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Magazine - Year 1954 - Version 2

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यज्ञ द्वारा अनेक प्रयोजनों की सिद्धि

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First 13 15 Last
प्राचीन काल में ऋषियों और देवताओं ने जो कुछ पाया था उसमें यज्ञ विद्या का उपयोग सर्वाधिक किया गया था। कहा भी गया है -

यज्ञेन हि देवा दिवाँगता यज्ञेना सुरा नपानुदन्तः यज्ञेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति,

यज्ञे सर्व प्रतिष्ठितम् तस्माद्यज्ञं परमं वदन्ति।

अर्थात्- यज्ञ से ही देवताओं ने स्वर्ग का अधिकार प्राप्त किया। यज्ञ से ही असुर हराये गये। यज्ञ से ही शत्रु मित्र बन जाते हैं। यज्ञ में अनन्त लाभ भरे हुए हैं। यज्ञ की महिमा महान है।

सकाम यज्ञों के विस्तृत विधान एवं रहस्यमय विज्ञान हैं। आज उनकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। कुछ ग्रन्थ तो मुसलमानी शासन काल में ही नष्ट हो गये। जो बचे है उनके मर्मज्ञ विद्वान याज्ञिक रहे वे इतने लोभी रहे कि बिना पुष्कल दक्षिणा के कुछ करते नहीं, साधारण स्थिति के लोग उनकी योग्यता से लाभ न उठा सके। अनेक मतमतान्तरों के फैल जाने और विद्या का अभाव हो जाने से लोग वेद ज्ञान से वंचित हो गये। उनके महत्त्वों एवं रहस्यों तक को भूल गये। न तो यज्ञ प्रेमी यजमान रहे न कर्मनिष्ठ याज्ञिक ऐसे विद्वान रहे जिनको यज्ञ विद्या की समुचित जानकारी एवं अभ्यस्तता हो। ऐसी दशा में आज यज्ञ का वह महत्वपूर्ण विज्ञान जो हमारे पूर्वजों को ज्ञात है। हमें प्राप्त नहीं।

राजा नहुष यज्ञों द्वारा ही इन्द्रासन का अधिकारी बना था। ऋंगी ऋषि ने राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था और उसी के प्रभाव से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न उत्पन्न हुए थे। राक्षसों के उत्पातों से दुखी होकर उन्हें समूल नष्ट करने के लिए विश्वामित्र ऋषि ने एक विशाल यज्ञ आयोजन किया था। राक्षस लोग अपनी प्राण रक्षार्थ उस यज्ञ को नष्ट करने के लिए जी−जान से प्रयत्न कर रहे थे। इसी यज्ञ की रक्षा के लिए विश्वामित्र जी राम और लक्ष्मण को ले गये थे। जब लंका पर राम ने चढ़ाई की और राक्षसों को लगा हमारी पराजय होने जा रही है तो उन्होंने भी एक प्रचण्ड तान्त्रिक यज्ञ रचा था, यदि वह सफल हो जाता तो रावण आदि का उस लड़ाई में पराजित होना सम्भव न होता। वानरों ने उस यज्ञ को जान हथेली पर रखकर विध्वंस किया था। राजा बलि ने इतने यज्ञ किये थे कि वह वह अपने समय का सर्वोपरि शक्तिवान व्यक्ति बन गया था यदि उसके एक दो यज्ञ ही और हो जाते तो फिर राक्षस वर्ग की प्रभुता संसार पर अनिश्चित काल के लिए स्थिर हो जाती और विश्व में हाहाकार मच जाता। इस संकट से संसार की रक्षा करने के लिए भगवान को छल तक का आश्रय लेना पड़ा। वामन रूप बनाकर उन्होंने बलि को छला और उसको असफल बनाकर असुरों का प्रभुत्व स्थापित होने से बचाया। राजा जन्मेजय ने अपने पिता परीक्षित का बदला नागों से चुकाने के लिए नाग यज्ञ किया था। जिसमें मंत्रों की आकर्षण शक्ति से असंख्यों नाग आकाश मार्ग से खिंचे चले आये थे और यज्ञ कुण्ड में अपने आप आहुति रूप में गिरते थे। इस यज्ञ से अपनी प्राण रक्षा के लिए वासुकी इन्द्रासन से जा लिपटा था, जब इन्द्र भी वासुकी के साथ-साथ कुण्ड में गिरने के लिए मन्त्र व्रत से खिंचने लगा तब कहीं वह नागयज्ञ समाप्त कराया गया।

राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए एक ऐसे बलिष्ठ पुत्र की कामना की थी जो उनसे अधिक बलवान तथा शास्त्र विद्या का ज्ञाता हो। ऐसा पुत्र प्राप्त करने के लिए उन्होंने यज्ञ कराया। यज्ञ के अन्त में जब पुत्रोत्पादक पुरोडास (खीर) बन कर तैयार हुई और जो अत्यन्त स्वल्प काल उसे खाने के लिए नियत था, उस समय दुर्भाग्य वश रानी झूठे मुँह थी। मुहूर्त व्यतीत होता देख यज्ञ कर्ता ने उस खीर को यज्ञ कुण्ड में ही पटक दिया। उसी समय धृष्टद्युम्न और द्रौपदी यज्ञ कुण्ड में से निकले। और अन्त में उन्हीं से द्रोणाचार्य की मृत्यु हुई।

इस प्रकार की असंख्यों घटनाएँ प्रत्येक इतिहास पुराण में भरी पड़ी है। स्वयं भगवान ने अपने चौबीस अवतारों में एक अवतार ‘यज्ञ पुरुष’ का धारण किया है। यज्ञों की महिमा का कोई अन्त नहीं। इस युग में जिस प्रकार विभिन्न प्रकार की शक्तियों, भाप, कोयला, अग्नि, पेट्रोल, बिजली, जल, पवन, एटम आदि के द्वारा उत्पन्न की जाती है उसी प्रकार प्राचीन काल में यज्ञ कुण्डों और वेदियों में अनेकों रहस्यमय मन्त्रों, एवं विधानों द्वारा उत्पन्न की जाती थी। इस समय अनेक प्रकार की मशीनें अनेक कार्य करती हैं उस समय मन्त्रों और यज्ञों के संयोग से ऐसी शक्तियों का आविर्भाव होता था जिनमें बिना किसी मशीन के मनुष्य सबकुछ कर सकता था इसको ऋद्धि-सिद्धियाँ कहते थे। देवता और असुर दोनों ही दल इन शक्तियों को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे।

जिस प्रकार प्राचीन काल के विशाल भवनों के खंडहर अब भी जहाँ-जहाँ मिलते है और उसी से उस भूतकाल की महत्ता का अनुमान लगता है। उसी प्रकार यज्ञ विद्या की अस्त-व्यस्त जानकारियाँ जहाँ-तहाँ क्षत-विक्षत रूप से प्राप्त होती है। अनेक प्रकार के अलग-अलग विधान मिलकर एक स्थान में एकत्रित हो गये हैं और गाय-घोड़ा के जुड़े हुये अंगों की तरह एक विलक्षण स्थिति में खड़े हुये हैं। आज ऐसी ही अस्त-व्यस्त यज्ञ पद्धतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इनका संशोधन करना और यथावत उन विशिष्ट पद्धतियों को अलग-अलग करके उसका सर्वांग पूर्ण स्थापना भूत काल की भाँति करना एक ऐसा कार्य है। जो प्राचीन भारतीय विद्याओं की गुप्त शक्तियों के अन्वेषण में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को पूरी तत्परता के साथ करनी है। इस शोध की जिम्मेदारी ऐसी है जिसे पूरा करके ही हम ऋषि ऋण से उऋण हो सकते हैं।

जिस प्रकार गायत्री विद्या की सर्वांग पूर्ण शोध के लिए पिछले तीस वर्षों से निरन्तर कार्य किया गया है, उसी प्रकार अब यज्ञ विद्या की शोध एवं सुव्यवस्था का कार्य हाथ में लेना है। इस विद्या की समुचित खोज होने पर भारतीय सूक्ष्म, चैतन्य विज्ञान, पाश्चात्य स्थूल जड़ विज्ञान की तुलना में अपना महान गौरव पुनः प्रतिष्ठापित कर सकता है। यज्ञ विद्या की सहायता से मानव जीवन के अनेकों कष्ट एवं अभाव दूर हो सकते हैं।

वेद मन्त्रों में तीन रहस्य हैं (1) उनकी भाषा का शिक्षात्मक स्थूल अर्थ (2) उनके उच्चारण से उत्पन्न होने वाली शब्द शक्ति का सूक्ष्म प्रभाव (3) उनमें सन्निहित शक्ति का यज्ञ आदि विशेष विधि विधानों के साथ उपयोग होने से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड शक्ति। आज कल लोग केवल मन्त्रों की शब्दावली का शिक्षात्मक अर्थ ही समझते हैं किन्तु वस्तुतः प्रत्येक वेद मन्त्र अपने गर्भ में महान विज्ञानमयी प्रचण्ड शक्तियों का भण्डार छिपाये बैठा है। जो तत्वदर्शी ऋषि इन मन्त्रों की शक्ति से परिचित है वे आगम और निगम सब के पारदर्शी हो जाते हैं।

विविध प्रकार के यज्ञ विभिन्न वेद मन्त्रों से होते हैं। उनका विधान ब्राह्मण ग्रन्थों तथा सूत्र ग्रन्थों में दिया हुआ है। अनुभवी याज्ञिक लोग परम्परागत ज्ञान के आधार पर भी उन विधानों को जानते हैं। ऐसे विधानों का वर्णन इन पंक्तियों में नहीं हो रहा है। उनकी पद्धतियाँ एवं जानकारियाँ तो धीरे-धीरे उपस्थित की जाती रहेंगी। इस समय तो गायत्री महामन्त्र तथा उससे संबंधित देव गायत्रियों के द्वारा होने वाले कुछ हवनों का उल्लेख किया जा रहा है। गायत्री महामंत्र के अंतर्गत 24 देव शक्तियों की अन्तःगायत्री हैं। इन अन्तः गायत्रियों का भी उपयोग होता है।

देव गायत्रियों द्वारा सकाम यज्ञों का सर्वांग पूर्ण सुनिश्चित विधान, जब तक उपलब्ध न हो तब तक अपूर्ण प्रयोगों से भी बहुत हद तक लाभ उठाया जा सकता है। नीचे कुछ ऐसे ही प्रयोग दिये जा रहे हैं जो यद्यपि अपूर्ण हैं फिर भी इनके द्वारा अनेक बार आशाजनक परिणाम उपस्थित होते देखे गये हैं।

देव गायत्रियों को स्वाहाकार के साथ कुछ विशेष प्रयोजनों में अमुक हवन सामग्रियों तथा अमुक समीक्षाओं का वर्णन है। यह प्रयोग बहुत सरल दीखते हैं पर वस्तुतः यह उतने सुगम नहीं है। किस व्यक्ति को, किस प्रयोजन के लिए, किस स्थिति में होम करना है उसे उसी के अनुसार अमुक मुहूर्त में, अमुक नियम पालन करते हुए, अमुक मन्त्रों के द्वारा अमुक वृक्ष के अमुक भाग की, अमुक प्रकार की समिधाएँ लानी होती हैं, और उनको विशेष मार्जनों, सिंचनों, अभिषेकों के साथ परिशोधन, शक्तिवर्धन, प्रमाणीकरण किया जाता है। तब वे समिधाएँ अपना प्रयोजन भली प्रकार पूर्ण करती हैं। इसी प्रकार जो हवन सामग्री इसमें लिखी हुई है वे देखने में बहुत सुलभ हैं पर उनके पौधों को बोने, सींचने, तोड़ने, परिमार्जित करने, सुखाने आदि के विशेष विधान है। दूध, दही, घृत आदि का जहाँ वर्णन है। वहाँ गौ, भैंस, बकरी आदि अमुक गति के पशु को अमुक प्रकार का ही आहार कराना, अमुक स्थानों का जल पिलाना अमुक मन्त्रों से दूध दुहना, उसे अमुक प्रकार की अग्नि से गरम करना, अमुक वस्तु के बने हुए पात्र में दही जमाना, अमुक काष्ट की रई से अमुक मन्त्र बोलते हुए दहि मंथन करके घी निकालना आदि का विस्तृत विधान छिपा हुआ है। हवन करने के दिनों में जो तपश्चर्यायें करनी पड़ती हैं उनके नियम भी अलग-2 हैं। इन सब विधानों के द्वारा ये साधारण समिधाएँ हवन सामग्रियाँ एवं विधियाँ भी विशिष्ठ महत्वपूर्ण बन जाती है। उन विधियों एवं नियमों में देश, काल, पात्र के अनुसार कुछ हेर-फेर भी करने पड़ते हैं। इस प्रकार की जानकारियाँ धीरे-2 संग्रह हो रही हैं और समयानुसार उनको छापा भी जायगा।

जब तक वैसी सर्वांगपूर्ण जानकारी उपलब्ध न हो तब तक साधारण रीति से भी नीचे लिखी हुई वस्तुएं निर्धारित देवगायत्रियों के साथ हवन किया जाए तो भी उसका परिणाम निश्चित रूप से अच्छा ही होगा। हानि की तो इसमें कोई संभावना है ही नहीं।

आत्म बल बढ़ाने के लिए :-

ब्रह्मतेज, आत्मबल, प्रतिभा, प्रभाव शालीनता आदि की अभिवृद्धि एवं पाप वृत्तियों को नष्ट करने के लिए ‘अग्नि गायत्री’ का प्रयोग किया जाता है। वेदमाता गायत्री की भाँति ही विभिन्न देवताओं की 24 गायत्री और भी है। इनके गुण और प्रभाव अलग-अलग है। अग्नि में पड़ कर जैसे साधारण वस्तुएँ भी अग्नि रूप हो जाती हैं। उसी प्रकार अग्नि गायत्री का प्रयोग करने से मनुष्य की अन्तः भूमिका अग्नि वर्ण हो जाती है, उसमें ब्रह्मतेज भर जाता है। इस अग्नि में भीतर के अनेक दुरित तथा पूर्व संचित कुसंस्कार भी जलकर नष्ट हो जाते हैं। अग्नि गायत्री का मन्त्र यह है-

ॐ भूर्भुवः स्वः महज्वालाय विद्महे।

अग्नि देवाय धीमहि। तन्नः अग्नि प्रचोदयात्।

इस अग्नि गायत्री के साथ विभिन्न हव्य पदार्थों के साथ होम करने से उनके जो परिणाम होते हैं उनके विवरण यह हैं :-

पलाशीभिखाप्नोति समिद्भिर्ब्रह्म वर्चसम्। प्लाश कुसुमैहुत्वा सर्वमिनष्ट मवाप्नुयात्॥

पलास की समिधाओं में हवन करने पर ब्रह्म तेल की अभिवृद्धि होती है। और पलाश के कुसुमों के हवन करने पर सभी इष्टों की सिद्धि होती है।

यवानाँ लक्ष होमेन घृताक्तानाँ हुताशने। सर्व काम समृतत्मा पराँ सिति मवाप्नुयात॥

यज्ञों में घी मिलाकर एक लाख बार अग्नि में आहुति देने से सब कामों की सिद्धि होती है तथा परा सिद्धि प्राप्त होती है।

ब्रह्म वर्चस कामास्तु पयसा जुहुयात्तथा। घृत प्लुतैस्तिलैर्वह्नि जुहुयात्सु समाहितः॥

ब्रह्म तेज की कामना करने वाला व्यक्ति सावधानी के साथ घृत युक्त तिलों से और घी से हवन करें।

गायत्र्ययुत होमाँच सर्व पापैः प्रमुच्यते। पापात्मा लक्ष होमेन पातकेभ्य। प्रमुच्यते॥

एक लाख आहुतियों से गायत्री द्वारा हवन करने से पापी मनुष्य भी बड़े पापों से छूट जाता है।

चन्दन द्वय संयुक्तं कर्पूरं तण्डलं यवम्। लवंग सुफलं चाज्यं सिता चाभ्रस्य दारुकैः। अयं न्यून विधिः प्रोक्तो गायत्र्याः प्रीतिकारकः।

दोनों चन्दन, कपूर, तणड्डल, यव, लवग, नारिकेल, भाज्य, मिश्री आम की लकड़ी यह वस्तुएँ गायत्री से प्रीति बढ़ाने वाली हैं।

क्षीरोदन तिलान्दूर्ण क्षीरद्रुम समिद्वरान्। प्रथक सहस्त्र त्रितयं जुहुयान्मन्त्र सिये॥

प्रणव युक्त 24 लाख गायत्री जप करके जप सिद्धि के लिए दूध, भात, तिल, दूर्वा तथा बरगद, गूलर, पीपल आदि दूध वाले वाले वृक्षों की समिधाओं से तीन हजार हवन करें।

तत्व संख्या सहस्राणि मन्त्र विज्जुत्यात्तिलैः। सर्व पापं विनिर्मुक्तो दीर्घ आयुः स विन्दति॥

तिलों से 24 हजार आहुति देने से होता समस्त पापों से छूट जाता है और दीर्घ जीवन पाता है।

उपरोक्त हव्य सामग्रियों तथा समिधाओं में अग्नि तत्व विशेष है। इनकी आहुतियाँ छोड़ने से निकटवर्ती वातावरण में तेज, उत्साह, स्फूर्ति एवं प्रेरणा का संचार होता है। आत्मिक तत्व, गुण एवं जल जागृत होकर हवन करने वाले में ब्रह्मतेज बढ़ाते हैं।

आत्मा और शरीर में ऊष्मा अग्नि तत्व बढ़ाने के लिये अग्नि गायत्री की उपासना उन विधि-विधानों के साथ की जाती है जो अग्निमय वातावरण उत्पन्न करते हैं। इसके द्वारा भीतर और बाहर प्रत्यक्ष प्रकाशवान तेज झलकने लगता है।

(क्रमशः)

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