है? पर मैंने अपनी आँखों देखा है कि ऐसा दान ‘अखण्ड ज्योति’ द्वारा वितरित होता है, यहाँ से असंख्यों दरिद्र अपनी खाली झोली लेकर दीनता पूर्वक कुछ माँगने आते हैं और लौटते समय आत्मज्ञान की महती सम्पत्ति पाकर अपने आपको कुबेर साधनी और इन्द्र सा सम्पन्न अनुभव करते हुए लौटते हैं मानसिक पीड़ाओं से झुलसने हुए व्यक्ति शान्ति के पालने में झूलते हुए वापिस लौटते हैं।

घटनाओं का वर्णन निरर्थक है। एक से एक विचित्र, दुखदायी, रोमाँचकारी, कौतूहल वर्धक, रहस्यपूर्ण, मनोरंजक, हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण घटनाओं के शिकार मनुष्य अपनी दुख गाथाएं लेकर, मुक्ति का मार्ग पाने के लिए आचार्य जी के पास आते हैं और देखा गया है कि कुछ असाध्यों को छोड़कर शेष सभी संतोष और प्रसन्नता के साथ वापिस लौटते हैं। ऐसा किस प्रकार हो जाता है? यह प्रश्न प्रायः आश्चर्य पूर्वक पूछा जाता है। लोग ऐसा सोचते हैं कि आचार्य जी के पास कोई जादू, वशीकरण मैस्मरेजम, तंत्र, योग या देवसिद्धि आदि की विद्या है जिसके बल से लोगों की बुद्धि को पलट देते हैं, पर मैं अपने इस लम्बे अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं है। आचार्यजी का उज्ज्वल चरित्र, ब्राह्मणोचित तप और सुलझा हुआ मस्तिष्क ही वह जादू है जिसके आगे बड़ी बड़ी औंधी खोपड़ी के मनुष्य सीधे हो जाते हैं। ऐसे संस्थान यदि भारतभूमि पर दस बीस भी हो जायं तो भारतीय संस्कृति गौरवमयी प्रतिष्ठा पुनरुत्थान होना कुछ भी कठिन नहीं है।

सत् का समर्थन और असत् का विरोध जहाँ न हो वहाँ मनुष्यता नहीं रहती। जिसे हम हानिकारक, बुरा, पापपूर्ण समझते हैं उसके नष्ट करने या निन्दा करने के लिए कुछ न करें तो यह स्पष्टता कर्तव्य की अवहेलना होगी। इसी प्रकार जो उचित है, उपयोगी है, कल्याणकारी है, आवश्यक है, उसके समर्थन और पोषण के लिए हमारी कोई क्रिया न हो तो वह श्रद्धा एवं सद्भाव नपुँसक हैं, ऐसी उदासीनता एवं उपेक्षा हमारी कर्तव्य बुद्धि को कलंकित करती है। ‘अखण्ड ज्योति’ द्वारा बहुत कुछ हो रहा है, जो हो रहा है वह महान है इतना कह देने मात्र से हमारा कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता। जो अच्छा है उसका सहयोग करना हमारा धर्म एवं कर्तव्य हैं।

‘अखण्डज्योति’ एक मशाल है, जनता के अगणित हृदय बुझे हुए दीपक हैं। इन दीपकों को मशाल से स्पर्श करा के उन्हें प्रज्ज्वलित किया जा सकता है और उनके प्रकाश से चंद्र और स्वर्णिम दीपावली का दृश्य उपस्थित हो सकता है। इस महती संभावना के लिए हम लोग एक कड़ी बन सकते हैं, मध्यस्थ का पार्ट अदा कर सकते हैं। जो लोग अभी तक ‘अखण्डज्योति’ से अपरिचित हैं, असम्बद्ध हैं उन्हें हम अपने प्रयत्न द्वारा परिचित या संबद्ध कर सकते हैं। इस प्रकार एक महान् यज्ञ में, युग निर्माण में, एक महत्व पूर्ण कार्य कर सकते हैं। हम चाहें तो दो चार व्यक्तियों को आसानी से ‘अखण्डज्योति’ का सदस्य बना सकते हैं।

यह कार्य कुछ भी कठिन नहीं है। कठिन है केवल अपनी उदासीनता और उपेक्षा को छोड़ना, हम अधूरे मन से झिझकते हुए बड़े संकोच के साथ, डरते डरते दबी जवान से जब किसी को पाठक बनने के लिए कहते हैं तो वह सोचता है कि इतनी झिझक का कारण इनका कोई स्वार्थ या कमीशन आदि प्राप्त करना हो सकता है और जहाँ संदेह उत्पन्न हुआ वहाँ कोई मनुष्य कठिनाई से उसे स्वीकार करता है। परन्तु जिन्होंने पूरी सच्चाई के साथ विश्वास कर लिया है कि ‘अखण्डज्योति’ के संसर्ग में आने वाले का हित ही होगा उसे झिझकने का कोई कारण नहीं। कोई अच्छी वस्तु हम कहीं पाते हैं, वो देखते हैं तो अपने परिचितों से उसे लेने के लिए जोर देकर सलाह देते हैं या आग्रह करते हैं, उसका लाभ समझाते हैं तदनुसार वह भी उस वस्तु से लाभ उठाने को तुरन्त तैयार हो जाता है। यही नीति यदि हम ‘अखण्डज्योति’ के बारे में अपनावें तो कोई कारण नहीं कि लोग प्रभावित न हों और उसे अपनाने को तैयार नहीं।

मेरी ही तरह अखंडज्योति के अन्य पाठक भी यही अनुभव करते हैं कि ‘अखण्ड ज्योति’ संस्था, ज्ञान यज्ञ की पवित्र वेदी है। इसका प्रज्वलित रखना आवश्यक है। यदि आवश्यक है तो उसके लिए समिधा और सामग्री जुटाने का कार्य भी हमें करना होगा ताकि इस यज्ञ की आहुतियाँ यथावत् चालू रहें। इस कार्य को हम ‘अखण्डज्योति’ के नये सदस्य बढ़ाकर पूरा कर सकते हैं। ढाई रुपया वार्षिक की इतनी सस्ती, इतनी उच्च कोटि की पत्रिका मिलनी कठिन है।

इस वर्ष के साथ ‘अखण्डज्योति’ का नवाँ वर्ष समाप्त होकर दसवां वर्ष आरंभ होता है। हम सब लोग अपना चंदा इस मास भेजेंगे ही परन्तु यदि हमें इस महान् संस्थान और उसके महान् उद्देश्यों के प्रति, वास्तव में प्रेम है तो स्वभावतः यह कर्तव्य हमारे ऊपर आ जाता है कि उसका समर्थन और पोषण करें। इसकी एक छोटी कसौटी नये सदस्यों का बढ़ाना भी है। हम चाहें तो कुछ न कुछ नये सदस्य आसानी से बढ़ाकर अपने कर्तव्य का पालन कर सकते हैं। मैं इस वर्ष अखंडज्योति के पचास नये सदस्य बढ़ाने की प्रतिज्ञा करता हूँ। मुझे अपने अन्य बन्धुओं से भी ऐसी ही आशा है।

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Type: TEXT
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