ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी के उपदेश
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दैवं पुरुषकारेण यो निवर्तितुमिच्छति।
इहवाऽमुत्र जगतिस संपूर्णाभिवाँछित।।
जो भाग्य के दोष को पुरुषार्थ के द्वारा मिटाने का प्रयत्न करते हैं उनकी कामनाएं इस लोक में अथवा परलोक में अवश्य ही पूर्ण होती हैं।
संवित्स्पन्दो मनः स्पन्द ऐन्द्रियस्पन्द एव च।
एतानि पुरुषार्थस्य रूपाण्येभ्यः फलोदयः।।
बुद्धि से इष्ट पदार्थ के प्राप्ति की चिन्ता, मन के द्वारा उसके उपाय की चिन्ता एवं इन्द्रियों द्वारा उन्हें क्रियात्मक रूप देना ये पुरुषार्थ के रूप हैं जिनसे फल की प्राप्ति होती है।
अशुभेषु समाविष्ट शुभेष्वेवावतारयेत्।
प्रयत्नाश्चितमित्येष सर्वशास्त्रार्थ संग्रहः॥
यदि चित्त बुराई में फँसा हो तो उसे बुराइयों से निकाल कर भलाई में लगा देने का ही आदेश सब शास्त्रों ने दिया है।
उच्छास्त्रं शास्त्रितं चेतिद्विविधं विद्धि पौरुषम्।
तत्रोच्छास्त्रमनर्थाय परमार्थाय शास्त्रितम्।।
पुरुषार्थ दो प्रकार का होता है एक शास्त्र के अनुसार, एक अशास्त्रीय। जो अशास्त्रीय पुरुषार्थ होता है उससे अनर्थों की प्राप्ति होती है पर जो शास्त्र सम्मत होता है उससे परमार्थ की सिद्धि होती है।
आलस्यं यदि न भवेज्जगत्यनर्थः।
को नस्याद्वदुधन को बहुश्रुतो वा।।
आलस्यादियभवनिः ससागरान्ता।
संपूर्णा नरपशु भिश्च निर्धनश्च।।
संसार में यदि आलस्य न होता तो अनर्थ भी न होते, सभी पण्डित और धनिक हो जाते। आलस्य के कारण ही यह सागर पर्यन्त की सारी पृथ्वी निर्धनों तथा मूर्खों से भरी हुई है।
प्राप्यव्याधिविनिर्मुक्तं देहमल्पाधिवेदनम्।
तथात्मनि समादध्याद्यथा भयो ना जायते।।
जब तक शरीर रोगों से, चिन्ताओं से मुक्त है तब तक ऐसा उपाय सोच रखना चाहिए जिससे दुख फिर न प्राप्त हो।
धनानि बाँधवा, भृत्या मित्राणि विभवाश्चये।
विनाश भयभीतस्य सर्वं नीरसताँ गतम्।।
धन, बान्धव, नौकर-चाकर, मित्र, धन-सम्पत्ति उस समय कुछ भी अच्छे नहीं लगते जबकि मरने का डर सामने आ जाता है।
स्वदन्ते तावदेवैते भावाजगति धीमते।
यावत् स्मृतिपथं याति न विनाशकुटाक्षसः।।
जब तक मृत्यु का स्मरण नहीं आता तब तक ही संसार के भोगों में रुचि रहती है।
न सुखानि न दुखानि न मित्राणि न बान्धवाः।
न जीवितं न मरणं वंधायशस्य चेतसः।।
ज्ञानी मनुष्य के चित्त को सुख, दुख, मित्र, बाँधव, जीवन एवं मरण राग द्वेष के बन्धन में नहीं डालते।
मनसा बाँछयते यश्च यथाशास्त्रं न कर्मणा।
राध्यते मत्तलीलाऽसौ मोहनी नार्थ साधनी।।
मन में तो इच्छा हो लेकिन उसकी सिद्धि के लिए यथावत काम न किया जाता तो वह पागलों की सी लीला है वह मोह में डाल सकती है परन्तु कार्य सिद्ध नहीं कर सकतीं
रुपमायुर्मनो बुद्धिरहंकारस्तथे हितम्।
भारो भारधरस्येव सर्व दुःखायदुर्धियः।।
रूप, आयु, मन, बुद्धि, अहंकार और चेष्टाएं दुर्बुद्धियों के लिए क्लेश ही उत्पन्न करती है क्योंकि जिनसे परमपुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं होती वे केवल मात्र बोझ के समान ही हैं।
अहंकार वशादापदहंकराराद् दुराधयः।
अहंकार वशादीहा त्वहंकारो ममामयः।।
अहंकार के कारण ही आपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, अहंकार से ही सब चिन्ताएं जन्म लेती हैं और अहंकार के अधीन ही सब चिन्ताएं रहती हैं। इसीलिए अहंकार सबसे बड़ा रोग है।
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