आरोग्यता के मित्र धूप, हवा और प्रकाश
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जब किसी आदमी को ऐसे स्थान पर रख दिया जाता है जहाँ उसे न तो धूप मिले न रोशनी मिले और न हवा तो वह मुरझाने लगता है, पीला पड़ने लगता है। रक्त के लालकण कम होने आरम्भ हो जाते हैं और सफेद कणों की संख्या बढ़ जाती है। धीरे धीरे वह व्यक्ति रोगों से घिर जाता है। तब डॉक्टर लोग उसे किसी पहाड़ी स्थान पर ले जाने की सलाह देते हैं, इस सलाह में क्या रहस्य है, आइए इसी पर विचार करें।
पहाड़ में हवा की प्रचुरता रहती है, कहाँ की आबादी घनी नहीं होती और साथ ही वहाँ घूमना फिरना भी रहता है जिससे अधिक से अधिक धूप, रोशनी और खुली हवा मिलती है, मरीज वहाँ से निरोग होकर आ जाता है। पर जो पहाड़ पर न जाकर यहाँ भी खुली हवा का सेवन करता है, धूप और रोशनी के संपर्क में रहता है वही फायदा उठा लेता है जो पहाड़ पर उसे मिलता है। इसलिए फायदा करने वाला पहाड़ नहीं है। फायदा करने वाली तो हवा है, धूप है और रोशनी है।
देखा गया है कि गाँवों की अपेक्षा शहरों में रोग और रोगियों की संख्या बराबर बढ़ रही है। शहरों में जैसे जैसे बस्ती बढ़ती जाती है वैसे वैसे ही रोग भी बढ़ते जाते हैं। बस्ती बढ़ाने के लिए आस पास के दरख्त और जंगल काटे जा रहे हैं। जीवनी शक्ति देने वाले पेड़ और जंगलों का काटना भी तो एक तरफ से रोग को निमन्त्रण देना है। घनी बस्ती, प्राणियों के मुँह से निकली हुई साँस में प्राणनाशक वायु की वृद्धि और उसे नाश करने वाले या खाने वाले पेड़ पौधों का अभाव ये सब मिलकर प्राणी पर एक साथ आक्रमण करते हैं। उस आक्रमण से बचाव का साधन उन पर होता नहीं, बल्कि जो धूप-गर्मी प्राणी की रक्षा करती है, साधनों की कमी के कारण वह भी नाश का रूप घायल कर लेती है। यह शिव की जगह रुद्र मूर्ति धारण कर लेती है। और नाश का कारण बन जाती है।
सभी जानते हैं कि सूर्य की किरणों में अनेक रंग रहते हैं, कोई रंग किसी की रक्षा करते हैं कोई किसी की, कोई किसी का नाश करते हैं कोई किसी का बहुत सम्बन्ध है, ये रंग ही धूप करते हैं, रोशनी करते हैं, इन्हीं से ठण्डक होती है, इन्हीं से गर्मी। जितनी जिसमें जीवनी शक्ति बढ़ी रहती है उतनी ही उसमें ठण्ड और गर्मी की शक्ति रहती है। शीतकाल में नंगे रहने वाले लोगों को भी देखा होगा, वे वैसे हट्टे कट्टे व स्वस्थ दिखाई देते हैं, ठण्ड का कतई असर उन पर नहीं होता, चिलकती धूप में नंगे पाँव और नंगे शरीर रहने वाले लोगों को भी देखा होगा, पर ऐसे लोगों की अपेक्षा उन लोगों का स्वास्थ्य कितना नाजुक होता है जो तेज धूप में अंधेरी कोठरियों की शरण लेते हैं और ठण्ड में मनों कपड़े का वजन शरीर पर लाद लेते हैं। ये सारी की सारी हालतें ऐसी हैं जिससे मनुष्य की जीवनी शक्ति का जितना ह्रास हुआ है। उसका अच्छी प्रकार पता दे देती है।
धूप, रोशनी ओर हवा से बचने की आदत ने मनुष्य की जीवनी शक्ति को यहाँ तक कम कर दिया है कि आज मनुष्य की औसत आयु 22 वर्ष की रह गयी है। एक जमाना था कि जब हम भारतवासी प्रकृति की छत्रछाया में रहते थे, 100 वर्ष से कम आयु किसी की नहीं होती थी, रोग का नाम भी लोग नहीं जानते थे, 100 वर्ष के लोगों की दृष्टि भी इतनी तेज होती थी कि उन्हें चश्मे की जरूरत ही नहीं पड़ा करती थी। आज घर घर रोग का वास है 10-15 वर्ष के बच्चे की आंखों पर भी चश्मा चढ़ा हुआ देखा जा सकता है। क्या कारण है इसका एक मात्र कारण है स्वाभाविक जीवन की कमी। और उसके कारण जीवनी शक्ति का ह्रास।
भारतवर्ष के प्राचीन काल में बड़े बड़े वन थे, विद्यार्थी उन्हीं वनों में ऋषियों के समीप रह कर अध्ययन करते थे। शरीर पर एक लंगोटी के अलावा कपड़े का नाम निशान भी न होता था। दिन में धूप, और रोशनी खूब मिलती। गन्दी हवा का तो पता भी नहीं मिलता। वृक्षों से शीतल मन्द सुगन्ध वायु बहती। चारों ओर जीवन ही जीवन बिखरा रहता । सभी स्वस्थ रहते। न तन्द्रा रहती और न प्रमाद। दिमाग के सभी रास्ते ज्ञान ग्रहण करने के लिए खुले होते। ब्रह्मचर्य अवस्था समाप्त करके वीर एवं संयमी दृढ़तापूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते। वासना उन्हें छूकर भी नहीं निकली होती। वे एक धोती पहनते एक उत्तरीय ओढ़ते। पैरों में खड़ाऊँ होती और सिर खुला हुआ। शरीर के रोम रोम जीवनप्रद प्राण को प्रकृति से खींचते। रोशनी और धूप शरीर के प्रत्येक अंग के साथ अपना प्रबन्ध बनाये रखते। वे दानी बनते, दृढ़ी बनते, बली बनते और बनते दीर्घ जीवी। रोग का नाम तक न होता। उन्हें सूर्य ने कभी सोते हुए नहीं देखा। तब आज की तरह सटे हुए मकान नहीं थे। और न एक मंजिल पर दूसरी मंजिल ही लदी हुई थी। सूर्य स्वच्छन्द गति से प्रत्येक स्थान पर अपनी किरणें भेज सकते थे। गृहस्थाश्रम समाप्त करने के बाद वे फिर वानप्रस्थी होते, वनों में चले जाते, मुक्त आकाश के नीचे रहते, वस्त्रों में फिर एक लंगोटी होती। और तब फिर संन्यासी बने हुए वे रोग और शोक पर विजयी बनकर पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करते। कितना सुखी था वह जीवन, जिसमें न दिखावट थी और न बनावट और एक आज का जीवन है, जिसमें रोग शोक से घिरा हुआ मानव इस संसार में मुक्ति, पाने के लिए दिन रात छटपटाता रहता है।
आज क्या इस रोग शोक से मुक्ति नहीं मिल सकती। मिल क्यों नहीं सकती लेकिन तब इस आडम्बर वाले वेष भूषा की त्यागना होगा। शरीर ज्यादा से ज्यादा नंगा रहकर खुली हवा, धूप और रोशनी का उपयोग कर सके ऐसा वातावरण बनाना होगा। सूर्योदय से पहले बिस्तर छोड़कर उठ बैठना चाहिए और शरीर पर अधिक से अधिक एक लंगोट या एक ढीला कच्छ के अलावा और कुछ न रहना चाहिए। प्रातः काल की हवा और प्रातः काल की धूप को शरीर से अधिक से अधिक सम्बन्धित करना चाहिए। यदि शीतलता हो तो जितनी देर तक रहा जा सके रहना चाहिए पर यदि गर्मी के दिन हों तो अधिक से अधिक जितना रहा जा सके रहना चाहिए। कोई भी ऋतु हो शरीर को कपड़ों से नहीं लादना चाहिए। इसी प्रकार तंग कपड़ा भी नहीं पहनना चाहिए। गहरे श्वाँस प्रश्वास द्वारा ज्यादा से ज्यादा प्राण शक्ति को खींचना चाहिए। और जहाँ पेड़ वृक्ष आदि की संख्या अधिक हो वहाँ रहने की कोशिश करनी चाहिए। फिर आदमी चाहे कैसा ही अशक्त या रोगी क्यों न हो उसे स्वस्थ होने में देर नहीं लगेगी।
बीमारी की हालत में भी मरीज को जहाँ ज्यादा से ज्यादा साफ एवं खुली हवा मिल सके वहाँ रखना चाहिए। रोशनी और धूप तो उसे मिलनी चाहिए। धूप में रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने की वजह की गजब की शक्ति होती है। इसी प्रकार वहाँ स्वच्छ हवा का आवागमन होता है वहाँ भी रोग के कीटाणु नहीं रह पाते। रोग हमेशा गन्दी जगह में उत्पन्न होता है। इसलिए शरीर का या स्थान का जो भाग हवा और धूप से विशेष सम्बन्धित रहता है। वहाँ रोग का प्रवेश ही नहीं हो पाता।
आतौर से लोग ठण्ड लग जाने या धूप लग जाने का डर करते हैं पर जो ठण्ड से या धूप से बचने का प्रभाव पड़ता है, लेकिन यह प्रभाव कोई बुरा नहीं होता, यह तो अन्दर की गन्दगी निकालने की ही कोशिश करता है। रोग स्वयं भी प्रकृति द्वारा अन्दर की गन्दगी को निकालने का साधन है। इसलिए जब प्रकृति गन्दगी निकाल रही हो उस समय यदि रोगी को गंदगी निकालने वाले साधनों से दूर रखा जायगा तो लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होगी इसलिए रोगी को स्थायी लाभ देने के लिए खुली हवा, रोशनी और धूप की विशेष आवश्यकता है, पर जितना वह सहन कर सकें, उतना ही उसे इनका सेवन कराना चाहिए। मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए। एक साथ ही शक्ति से अधिक प्रयोग कर बैठने पर हानि होने की संभावना रहती है।
प्रकृति हमेशा प्राणी को प्रकृति से अनुकूल रखना चाहती है, जब मनुष्य प्रकृति से छिपना चाहता है तभी उसे रोगों का सामना करना पड़ता है इसलिए रोग से मुक्ति पाने का उपाय प्रकृति के अनुकूल होता है, न कि प्रकृति से दूर भागना, इसलिए हवा, धूप और रोशनी प्राणी के सहायक हैं इसलिए इनसे बचने की कोशिश न करके मनुष्य को इनका अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए। इससे बढ़कर प्राणियों का हितैषी अन्य कोई नहीं है। जैसे जैसे प्राणी प्रकृति के समीप जाता जायगा, वैसे वैसे ही वह अधिक स्वस्थ और सौभाग्यशाली होता जायगा। शरीर का पूर्ण विकास होगा और मन स्वस्थ तथा ज्ञान में चैतन्यता आयेगी।
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