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Magazine - Year 1948 - Version 2

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संन्यासयोग

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(श्री निरंजन प्रसाद गौतम, पटलौनी)

बुढ़ापे तथा शारीरिक कमजोरी के कारण सामाजिक संघर्ष को छोड़कर और यह लौकिक कष्टों की चिन्ता किये बिना निष्पाप जीवन बिताना ‘संन्यासयोग’ कहलाता है।

जो लोग जवानी में ही इस योग को धारण करते हैं, वे संन्यासयोग के अधिकारी नहीं हैं। दूसरे शब्दों में या तो वे निठल्ले हैं, सांसारिक जिम्मेदारी से मुक्त होकर दूसरों की कमाई पर मौज उड़ाना चाहते हैं या फिर उनकी साधना कर्मयोग की भूमिका होती है।

संन्यासयोगी अपने आप में लीन रहता है। वह दुनिया को नहीं सताता और यदि दुनिया उसे सतावे तो वह उसकी भी परवाह नहीं करता। अपने जीवन के उत्तर काल में जबकि वह अपनी समस्त जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुका होता है, संन्यास ग्रहण करता है। तब उसे एकान्त की आवश्यकता होती है जहाँ वह सांसारिक जीवन से ऊपर उठकर अपने जीवन को निष्पाप एवं सहिष्णु बना सके।

जीवन को निष्पाप एवं सहिष्णु बनाये बिना योग की साधना ही आरम्भ नहीं होती। इसलिए किसी के अच्छे करने पर या किसी के द्वारा बुराई करने पर उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होते। संन्यास योगी जहाँ सदाचारी होता है वहाँ वह स्वावलम्बी भी होता है, एकान्त प्रिय, तपस्वी और सहिष्णु होता है।

यह बनाया जा चुका है कि युवावस्था संन्यास योग का क्षेत्र नहीं है। वह कर्मयोग का क्षेत्र है। आगे बताया जायगा कि कर्मयोग में अपने जीवन को समाज सेवा के लिए किस प्रकार बिताना पड़ता है और किस प्रकार समाज के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष में आना पड़ता है। लेकिन संन्यास योग का उद्देश्य न तो समाज सेवा करना है और न समाज के संघर्ष में आना है। समाज के संघर्ष से अलग रहने के कारण ही उसे संन्यासयोग कहते हैं। रही समाज सेवा, यह कोई तो लक्ष्य न होने पर भी स्वतः सम्पन्न हो जाता है।

जो कर्मयोगी बनना चाहते हैं, वे शक्ति संग्रह करने के लिए या जिस प्रकार वे समाज की सेवा करना चाहते हैं उस प्रकार की सेवा करने के लिए जिस सामग्री बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक आध्यात्मिक- की आवश्यकता होती है उसे प्राप्त करने के लिए समाज संघर्ष से बचकर, घर द्वार छोड़कर संन्यासी बनकर कहीं अलग साधना करना आरम्भ कर दें यह संभव है। लेकिन न तो संघर्ष से अलग रहना इनका उद्देश्य होता है और न जनसेवा से विमुख होना। बिना पूर्व तैयारी के कर्मयोगी बनना आसान भी नहीं है क्योंकि जन सेवा बिना जन संघर्ष में आये संभव नहीं होती और जो जन संघर्ष में आकर उससे प्रभावित हो उठते हैं वे जनसेवा कर भी नहीं सकते। इसलिए वे कर्मयोग के उपयुक्त पात्र भी नहीं होते। उपयुक्त पात्र बनने के लिए कुछ समय पृथक रहना उनके लिए आवश्यक हो जाता है इसलिए देखने में वे भले ही संन्यास योगी दिखाई दें पर होते हैं वे कर्मयोगी, क्योंकि कर्मयोगी बनने के लिए- जनसंघर्ष में आने के लिए वे अपने को योग्य बनाते हैं।

यह भी कभी कभी देखने में आया है कि जन संघर्ष से अकुलाकर शिथिल होकर कुछ व्यक्ति संन्यास ले लेते हैं। वे अपने से निराश हो चुके होते हैं यद्यपि वे युवा ही रहते हैं लेकिन जैसे जैसे उनकी साधना बढ़ती जाती है, निराशा उन पर से अपना दबाव हटाती जाती है। और वे धीरे धीरे साधना की परिपक्वता प्राप्त करते हुए कर्मयोगी हो जाते हैं। उद्देश्य कर्मयोग न होने पर भी संन्यास योग के अनुकूल उनका स्वभाव नहीं होता इसलिए संन्यास योग में उतर जाने के बाद भी वे कर्मयोगी बन जाते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि दाँभिकपन न हो और निठल्लेपन में रह कर जीवन बिताने की वृत्ति न हो, उनका जीवन प्रमाद से न घिर गया हो तो कोई युवा, युवात्मक शक्ति रहते हुए संन्यास योग में टिका रह ही नहीं सकता, उसे तो कर्मयोग की ओर प्रवृत्त होना ही पड़ता है। स्वामी विवेकानन्द का जीवन इस कर्मयोग से ओत प्रोत दिखाई देगा। यद्यपि वे संघर्ष से भाग कर संन्यासी नहीं हुए थे फिर भी उनकी युवात्मक वृत्तियों ने उन्हें कर्मयोग के मार्ग का ही पथिक बनाया था। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी का जीवन भी कर्मयोगी का जीवन है।

गृह छोड़कर कर्मयोगी बना जा सकता है क्या? यह एक प्रश्न है जिसे अक्सर लोग पूछ बैठते हैं क्योंकि उनके दिमाग में एक ही बात भरी रहती है कि गृहस्थ जीवन में रहकर ही कर्मयोग किया जा सकता है। भगवान कृष्ण और राजर्षि जनक के उदाहरण भी पेश किये जाते हैं। लेकिन गृह छोड़ना ही संन्यास नहीं है। जो गृह के संकुचित दायरे को तोड़कर उसे विस्तृत बनाते हैं। जो गाँव को, जिले को, प्रान्त को, देश को और उसी क्रम से समस्त विश्व को अपना घर बना लेते हैं वे घर के संकुचित दायरे में बंधे भी नहीं रहते। जो बंधे हुए दिखाई देते हैं, वे भी वास्तव में उस सीमा का अतिक्रमण कर चुके होते हैं। हाँ, घर में रहकर घर के संघर्ष का मुकाबला करना, फिर समाज, जाति, देश और विश्व के संघर्ष में अपने आपको डालकर उसे पार करना सचमुच ही वीरता का काम है। इसलिए जो गृही है और प्रत्येक संघर्ष का वार सहते हुए कर्त्तव्य पथ पर सहिष्णुता एवं निष्पाप जीवन बनाये हुए आगे बढ़े जा रहे हैं, जनसेवा कर रहे हैं, वे महान् हैं परन्तु घर की सीमा का अतिक्रमण करके, घर को छोड़कर जिन्होंने समाज सेवा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है, वे भी कम महत्व के नहीं हैं। शंकराचार्य का जीवन इस दृष्टि से आदर्श है। कर्मयोग जन सेवा के उत्तर दायित्व से मुक्त होने का पाठ नहीं पढ़ाता बल्कि जन सेवा तो उसकी आदर्श प्रधान पीठिका है।

युवा होते हुए भी जनसंघर्ष से बचना और आत्मशान्ति ही प्राप्त करना चाहते हैं वे शारीरिक दृष्टि से भले युवा हों पर आत्मदृष्टया वे अवश्य वृद्ध हो चुके हैं। ऐसे युवा वृद्ध हो सकते हैं कि संन्यासयोग में उपयुक्त बैठ जावें।

गृह त्याग कर कर्मयोग का अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति से गृही होकर कर्मयोगी बनने वाले व्यक्ति की विशिष्ट महत्ता को नहीं भूला जा सकता। क्योंकि गृह त्यागने के पश्चात् गृही होने की अवस्था में जिन विपत्तियों, परेशानियों और चिन्ताओं का सामना करना पड़ता है, उनसे वह मुक्त रहता है। गृही इनका सामना करते हुए जनसंघर्ष में कदम उठाता है। इसलिये गृही को कर्मयोगी बनने में संन्यासी बनकर कर्मयोग की साधना करने से अधिक कठिनाई है। पर जो जितनी अधिक कठिनाईयों को सहन करते हुए अविचलित होता है वह उतना ही महान् योगी होता है इस दृष्टि से गृहस्थ कर्मयोगी की प्रशंसा की जाती है। यहाँ तक कि उसी को कर्मयोगी कहा जाता है जो घर में रहकर, घर की जिम्मेदारियों को पूरा करता हुआ विश्वकल्याण में दत्तचित्त होता है।

पर जो शिथिल हो गये हैं, वे सिसकते हुए जीवन यापन करें इसकी अपेक्षा संन्यास लेकर आत्म शान्ति की साधना में विलीन हो जावें यह ज्यादा अच्छा है। इसीलिए वृद्धावस्था प्राप्त होने पर व्यक्तियों को सांसारिक मोह छोड़कर आत्मशान्ति के लिए संन्यासयोग की अवश्य दीक्षा लेनी चाहिए। शास्त्रों में भी अन्त्ययोग अर्थात् संन्यास योग लेकर शरीर छोड़ने की बात का समर्थन किया है।- योगेनान्ते तनुत्यजाम्।

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