
है उस महान् को नमस्कार
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जो केवल परमानन्द रूप है जिसका कण कण में निवास।
उसको ही सब जग रहा खोज, जिसका यह जगमय विद् विलास।।
उस शक्तिमान् को नमस्कार।
जिसकी विभुता इतनी विशाल, बसता है उसमें शून्य व्योम।
जिसमें रहते पृथ्वी सागर, जिसमें चलते हैं सूर्य सोम।।
उस प्रकृति प्राण को नमस्कार।
जो एक प्रेम के भाववश्य, पाते जिसको प्रेमी प्रवीन।
आते रहते जिसके सम्मुख, नीचातिनीच दीनातिदीन।।
उस दयावान् को नमस्कार।
जिसको कहते हैं दीनबन्धु, जो दुखियों की सुनता पुकार।
जिसकी महिमा अतुलित अनन्त, जिसका चहुँ दिशि से खुला द्वार।।
उस गुण निधान को नमस्कार।
जिसकी इतनी है सरल प्राप्ति, मिल सकते हैं जो सभी ठाम।
भक्तों के ही भावानुसार, दर्शन देते आनन्द धाम।।
उसके विधान को नमस्कार।
जो जीवन को निर्मल प्रकाश, मिटती है जिससे भूत भ्रान्ति।
गल जाता है देहाभिमान, मिलती है पावन परम शान्ति।।
उस दिव्य ज्ञान को नमस्कार।
जिस बल से पह अज्ञेय तत्व, अनुभव होता यद्यपि अरूप।
जिस बल से वह चिन्मय अचिन्त्य, चिन्तन में आता निज स्वरूप।।
उस सतत ध्यान को नमस्कार।
बढ़ती जिससे अनुरक्ति भक्ति, होता जिससे परमानुराग।
ऐसा जिसका सुन्दर प्रभाव, हो जाय पथिक में मोह त्याग।।
उस सत्य गान को नमस्कार।
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*समाप्त*