क्या हम विद्वान हैं?
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स्कूल कालेजों में या और किसी जगह जहाँ कुछ पोथियाँ पढ़ीं, परीक्षायें दीं और प्रमाण पत्र प्राप्त किया कि बस हम समझ बैठते हैं कि अब विद्वान हो गये। लेकिन हमारी यह समझ हमें धोखे में डालने वाली है। पढ़ने लिखने से विद्वत्ता का विशेष सम्बन्ध नहीं है। इसका सम्बन्ध तो अनुभव से है। अनुभव ही वास्तविक ज्ञान का स्त्रोत है। जिसके पास अनुभव की कमी है, उसने जो कुछ पड़ा है उसे उसके असली रूप में समझा है या नहीं यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि पढ़ी लिखी बात प्रयोग में न आने तक उसकी सत्यता की जाँच होना कदापि संभव नहीं हो सकता। इसीलिए पढ़ लिखकर अनुभव में ले आने पर ही उस विद्या का सम्यक् ज्ञान होता है।
लेकिन ‘विद्या’ कहते ही एक नई उलझन आ खड़ी होती है। आर्य ऋषियों ने कहा है कि-सा विद्या या विमुक्तये- विद्या वही है जो मुक्त करती है। इसका अर्थ यही है कि जब तक इस पर दूसरे का तंत्र काम करता है तब तक हमारा पढ़ना लिखना बेकार है। पढ़ लिखकर परतंत्र को दूर करना और स्वतंत्र की स्थापना करना वही तो विद्या का उद्देश्य है। इसलिए जिन्होंने परतन्त्रता रूपी पाश को छेदकर स्वतन्त्रता रूपी स्वभाव को जागृत किया है। उन्होंने ही विद्या पढ़ी है। वे ही विद्वान हैं।
स्वतन्त्र और परतन्त्र शब्दों में जिन स्व और पर की चर्चा की गई है उनकी वास्तविकता समझे बिना विद्या के महत्व को समझा ही नहीं जा सकता इसलिए इन दोनों की चर्चा कर लेना अत्यन्त आवश्यक है।
मनव का ‘स्व’ क्या है। कौन है जो सब कुछ स्व के लिए चाहता है। मेरे हाथ, मेरे पाँव और मेरा शरीर कहकर सबके साथ नाता जोड़ने वाला यह ‘स्व’ चेतनात्मक आत्मदेव के अतिरिक्त और कौन हो सकता है। आत्मा शरीर से भिन्न है इसलिए स्व से भिन्न यह ‘पर’ तत्व देह के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। देह तो पर का, मूर्ति मात्र है लेकिन उस पर का विस्तार समस्त सृष्टि में है। यह सारा स्थूल प्रपंच जो आत्मा से भिन्न है पर आत्मा सा ही दिखता है। ‘पर’ है। इसका नाम अविद्या है। यह अविद्या आत्मा को, ‘स्व’ को, वास्तविकता को परदे से ढंक देती है और तब वह स्वतन्त्रता खोकर परतन्त्र हो जाती है। अपने को भूल जाना ही परतंत्रता है। यही सच्चा बन्धन है। जो पढ़ लिख कर इस बन्धन को तोड़ नहीं सका क्या उसे विद्वान कहा जायगा? कहना तो अलग रहा इस बात में भी सन्देह रहेगा कि उसने पढ़ालिखा भी या यों ही प्रमाण पत्र हासिल कर लिया है। पढ़ने लिखने का सच्चा प्रमाण पत्र बन्धनमुक्ति अवस्था को प्राप्त करना है।
लेकिन हमारी पढ़ाई लिखाई का सम्बन्ध तो अविद्या के साम्राज्य का विस्तार करने से है, स्वराज्य की स्थापना से नहीं। क्योंकि हम देखते हैं कि पढ़ने लिखने वाला जैसे जैसे पढ़ने लिखने की सीढ़ियां पार करता जाता है वैसे वैसे ही वह बन्धनों से जकड़ता जाता है, आप्तकाम आत्मा अपने में अनेकों अभावों कमियों की सृष्टि करती जाती है और जैसे जैसे कमियाँ बढ़ती जाती हैं वैसे वैसे ही आवश्यकताएं बढ़ती जाती हैं, जिसकी जितनी अधिक आवश्यकताएं हैं। वह अविद्या के उतने ही अधिक फन्दे में फँसा हुआ है, वह उतना ही परतंत्र है। तब आज का पढ़ना लिखना विद्या का नहीं, अविद्या का ही हुआ और सो भी ऐसी अविद्या का जिसके द्वारा अविद्या के मूल स्वरूप को भी नहीं जाना जा सकता।
विद्या हो चाहे अविद्या, जब तक उसके मूल रूप को न समझा जावे तब तक पढ़ने का कोई अर्थ ही नहीं। पढ़ने का अर्थ है सम्पन्न होना। सम्पन्नता तभी आती है जब पूर्णता हो। जहाँ अभाव या कमी का अनुभव वहाँ पढ़ना लिखना सब बेकार। फिर विद्वता कैसी?
चाहे विद्या पढ़ी जावे चाहे अविद्या, दोनों का काम एक ही है। अविद्या की पूरी जानकारी कर लेने पर, उसका स्वरूप ज्ञान हो जाने पर मनुष्य उसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता से अपरिचित नहीं रहता। उसके फलाफल का उसे भलीभाँति ज्ञान हो जाता है। ऋषि कहते हैं कि ‘अविद्ययामृत्युँ तीर्त्वा’ अविद्या की जानकारी से मानव मृत्यु को पार करता है, मृत्यु के संकट से, मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। मृत्यु का भय सबसे बड़ा भय है, इस भय को पास करने के लिए अविद्या के सीखने की आवश्यकता है पर सीखकर भी जो मौत से डरते रहें क्या हम उन्हें विद्वान कहेंगे? मृत्यु को खिलौना समझने वाले मानव ही अविद्या के आचार्य हैं, विद्वान हैं, पण्डित हैं ऐसा कहा जायगा। और जो अविद्या का पण्डित हो गया, उससे विद्या का तत्व छिपा रह ही नहीं सकता। तब अपना अगला कदम बढ़ावेगा और ‘विद्यायऽमृतमश्नुते’ विद्या द्वारा अमृतत्व की प्राप्ति करेगा। अमृतत्व की प्राप्ति ही सच्ची स्वतन्त्रता है। और यह स्वतन्त्रता ही मानव का लक्ष्य स्थल है। यही विद्या का फल है।
पढ़ लिखकर जिन्होंने उसका उपयोग नहीं किया, उनका पढ़ना लिखना बेकार है। जो ज्ञान काम में न आवे उसके अर्जन करने से लाभ ही क्या? इसलिए विद्वान बनने की यही निशानी है कि जो कुछ पढ़ा गया है उसे जीवन में लाया जावे, उसे स्वभाव में दाखिल किया जावे और तब वास्तविकता को ग्रहण करके अवास्तविकता से अपना पिण्ड छुड़ाया जावे। अवास्तविकता से पिण्ड छुड़ाना ही वास्तविक मुक्ति है। यही विद्या का लक्षण और विद्वान का स्वरूप है।
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