
अति संग्रह और व्यर्थ संग्रह
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(श्रीमती प्रीतम देवी महेन्द्र)
“इस चीज की कभी आवश्यकता पड़ेगी” ऐसी आवश्यकता को लेकर हमारे परिवारों में जो अति संग्रह और अनावश्यक वस्तुओं, बच्चों, टूटी-फूटी कुर्सियों, ओढ़ने-बिछाने के कपड़ों, चारपाई, फर्नीचर, टूटे या घिसे बर्तन, रद्दी कागज अथवा पुरानी पुस्तकें, टूटी मशीनों अथवा गाड़ियों के पुर्जे, इस्तेमाल की हुई स्टेशनरी का सामान, पुरानी बोतलें, शीशियाँ, शीशा, कंघे, चाकू, ब्लेड, ताश, शतरंज, खिलौने आदि खेलने की वस्तुएँ, चप्पलें, झाड़ू, झाड़न, चश्मे, तस्वीरें और उनके फ्रेम आदि को जमा कर रखने का रोग-सा लगा हुआ है। फालतू चीजें जिनका जीवन में शायद उपयोग न हो मानव सदय में संचित मोह और मानसिक दरिद्रता और गन्दगी का सबसे बड़ा कारण है। जो वस्तु हमारे काम नहीं आ रही है। सम्भवतः वह दूसरों के काम आ सके। अतः मोहवश अनावश्यक वस्तुओं को एकत्रित रखने से हम दूसरों को उनकी आवश्यकता की वस्तुओं से वंचित रखते हैं और समाज में वैषम्य, वैमनस्य और अभाव का बीज बो देते हैं।
समाज में भिन्न-भिन्न स्तरों के व्यक्ति हैं जिनसे आपका निकट या दूरी का सम्बन्ध है। जिसको आपकी वस्तुओं की आवश्यकता है, यदि वे मुफ्त में या कम दामों में दूसरे के पास चली जायें, तो आपकी समाज के प्रति उदारता की परिचायक है। आपके घर के कबाड़खाने से मजदूरों, मेहतरों, गरीबों, जमादारों की छोटी-मोटी आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकती हैं। किसी को तन ढ़कने के लिए वस्त्र मिल सकते हैं, जो आपके वहाँ गल सड़ कर अथवा कीटाणुओं द्वारा नष्ट हो जाते। जो कागजों के ढेर आप मोहवश नहीं फेंकते, उनसे दुकानदार काम निकाल सकते हैं और आपको अपनी सभी आवश्यकता के लिए कुछ धन भी प्राप्त हो सकता है। घर की भरी हुई अलमारियाँ व्यर्थ मच्छर उत्पन्न करती हैं, स्वच्छ वायु का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है।
आज प्रत्येक परिवार में एक कबाड़खाने को रखने की आदत-सी बन गयी है। चाहे घर में बैठने के लिए पर्याप्त स्थान न हो पर कबाड़खाना जरूर रहेगा। प्राचीन संस्कारों में पली हुई स्त्रियाँ कबाड़खाने से इतना प्रेम रखती हैं कि काम में आये हुए मिट्टी के टूटे बर्तन भी नहीं दूर करना चाहतीं। इनकी यह मोह-भावना उनके अन्तःकरण में जमी हुई आर्थिक मानसिक दरिद्रता और गन्दगी की सूचक है। इनसे अनेक गरीब गरजमन्दों की गृहस्थी की गाड़ी आगे सरक सकती है।
घर के इन कबाड़खानों का अनुभव हमें तब होता है जब स्थानान्तर करना पड़ता है अथवा तबादला हो जाता है। पिछले दिनों पाकिस्तान जाने वाले और भारत आने वाले शरणार्थियों के ये कबाड़खाने बाजारों की सड़कों पर आ गये थे और इन्हें धूप और वायु का स्पर्श हुआ था कुछ वस्तुओं की बिक्री के अनन्तर शेष का मोह त्याग कर उन्हें फेंक देना पड़ा था। गनीमत समझिये जो हजारों परिवारों को इन कबाड़खानों से मुक्ति मिली।
‘मनुष्य की आर्थिक सुव्यवस्थिता, आर्थिक स्वतन्त्रता और निश्चिन्तता तथा आर्थिक संक्षिप्तता सादगी का सम्बन्ध उनके ऊंचे से आचारिक और आध्यात्मिक जीवन से है और एक तरह से यही उसकी आधार शिला है।’
वास्तव में उपरोक्त विचारों में गहरी सत्यता है। आर्थिक संक्षिप्तता का तात्पर्य यह है कि मनुष्य की निजी आवश्यकताएँ कम से कम रहें उसका कम वस्तुओं के प्रति मोह भाव हो, उसका अहं कम चीजों से व्याप्त रहे तब मानसिक शान्ति का अधिक अनुभव किया जा सकता है। तब हमारा मन घर की अनेक टूटी-फूटी बेकार वस्तुओं में लिप्त रहता है, तनिक-सी वस्तु के पार्थक्य से मानसिक वेदना होती है, तो मनः शान्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है ?
कम तथा केवल आवश्यक वस्तुओं से ही सादगी का आडम्बर विहीन सरल जीवन व्यतीत करना आध्यात्मिक जीवन का प्रवेश-द्वार है। महात्मा गाँधी जैसी विभूति आवश्यकताओं की कमी, आर्थिक संक्षिप्तता सादगी तथा आचारिक सरलता का महत्व प्रकट करती है। उन्होंने कम से कम वस्तुओं, केवल आवश्यक वस्तुओं से ही काम चलाया, अपने लिए एक धोती, चप्पल, घड़ी, लकड़ी, चश्मा इत्यादि से अधिक व्यय न किया। आज के युग में केवल आवश्यक वस्तुएँ रखकर अनावश्यक से दूर रहने का सन्देश श्री बिनोवा भावे दे रहे हैं।
क्या यह अच्छा हो कि भविष्य में हम असामाजिक और अनैतिक व्याधि से बचने का यत्न करें।