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Magazine - Year 1954 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्मा का आदेश पालन करें।

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First 3 5 Last
(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

1- एक छोटा बालक, जो बड़ा होकर एक प्रसिद्ध आत्मवेत्ता बना, ने चार वर्ष की अल्पायु में प्रथम बार एक छोटा-सा कछुआ देखा, उसे यह छोटा सा जानवर रेंगते देखकर विस्मय हुआ। उसके मन में आया कि तनिक लकड़ी से मार कर देखूं तो सही, यह अपना नन्हा सा मुँह हाथ पाँव कहाँ छिपाता है?उसने मारने के लिए लकड़ी उठाई, लेकिन............... न जाने मन के अन्दर से किसी ने लकड़ी मारने से रोक ली। वह कछुये को न मार सका, तनिक सी चोट न पहुँचा सका। इस घटना का वर्णन स्वयं करते हुए बाद में उन्होंने लिखा-

“न जाने मन, आत्मा या हृदय की किस अज्ञात शक्ति ने मेरा हाथ जकड़ लिया। मैं उस अबोध पशु को कुछ भी हानि न पहुँचा सका। मैं मुश्किल से लकड़ी कछुए की पीठ तक लाया हूँगा कि किसी अज्ञात शक्ति ने मेरे हृदय में कहा- “यह क्या करते हो? अबाध कछुये को हानि पहुँचाना तो पाप है। कही ऐसा महापाप मत कर बैठना। देखो, सम्हलो, हाथ सम्हालो, अनजान गरीब कछुये को मार कर पाप के भागी न बनना। जो किसी को हानि न पहुँचाए ऐसे जीव को मारना महापाप है।” इन विचारों से मैं ऐसा भर गया कि इच्छा होते हुए भी उस कछुये को मार न सका। शरीर पर जैसे मेरा प्रभाव न था, वह किसी अज्ञात शक्ति के काबू में था। मैं भागा-भागा घर माँ के पास पहुँचा और उनसे पूछा कि “यह कर्म बुरा है, यह पाप है, पाप से दूर हटो” कहने वाला कौन था? माताजी ने अत्यन्त प्रेम से मेरे अश्रु पोंछते हुए मुझे समझाया-

“बेटा, कोई इस शक्ति को अन्तरात्मा कहता है, कोई इसे आत्मध्वनि के नाम से पुकारता है, किन्तु सत्य बात तो यह है कि यह मनुष्य के अन्तर में स्थिर परमेश्वर की आवाज है, जो भले बुरे का विवेक करती है। यदि तुम आत्मध्वनि के आदेश को ध्यान से सुनोगे और उसके आदेशानुसार कार्य करोगे, तो यह ध्वनि तुम्हें अधिक साफ, अधिक स्पष्ट और अधिक ऊंची सुनाई पड़ेगी। सदैव सीधा और कल्याणमय मार्ग प्रदर्शित करेगी। किन्तु यदि तुम इसकी उपेक्षा करोगे तो धीरे-धीरे यह लुप्त हो जायेगी और तुम्हें बिना पथ-प्रदर्शन के गहन अन्धकार में भटकने के लिए छोड़ देगी।”

2- आत्म-ध्वनि या अन्तरात्मा का आदेश मनुष्य का एक दैवी गुण है। मनुष्य की आत्मा ही उसे उचित-अनुचित, सत-असत, नीर-क्षीर का विवेक करने वाली शक्ति है अन्य पशुओं में औचित्य दिखाने वाली कोई शक्ति नहीं पाई जाती है।

संसृति जात प्रत्येक मनु तनुज देहधारी का शिशुत्व अत्यन्त पवित्र एवं निर्लेप होता है। बालक के हृदय में भगवान बोलता है। उसकी निर्दोष आँखों से दैवी तत्व झलकता है। स्वार्थ या ईर्ष्या का नृत्य उसके मन में नहीं होता। साँसारिक लोभ स्वार्थ या दुरभिसन्धि उस पर अपना प्रभुत्व नहीं जमा सकती, कुवासनाएं उसे अस्त-व्यस्त नहीं कर सकती। बालक का निर्लेप मन नैसर्गिक रूप से किसी भी क्रिया के अनुकरण में तत्पर रहता है। बचपन की प्रत्येक दलित इच्छा या गुप्त मन में बैठी हुई वासना अपनी प्रतिक्रिया डाले बिना नहीं रहती। इन क्रियाओं की अच्छाई-बुराई के बारे में प्रायः हम अपरिचित होते हैं। आत्मध्वनि ही वह दैवी संकेत है जो हमें पग-पग पर बुराई और पाप से रोकती है। ज्यों−ही हम कोई गन्दा काम या पापकर्म करने की ओर प्रवृत्त होते हैं, त्यों−ही आत्मा हमें धिक्कारती या कचोटती है कि हम अनिष्ट मार्ग पर न जायं, पाप से बचें, दुष्कर्म से अपनी रक्षा करें।

आत्मा की आवाज प्रत्येक मनुष्य में सुन पड़ती है। हो सकता है कि अधिक पापों के कारण इस पर मैल मिट्टी जम जाय और यह कुछ फीकी-सी पड़ जाये। किन्तु यह रहती है अवश्य। किसी में तीव्र तो किसी में मन्द। धर्म भीरु, ईश्वर निष्ठ, भक्तों के हृदय में अंतर्ध्वनि बढ़ी तेजी से बोलती है। उनकी रक्षा करती तथा पथ-प्रदर्शन करती है। दुष्ट, पापी व्यक्तियों में अनाचार के कारण यह मोह स्वार्थ और हिंसा में दब सी जाती है।

आत्म-आदेश मनुष्य को मिला हुआ एक दैवी वरदान है, जो आनन्दकनद परमेश्वर की ओर से मनुष्य को सत्पथ पर अग्रसर होने के लिए दी गई है। हमारी आत्मा निर्विकार और अलिप्त है। उसमें किसी प्रकार का मैल नहीं। यही आत्मा हमारे शुभ कार्यों, सात्विक विचारों, भव्य भावनाओं और उत्कृष्ट इच्छाओं की प्रेरक शक्ति है। सर्वोत्कृष्ट ज्योति स्वरूप परमात्मा सबमें विराजमान हैं यही आत्म ज्योति है।

मनुष्य के स्वभाव का परिष्कार, आत्मोन्नति, सद्प्रवृत्तियों का विकास, आध्यात्मिक आनन्द कुछ कुछ इस आत्मतत्व पर निर्भर है कि हम अपनी आत्मध्वनि का कितना विकास करते हैं। आत्मध्वनि हमारे विकास की बात है। निरन्तर इसे सुनने तथा इसके अनुसार ध्यानपूर्वक कार्य करने से हमारी आत्मध्वनि और भी स्पष्टतर और तीव्रतर सुनाई देने लगती है यदि हम आत्मा की अवहेलना किसी कार्य या काल में करते हैं, तो आत्म निर्देश धीरे-धीरे धीमा पड़ जाता है और हमारे पाप कर्म उस पर अपनी जड़ जमा लेते हैं। चोर, डकैत, खूनी कातिल प्रायः सबमें उच्चतर आत्मा का निवास होता है किन्तु पुनः पुनः आत्मा के विरुद्ध जघन्य कार्य करने, आत्मा की अवहेलना करने से वह धीमी पड़ जाती है। कालान्तर में कोई दुष्कर्म, चोरी, डकैती, खून करते हुए उन्हें आत्मा की प्रताड़ना प्रतीत नहीं होती। बार-बार आत्मा की अवहेलना से अन्त में यह मृतप्राय हो जाती है। वह व्यक्ति दया का पात्र है, जिसकी आत्मा दुष्कर्मों और पापों के कारण मर गई है।

3- आत्मध्वनि क्या है? यह हमारे हृदय में विराजमान परम प्रभु हैं परमेश्वर का अस्तित्व प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मंदिर में है। विशुद्ध भाव से सुनने वाले को हमारे हृदय में बैठे-बैठे भगवान हमें उचित राह पर चलने का आदेश दिया करते हैं। जो व्यक्ति धार्मिक कृत्यों, साधनों, इन्द्रियों के संयम द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं और अनन्य शरणागति को प्राप्त होते हैं, उन्हें अंतर्ध्वनि स्पष्ट सुन पड़ती है। आत्मा की आवाज का उठना स्वयं एक शुभ लक्षण है। उस पर भगवत्कृपा समझनी चाहिए। यही आत्मध्वनि जीवात्मा को संसार बन्धन से मुक्ति कर सकती है जो आत्मध्वनि हमें सत्पथ पर अग्रसर करती है वही आत्मा का बन्धन है परमात्मतत्व की प्रतीति इसी तत्व से होती है।

आत्मध्वनि अन्दर रहने वाले ईश्वर का आदेश है। हमारा हृदय एक देवालय है, जिसमें परमेश्वर का निवास है।

“तुम नहीं जानते हो कि तुम देवता के मन्दिर हो और परम देवता तुम्हारे हृदय में हैं” (बाइबिल)

“उपद्रष्टा अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा नाम से अभिहित पुरुषोत्तम देह के भीतर स्थित रहते है।” (गीता 13।23)

“हे मरणधर्मशील मानव! तुम अपने को जानो, क्योंकि तुम्हारे भीतर तथा अन्य सभी के भीतर एक अद्वितीय देवता है, जो बाहर आकर संसार के रंग मंच पर नानाप्रकार से अभिनय करता है तथा प्रमाणित करता है कि ईश्वर है।” (रिसरेक्शन लार्ड सिशग्मा)

यदि तुम वास्तविक आध्यात्मिक उन्नति चाहते हो, तो आत्मा की आवाज ध्यानपूर्वक सुनो और तदनुसार कार्य करो प्रत्येक शुभ सात्विक देवोचित शक्ति का उद्गम स्थान स्वयं तुम्हारे अन्तर में विद्यमान है। संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तुएं केवल इसी तत्व में समाई हैं कि मनुष्य आत्मिक शक्तियों का कितना विकास करता है। यदि आत्मध्वनि के निर्देश पर चलता रहे तो उसकी उन्नति निश्चय है।

जो मनुष्य संसार में सफल जीवन के अभिलाषी थे, उन भक्त आध्यात्मिक पुरुषों ने प्रथम कार्य अपनी अन्तरात्मा को जाग्रत करने का किया था। अन्तःकरण द्वारा ध्यान से सुनने पर हम परमात्मा की आज्ञा को जान सकते हैं। यदि आप अन्तःकरण की आज्ञा का पालन सीख ले, तो मोटी-मोटी धार्मिक पुस्तकों में अटके रहने की कोई आवश्यकता न रहे, क्योंकि वे भारी भरकम ग्रन्थ भी अन्तरात्मा के सदुपयोग का परिणाम है। अन्तःकरण की आवाज का आदेश-पालन ही दुनिया के तमाम धर्मों का मूल है।

कहते हैं एक बार एक रोमन राजनीतिज्ञ बलबाइयों के साथ पकड़ा गया। बलबाइयों ने उससे व्यंगपूर्वक पूछा- “अब तेरा किला कहाँ है? अब तू किस के बल पर अकड़ेगा?” उसने हृदय पर हाथ रखकर कहा, “यहाँ मेरा परमात्मा मेरे अन्दर है। वह मेरा रक्षक है। उसके बल पर मैं सदा ऊँचा रहूँगा।” ज्ञान के जिज्ञासुओं के लिए यह उत्तर बड़ा मर्मस्पर्शी है जो दूसरों का सहारा चाहते हैं, जो सदा एक न एक अगुआ ढूँढ़ा करते हैं, उनसे मैं कहूँगा, “ओ थोथी विचारधारा वाले हलके मनुष्यों! तुम अपनी अन्तरात्मा के, हृदय में स्थित परमेश्वर के दृढ़ आश्रय को ढूंढ़ो, उसी पर डटे रहो, उसी पर विश्वास लाओ, उसका सम्मान करो।”

संसार में ऐसे अनेक दृढ़ चित्त महापुरुष हो गये है जिन्होंने मरते दम तक अन्तरात्मा की टेक नहीं छोड़ी। सत्यवादी हरिश्चन्द्र, महाराणा प्रताप वीर हकीकत राय, स्वा. विवेकानन्द, रामतीर्थ, महात्मा गाँधी अन्तरात्मा के पथ पर अग्रसर रहे। ये आत्मिक विकास के अनुकरणीय आदर्श है। इन जैसा दृढं आत्माज्ञाकारी पुरुष होना असम्भव है।

पाप यथार्थ में कहाँ है? कोई बात तुम्हारी अन्तरात्मा में चुभे और तुम उसकी परवाह न करो, तो तुम पाप कर रहे हो। क्या आत्मध्वनि की उपेक्षा परमात्म ध्वनि की अवहेलना नहीं है? क्या यह अपमान उस परमेश्वर की प्राकृतिक नियम सीमा का उल्लंघन नहीं है? याद रखिये आत्माज्ञा का उल्लंघन करना, आत्मा की पुकार की अवहेलना अवनति की ओर अग्रसर होना है। आत्म हनन से हम अपने ही लिये अच्छा नहीं करते, प्रत्युत स्थानीय वातावरण को कुचेष्टा के कुविचार से कलुषित कर देते हैं। अन्तःकरण की हत्या करना मानों स्वयं अपनी हत्या कर लेना है। जिनकी अन्तरात्मा नष्ट हो चुकी है, हाय, उन्होंने अपने सबसे बड़े हितैषी, मित्र और पथ-प्रदर्शक को खो दिया हैं वे वास्तव में उन अन्धों के समान है, जो बिना लाठी के गहरे और ऊँचे गार में छोड़ दिये गए है। उस व्यक्ति का पाप-पंक से उद्धार होना कठिन है, क्योंकि बिना अन्तरात्मा के विकास, धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं हो सकता, और न धर्म पर दृढ़ विश्वास ही।

4- आत्मा के आदेश की अवमानना का परिचित चिह्न क्या है? हम किस प्रकार जाने कि हम आत्माज्ञा का कहना नहीं मान रहे है? इसके चिह्न है भय, लज्जा और विषाद तथा प्रसन्नता। प्रथम तीनों मनोभावों की उत्पत्ति तब होती है जब हम किसी अनाचार या कुचेष्टा के करने में आत्माज्ञा का उल्लंघन करते हैं। जहाँ हमने दुष्कर्म में हाथ डाला कि तुरन्त मन में एक संकोच की उत्पत्ति होती है जो उस कुकर्म को करने में प्रतिषेधक सिद्ध होती है। तदनन्तर यह प्रतिसेध्य कार्य का परिणाम भी प्रकाशित करती है कि “यदि तू ऐसा पाप कर्म करेगा, तो तेरा भविष्य अन्धकारमय हो जायेगा, तेरी प्रतिष्ठा ओर कीर्ति में कलंकारोप होगा।

जो व्यक्ति अन्तरात्मा की हत्या करता है, उसके मन में एक गुप-चुप पीड़ा सदा चुभती रहती है। वह दैवी प्रकोप से भयभीत रहता है। तत्पश्चात् लज्जा उसकी काया में प्रवेश करती है और वह किसी प्रतिष्ठित से चार आँखें नहीं कर पाता। यदि उसके पुण्य एवं शुद्ध संस्कार जोर मारते है, तो एक दिन वह जागृत हो उठता है और उसे अपनी भयंकर भूल का ज्ञान होता है। आत्माज्ञा के पालन में वह पुनः अपनी भूल सुधार कर सुख तथा आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त करता है। महर्षि बाल्मिकि पहले एक डाकू थे। यकायक एक दिन उनकी अन्तरात्मा जाग्रत हुई और वे परम विद्वान बन गये थे।

यह पश्चाताप, जो आत्मा के आदेश के पालन न करने के कारण मन में उत्पन्न होता है, अनुभवशीलों के जीवन के सुन्दर बनाने में सहायक होता है। गन्दगी, पाप, कुपथ की कुरूपता से परिचित जो व्यक्ति जीवन की विपत्ति की कसौटी पर कसा जा चुका है और खरा है, ऐसा व्यक्ति फिर पाप पंक में नहीं फंसता।

प्रिय पाठक! यदि तुम शान्ति, सामर्थ्य और शक्ति चाहते हो तो अपनी अन्तरात्मा का सहारा पकड़ो। तुम संसार को धोखा दे सकते हो किन्तु अपनी आत्मा को कौन धोखा दे सकता है? तुम दुनिया की आँखों में धूल झोंक सकते हो, पण्डित, विद्वान, धनी, महात्मा सब कुछ बन सकते हो, पर यदि तुम्हारी अन्तरात्मा शक्तिवान, प्राणवान जाग्रत नहीं है, यदि तुम उसकी अवहेलना करते हो, तो तुम्हारे हृदय में एक गुपचुप पीड़ा अवश्य होती रहेगी। यह है आपकी अन्तरात्मा की महान शक्ति। इसे साधने से सब-सब जायेगा।

अन्तःकरण को बलवान बनाने का उपाय यह है कि आप कभी उसकी अवहेलना न करें। वह जो कहे, उसे सुनें और कार्य रूप में परिणत करें, किसी कार्य को करने से पूर्व अपनी अन्तरात्मा की गवाही अवश्य लें। यदि प्रत्येक कार्य में आप अन्तरात्मा की सहमति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक कभी नष्ट न होगा। दुनिया भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अन्तरात्मा का पालन कर सकें, तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता।

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