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Magazine - Year 1948 - Version 2

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मृत्यु के समय दुःख या भय से मुक्ति

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जिन लोगों का आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास है, पुनर्जन्म मानते हैं, वे यह समझते हैं कि मृत्यु भी आत्मा की एक अवस्था विशेष है। जिस प्रकार स्थूल शरीर को नित्य बदलती रहती है, कभी बचपन उसमें दिखाई देता है, कभी किशोर अवस्था। कभी जवानी दिखाई देती है, तो कभी बुढ़ापा। शरीर के रहने पर जिस प्रकार उसके अनेक रूपांतर हो जाते हैं उसी प्रकार इस देह द्वारा संस्कारों का भोग समाप्त होने पर इस देह को छोड़कर दूसरे भोगोपयुक्त शरीर की रचना होती है। पहले शरीर को छोड़ना मृत्यु कहलाती है और अगले शरीर को धारण करना जन्म। इसी प्रकार जन्म एवं मृत्यु का चक्कर चला करता है।

पर ऐसे लोग भी इस दुनिया में हैं जो आत्मा के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते और इसलिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म पर भी उनका विश्वास नहीं है। उनके लिए यही जन्म सब कुछ होता है, इसलिए इस जन्म के प्रति, इस शरीर के प्रति उनमें अधिक मोह, अधिक ममत्व रहता है, और सत्ता नाश का डर तो सदैव ही बना रहता है। ‘हम काऊ के मरे न मारे’ कहने वाले अनेक व्यक्तियों की कथाएं पुराण इतिहास में भी मिल जाती हैं।

मोह और ममता का बाहुल्य तो उनमें भी देखा जाता है जो कि आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं लेकिन उस विश्वास में दृढ़ता का नामोनिशाँ भी नहीं रहता। वे भी अन्दर ही अन्दर शायद अज्ञात रूप से यह अवश्य सोचते रहते हैं कि आगे जाने क्या होगा? और अपने पीछे के लोगों की-परिवार की क्या हालत होगी। वे यह भूले रहते हैं कि आत्मा अपने पर पड़े हुए संस्कारों के कारण उनका भोग करने के लिए शरीर धारण करता है और संस्कारों का भोग भोगता रहता है। जहाँ जहाँ जिन जिन के द्वारा भोग भोगना होता है वहाँ वहाँ जन्म लेता रहता, मिलता- जुलता एवं संपर्क स्थापित करता है। और भोग की अवधि समाप्ति होते ही बिना एक क्षण का भी विलम्ब लगाये उन उन स्थानों, व्यक्तियों से सम्बन्ध विच्छेद कर देता है। इसलिए ममता या मोह में पड़कर जिन सम्बन्धों की व्यावहारिक रूप में हमने कल्पना कर रखी है वे भोग भोगने मात्र के सम्बन्ध हैं, आत्मा का उन सम्बन्धों के साथ कोई लगाव नहीं है आत्मा तो सर्वत्र एक सा है। संस्कारों के कारण भिन्न सा प्रतीत होता है।

जन्म और मृत्यु का सम्बन्ध संस्कारों के साथ है। संस्कार कर्म के द्वारा पड़ते हैं। कर्म दो तरह से होते हैं एक मासिक दूसरे शारीरिक दोनों प्रकार के कर्मों का संस्कार आत्मा के ऊपर पड़ता है। संस्कारों का संग्राहक मन है। इसलिए विविध ग्रन्थों में संस्कारों को जन्म, मरण का कारण न बतलाकर मन को ही उसका कारण ठहराया है।

जिस प्रकार सृष्टि का कारण बीज माना जाता है। उसी प्रकार प्राणि जगत में सृष्टि का कारण मन माना गया है। जैसे कोई कोई बीज सृष्टि करने में असमर्थ होता है उसी प्रकार कोई कोई मन भी संस्कार ग्रहण नहीं करता। जब किसी बीज को भून लेते हैं तो वह उत्पादन की शक्ति खो देता है उसी प्रकार मन को भी उत्पादन शक्ति रहित बनाया जा सकता है।

सुख या दुःख भी उसी प्रकार के संस्कार हैं। मोह या ममत्व सम्बन्ध स्थापन के कार्य का फल है। यह फल इच्छा के द्वारा लगता है। पहले इच्छा होती है फिर उसके साथ मोह आता है और तब सुख या दुख की उत्पत्ति होती है। योग से सुख होता है और वियोग से दुःख। कर्म जो किये हैं उनके फल सुख या दुःख रूपी भावना के उत्पन्न होने से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अकेले संस्कार ही मनुष्य को दुख देते हैं, वासना देते हैं। दुख पाने की कल्पना ही भय का स्रोत है। वियोग की कल्पना भयदायक है पर सुख दुख और योग वियोग सभी कल्पना भय है। न कोई किसी से मिलता है और न कोई किसी से पृथक होता है। जो सर्व रस है, सर्वमय है, एक है, उसे हम कल्पना से ही अनेक मान लेते हैं और अकल्पना से ही समीप या दूर। कल्पना का निरोध जैसे जैसे होता जाता है, मन का संस्कार ग्रहण करने वाला अंग सिकुड़ता जाता है। सम्पूर्ण निरोध हो जाने पर आत्मा की वास्तविकता का बोध होता है। तब कर्मगत संस्कारों को मन ग्रहण नहीं करता क्योंकि उससे भिन्न कुछ है ही नहीं, इसी ज्ञान में वह सराबोर रहता है। यह अवस्था उसकी अनासक्ति की होती है।

मृत्यु की अवस्था तक संस्कार ग्रहण न करने योग्य मन यदि बन जाता है तो जिस समय आत्मा इस शरीर को छोड़ता है उस समय उसे न किसी प्रकार की वेदना होती है और न किसी प्रकार का दुःख। लेकिन जितने अंश में मन में संस्कार ग्रहण करने की शक्ति रहती है, उतने अंश में मृत्यु के समय वेदना या दुःख का अनुभव होता है। प्राण का निर्गमन उतने ही कष्ट का बोध कराते हुए होता है। बोध सूचक लक्षण शरीर पर स्पष्ट प्रतीत होते हैं।

शरीर में प्राण वाहक तन्त्र सर्वत्र फैले हुए हैं। जैसे जैसे प्राणोत्क्रमण होता है वैसे वैसे वे अपने स्थानों को छोड़ते हैं। फिर ये प्राण कंठ और शिरोभाग से इन्द्रिय मार्ग द्वारा उत्क्रमण करते हैं। मन शरीर के समस्त वात तन्तुओं द्वारा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है इसलिए उसके खिंचाव को अनुभव करता है। आसक्ति रहने के कारण यह खिंचाव शरीर से वियुक्त होने के फल को देखकर भयभीत होता है। अतएव भय एवं खिंचाव जनित वेदना दोनों की मुख पर स्पष्ट छाया लक्षित होती है। यहाँ तक देखा गया है कि प्राणोत्क्रमण के अनन्तर मुखाकृति भयानकता धारण कर लेती है। मुँह फटा रह जाता है, आँख निकली सी पड़ती है एवं अन्य कई लक्षण प्रकट हो जाते हैं।

इसके विपरीत अनेकों के मुख पर सौम्यता और मृदु हास्य भी देखने को मिला है जिससे प्रकट होता है कि मृत्यु के समय उन्हें न किसी प्रकार की वेदना हुई है और न वियोग जनित दुःख। किसी भी असद् संस्कार ने, वासना ने अपना अधिकार उस समय नहीं किया जिस समय कि प्राणों का उत्क्रमण हुआ था।

अन्त समय की वेदना और दुख प्राणी के वियोग जनित अनुमति का परिणाम है। कभी कभी स्वास्थ्यहीन शरीर के कारण भी ये विकृतियाँ उत्पन्न हुई देखी गई हैं। परिमित आहार-विहार में जिन्होंने अपने शरीर को स्वस्थ बना लिया है और स्वाध्याय आदि द्वारा जिन्होंने अपने आत्म ज्ञान को बढ़ाकर चरित्र में उतार लिया है वे किसी भी प्रकार से असद् संस्कारों से बद्ध नहीं रहते। तब उन्हें भय और शोक क्यों होगा? दुख और वेदनाओं की पीड़ा को क्यों सहन करना पड़ेगा।

अन्त की पीड़ा से मुक्ति पाने की साधना तुरन्त ही कारगर नहीं होती। उसके लिए तो जन्म से ही श्रम करना होता है, मन को वासना शून्य बनाना पड़ता है, तब कहीं सिद्धि के दर्शन होते हैं। इसीलिए तो जीवन के आरम्भ काल से स्वाध्याय शील एवं सदाचार-परायण बनने का आदेश दिया है। शास्त्रों में जो बार बार धर्म पर सत्यं वद, स्वाध्यायान्मा प्रमद, आदि आदेश वाक्य मिलते हैं उनका एक मात्र कारण अन्त गति को सुधारता रहना है जिसे जीवन में शाँति रहे और मृत्यु भी शान्ति से हो।

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