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Magazine - Year 1948 - Version 2

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स्वाध्याय में प्रमाद मत करो।

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जितने सन्त तथा महापुरुष हुए हैं उन्होंने स्वाध्याय की महिमा का गान किया है। हिन्दू शास्त्रों में लिखा है कि ‘स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए।’

स्वाध्याय के अर्थ के सम्बन्ध में लोगों में अनेक मतभेद हैं। कुछ लोग पुस्तकें पढ़ने को स्वाध्याय कहते हैं, कुछ लोग खास प्रकार की पुस्तकें पढ़ने को स्वाध्याय कहते हैं। कुछ का कहना है कि आत्म निरीक्षण करते हुए अपनी डायरी भरने का नाम स्वाध्याय है। वेद के अध्ययन का नाम भी कुछ लोगों ने स्वाध्याय रख छोड़ा है। लेकिन इतने अर्थों का विवाद उस समय अपने आप हो समाप्त हो जाता है जब मनुष्य के ज्ञान में उसका लक्ष्य समा जाता है।

स्वाध्याय का विश्लेषण करने वालों ने इसके दो प्रकार से समास किये हैं-

स्वस्यात्मनोऽध्ययनम्-अपना, अपनी आत्मा का अध्ययन, आत्मनिरीक्षण। स्वयम्ध्ययनम्-अपने आप अध्ययन अर्थात् मनन।

दोनों प्रकार के विश्लेषणों में स्व का ही महत्व है। इसीलिए शास्त्रकारों का कथन है कि-

प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत जनश्चरितमात्मनः। किन्नु में पशुभिस्तुल्यं किन्तु सत्पुरुषैरिव।।

प्रति घड़ी प्रत्येक मनुष्य को अपने स्वयं चरित्र का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसका चरित्र पशुओं जैसा है अथवा सत्पुरुष जैसा। आत्मनिरीक्षण की इस प्रणाली का नाम ही स्वाध्याय है। जितने महापुरुष हुए हैं वे सब इसी मार्ग का अनुसरण करते रहे। उन्होंने स्वाध्याय के इस मार्ग से कहीं भी अपने अन्दर कमी नहीं आने दी बल्कि समस्त कमियों को निकालने और पूर्ण मानव बनने के उद्देश्य से इस मार्ग को ग्रहण किया।

शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि पानी बहता है क्योंकि उसका बहना ही धर्म है। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र चलते हैं। क्योंकि गति करना, चलना यह उनका स्वभाव है। यदि ये अपने स्वभाव को छोड़ दें, गति हीन हो जावें तो सृष्टि का काम ही रुक जावे। ऐसे ही ब्राह्मण का स्वाभाविक काम स्वाध्याय है जिस दिन वह स्वाध्याय नहीं करता उसी दिन वह ब्राह्मणत्व से पतित हो जाता है-

तदहर ब्राह्मणो भवति यदहः स्वाध्यायंनाधत्ते।

वेद शास्त्रों में श्रम का सब से बड़ा महत्व है। हर एक को कुछ न कुछ श्रम नित्य प्रति करना ही चाहिए। श्रम इसी त्रिलोकी में होता है। भू, भुवः और स्वर्ग लोक ही श्रम का क्षेत्र है। इस श्रम के क्षेत्र में स्वाध्याय ही सबसे बड़ा क्षेत्र है। योग भाष्यकार व्यास का कहना है कि :-

स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्याय योगसम्पत्या परमात्मा प्रकाशते।1।28

अर्थात् स्वाध्याय द्वारा परमात्मा से योग करना सीखा जाता है और समत्व रूप योग से स्वाध्याय किया जाता है। योगपूर्वक स्वाध्याय से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है।

अपने आपको जानने के लिए स्वाध्याय से बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। यहाँ तक इससे बढ़कर कोई पुराण भी नहीं है। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि :-

भावतंह वा इमाँ पृथिवीं वित्तेन पूर्णा ददल्लोकं जयति त्रिस्तावन्तः जयति भूयाँसं वाक्षम्यं य एवं विद्वान अहरहः स्वाध्यायमधीते।

जितना पुण्य धन धान्य से पूर्ण इस समस्त पृथ्वी को दान देने से मिलता है उसका तीन गुना पुण्य तथा उससे भी अधिक पुण्य स्वाध्याय करने वाले को प्राप्त होता है।

मानवजीवन का धर्म ही एक मात्र अध्ययन है। इस धर्म के यह अध्ययन एवं दान के ये ही तीन आधार हैं :-

त्रयोधर्मस्कन्धा यशोऽध्ययनं दानमिति।

छान्दो॰ 2।32।1

अपने स्वत्व को छोड़ना दान कहलाता है और अपना कर्त्तव्य करना यश। लेकिन स्वत्व छोड़ने तथा कर्त्तव्य करने का ज्ञान देने वाला तथा उसकी तैयारी कराकर उस पथ पर अग्रसर कराने वाला स्वाध्याय या अध्ययन है।

किन्हीं महापुरुषों का कहना है कि स्वाध्याय तो तप है। तप के द्वारा शक्ति का संचय होता है। शक्ति के संचय से मनुष्य शक्तिवान बनता है। चमत्कार को नमस्कार करने वाले बहुत हैं, जिसके पास शक्ति नहीं है उसे कोई भी नहीं पूछता। इसलिए जो तपस्वी हैं उनसे सभी भयभीत रहते हैं और उनके भय से समाज अपने अपने कर्त्तव्य का साँगोपाँग पालन करता रहता है।

तप का प्रधान अंग है एकाग्रता। निरन्तरपूर्वक एकाग्रता के साथ निश्चित समय पर जिस कार्य को किया जाता है उसमें अवश्य सफलता मिलती है। उत्कंठा से प्रेरणा मिलती है, और मन के विश्वास में दृढ़ता आती है। बिना दृढ़ता के दुनिया का कोई कार्य कभी भी सफल नहीं हुआ है। अनेकों में दृढ़ता की व्यक्ति की एकाग्रता के लिए अपेक्षा रहती है। और जब नियमितता आ जाती है तो ये सब मिलकर तप का रूप धारण कर लेती है। यह तप आत्मा पर पड़े हुए मल को दूर करेगा और उसे चमका देगा।

तप का एक मात्र कार्य आत्मा पर पड़े हुए मल को-या आवरण को दूर करने मात्र का ही है। व्यास ने स्वाध्याय को परमात्मा का साक्षात्कार करने वाला इसी लिए बतलाया है क्योंकि जो आवरण के अन्धकार में चला गया है उसे प्रकट करने के लिए अन्धकार को दूर करने की आवश्यकता है।

जीवन का उद्देश्य कुछ भी हो, उस उद्देश्य तक जाने के लिए भी स्वाध्याय की आवश्यकता होती है। स्वाध्याय जीवन के उद्देश्य तक पहुँचने की खामियों को भी दूर कर सकती है। जो स्वाध्याय नहीं करते, वे खामियों को दूर नहीं कर सकते इसलिए चाहे ब्राह्मण हो-चाहे शूद्र प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य से गिर सकता है।

स्वाध्याय को श्रम की सीमा कहा गया है। श्रम में ही पृथ्वी से लेकर अन्तरिक्ष तथा स्वर्ग तक के समस्त कर्म प्रतिष्ठित हैं। बिना स्वाध्याय के साँगोपाँग रूप से कर्म नहीं हो सकते और साँगोपाँग हुए बिना सिद्धि नहीं मिल सकती। इसलिए सम्पूर्ण सिद्धियों का एक मात्र मूल मंत्र है स्वाध्याय, आत्मनिरीक्षण।

आत्म निरीक्षण में अपनी शक्ति का निरीक्षण और अपने कर्म का निरीक्षण किया जाता है। शक्ति अनुसार कर्म करने में ही सफलता मिलती है। कौन सी शक्ति किस कर्म की सफलता में सहायक हो सकती है यह बिना ज्ञान हुए भी सफलता नहीं मिलती। ज्ञान का साधन भी स्वाध्याय ही है। इसी कारण ज्ञान हो और प्रमाद से वह विस्मृत हो गया हो तब भी स्वाध्याय की आवश्यकता है। अग्रसर होकर जिस कार्य को किया जाता है, सम्पूर्ण शक्ति जिस कार्य में लगी रहती है, उसकी सिद्धि में किंचित भी सन्देह नहीं करना चाहिए इसीलिए इहलौकिक और पारलौकिक दोनों स्थानों की सिद्धि के लिए, आत्मकल्याण के लिए निरन्तर स्वाध्याय न करने से शरीर में मन तथा बुद्धि में एवं प्राणों में भी जड़ता स्थान बना लेती है, मनुष्य प्रमादी हो जाता है। प्रमाद मानव का सबसे बड़ा शत्रु है यह उसे बीच में ही रोक लेता है सिद्धि तक पहुँचने ही नहीं देता। इसीलिए आर्य ऋषियों ने कहा है-

स्वाध्यायान्माप्रमदः-स्वाध्याय में प्रमाद न करो और अहरहः स्वाध्यायमध्येतव्यः-रात दिन स्वाध्याय में लगे रहो।

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