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Magazine - Year 1956 - Version 2

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अहो मैं क्या था, क्या हो गया!

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( श्री॰ पं॰ रामनाथ वेदालंकर, एम॰ए॰, गुरुकुल काँगड़ी)

प्रायः व्यक्तियों, जातियों और देशों के जीवनों के इतिहास में उत्थान और पतन का चक्र परिवर्तन होता रहता है। जो आज शिखरारूढ़ है वही कल नीचे भूमि पर कुंठित होता हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने उज्ज्वल भूत को स्मरण कर वर्तमान को भी उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न करे। इसी भावना को जागृत करने वाला एक वैदिक वर्णन पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। नीचे जो उद्गार प्रकट किये गये हैं ये संसार के चक्र में फँसे एक जीवात्मा की ओर से समझना चाहिये—

मित्रो! आओ, आज मैं तुम्हें अपने अतीत और वर्तमान की कथा सुनाऊँ। मैं किस प्रकार एक उन्मुक्त पक्षी की भाँति स्वच्छन्द गगन में विहार किया करता था और अब पर-कटे पक्षी के समान नीचे गिरा पड़ा हूँ, वह सब कहानी तुम्हें कहूँ।

प्र मा युयुज्रे प्रयुजो जनानाँ, वहामि स्म पूषणमन्तरेण। विश्वे देवासो अध मामरक्षन् दुःशासुरागादिति घोष आसीत्॥

ऋ ग॰ 10। 33। 1

( जनानाँ प्रयुजः) मनुष्यों को प्रयत्न में प्रेरित करने वाली भावनाओं ने (प्रयुयुज्रे) मुझे प्रयत्न में प्रेरित किया हुआ था। मैं (अन्तरेण) अपने अन्दर (पूषणं वहामि स्म) परिपुष्ट सूर्य को धारण किये रहता था, या ‘पूषा’ प्रभु को धारण किये रहता था। अध) और (विश्वे देवासः सब दिव्य गुण, सब देवजन तथा

सब दिव्य प्राकृतिक पदार्थ (मामअरक्षन्) मेरी रक्षा करते थे। जहाँ कहीं मैं जाता था वहाँ (दुःशासुः आगात्) । ‘यह दुर्जेय पुरुष आ गया है’ (इति घोषः आसीत्) यह आवाज उठती थी।

एक दिन था जब कि मैं कटिबद्ध होकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण था। मेरे अन्दर अपार उत्साह था, असीम क्रियाशक्ति थी। प्रयत्न, प्रयत्न, पुनः प्रयत्न, बिना लक्ष्य पर पहुँचे दम न तेड़ना-यही मेरे जीवन-मार्ग का पाथेय था। जो भावनाएं मनुष्य को प्रयत्न में प्रेरित करती हैं वे मेरे अन्दर उमड़-उमड़ कर उठती थीं। मैं अपनी वर्तमान अवस्था से ऊँचा उठूँ, यही भावना मेरे अन्दर हिलोरें लेती थीं। मैं सोचता था कि भूमि से मैं अन्तरिक्ष में उड़ जाऊँ अन्तरिक्ष से द्युलोक में पहुँच जाऊँ और द्युलोक में भी अपनी उड़ान को विराम न देकर उससे भी आगे स्वर्लोक की यात्रा में संलग्न हो जाऊँ। मैं सोचता था कि मैं अहर्निश आगे बढ़ता रहूँ; जो मुझसे आगे हैं उन्हें भा पीछे छोड़ दूँ। मैं चाहता था कि विद्या में सर्वोपरि हो जाऊँ, धन में सर्वोपरि हो जाऊँ, राजनीति में सर्वोपरि हो जाऊं, अध्यात्म ज्ञान में सर्वोपरि हो जाऊं, अध्यात्म ज्ञान में राजनीति में सर्वोपरि हो जाऊं’, अध्यात्म ज्ञान में सर्वोपरि हो जाऊं’। इस प्रकार की मनुष्य को उच्चता की ओर प्रेरित करने वाली महत्वकाँक्षाओं से मैं प्रेरित था।

इसी का परिणाम था कि मैं अपने अन्दर ‘पूषा’ को धारण किये था। मेरे हृदयाकाश में मानो सदा परिपुष्ट सूर्य उदित रहता था। मेरे अन्तस्तल का एक-एक कोना परिपुष्ट सूर्य की रश्मियों से उद्भासित रहता था। कहीं भी अज्ञान, अविवेक, मोह, तामसिकता, ईर्ष्या, द्वेष, भय आदि के अन्धकार की सत्ता नहीं थी। साथ ही ‘पूषा’ नाम से स्मरण किये जाने वाले सर्वात्मा परिपुष्ट तथा सर्व पोषक अजर-अमर-अक्षय भगवान् को भी मैं सदा अपने हृदय में बसाये रखता था। प्रतिपल, प्रति कार्य में उन ‘पूषा’ प्रभु को मैं स्मरण रखता था।

उन दिनों मैं कभी अपने आपको असुरक्षित अनुभव नहीं करता था। सब दिव्य गुण, सब देवजन और सब प्राकृतिक दिव्य पदार्थ (विश्वे देवासः) मेरे रक्षक बने हुए थे। मेरे अन्दर विद्यमान अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान प्रभृति दिव्य गुण पाप, अनाचार, अनैतिकता आदि के बड़े से बड़े आँधी-तूफानों से मेरी रक्षा करते थे। साथ ही देश में रहने वाले सब मनुष्य देवजन भी मेरी रक्षा के लिए उद्यत थे। मुझे अपनी रक्षा की चिन्ता स्वयं नहीं करनी पड़ती थी, किन्तु मुझे अपना महान् नेता मान कर देशवासी ही मेरी रक्षा के लिए चिन्तित रहते थे। मुझे किंचितमात्र सिर दर्द होने पर देश के बड़े-बड़े चिकित्सक अपनी सेवाएं देने के लिए मेरे पास दौड़े चले आते थे। मुझे किंचितमात्र धन की आवश्यकता होने पर देश के बड़े-बड़े धनपति अपनी समस्त पूँजी मेरे चरणों में न्यौछावर करने के लिए लालायित रहते थे। मुझे किंचितमात्र शत्रु भय होने पर बड़े-बड़े वीर योद्धा मेरे लिए प्राण अर्पित करने को तैयार रहते थे, ऐसा गौरवमय मेरा जीवन था। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक पदार्थ रूपी जो तीसरी श्रेणी के देव हैं वे भी मेरे रक्षक बने हुए थे। सूर्य, वायु, अग्नि, पर्वत, नदी, समुद्र, पर्जन्य आदि किसी भी पदार्थ की शक्ति नहीं थी कि मुझसे विद्रोह करे। ऐसा महान् मेरा व्यक्तित्व था कि ये सब मानो मेरे अनुचर बने हुए थे।

इस प्रकार के महान् गुणों से अलंकृत मैं जहाँ भी जाता था वहीं मेरा स्वागत-सत्कार होता था। लोग मेरा जय जयकार करते थे। ‘दुःशासुः आगात्’, ‘दुःशासुः आगात्’—“स्वागत हो इस दुर्जेय का, स्वागत हो दुर्जेय का” यही नारा सबके मुखों से सुनाई देता था और जहाँ मैं पहुँचता था वहाँ के दुर्जनों के चेहरों पर भय के चिन्ह लक्षित होने लगते थे, तथा उनके मुखोंसे भी ‘दुःशासुः आगात्’ ‘दुःशासुः आगात्’—“ अरे, यह दुर्जेय आ पहुँचा, अरे यह दुर्जेय आ पहुँचा’ ऐसे भय मूल शब्द निकलने लगते थे। मैं दुर्जनों को विसदलित करता हुआ, सज्जनों को हर्षित करता हुआ अपनी ऊर्ध्वारोहण की यात्रा में प्रवृत्त रहता था।

यह है मेरे अतीत जीवन की एक झाँकी। पर अब? अब तो यह सब कहानी, एक कहानी ही रह गई है।

सं मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः। निबाधते अमतिर्निग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मतिः॥2॥

(पर्शवः) कुएँ की इटे—संसारकूप के पार्श्वस्थ (सपत्नीः इव) एक पति वाली स्त्रियों के समान (मासंतपन्ति) मुझे सता रहे हैं। (अमतिः) मति-हीनता, (नग्नता) नंगापन, (जसुः) क्षीणता-निर्धनता निर्बलता (निबाधते) पीड़ित कर रही है। (वेर्न) पक्षी के समान (मतिःवेवीयते) मेरी मति काँप रही है—फड़फड़ा रही है।

अब तो मेरी ऐसी अवस्था है मानो मैं किसी विस्तीर्ण सरोवर से निकल कर एक सीमित कुएँ के अंदर जा पड़ा हूँ। सरोवर में मैं स्वतन्त्रतापूर्वक विहार कर सकता था, वहाँ कोई रुकावट नहीं थी। किन्तु इस कुएँ में तो चारों ओर ईंटों की पक्की दीवार हैं। ये ईंटें मुझे बुरी तरह संतप्त कर रहीं हैं। जिस प्रदेश में मैं निवास कर रहा हूँ वह प्रदेश ही कुआँ है, और चारों ओर स्थित विविध जड़-चेतन पदार्थ उस कुएं की ईंटें हैं। ये मेरे चारों ओर स्थित पदार्थ मुझे उसी तरह संतप्त करते हैं जैसे अनेक पत्नियों वाले पुरुष को वे पत्नियाँ सताती हैं। जैसे अनेक पत्नियाँ पुरुष को अपनी- अपनी ओर आकृष्ट करना चाहती हैं, पर पुरुष को उनसे सुन नहीं मिलता, वैसे ही चारों ओर स्थिर ये विविध पदार्थ भी अपनी-अपनी ओर आकृष्ट करके मुझे सुख से वंचित रखते हैं। कभी मैं जिह्वा से स्वादिष्ट पदार्थों की ओर आकृष्ट होता हूँ, कभी आँख से सुन्दर वस्तुओं की ओर आकृष्ट होता हूँ। इस प्रकार संसार के विविध विषय मेरी इंद्रियों को अपनी-अपनी ओर खींचते हैं और उसका परिणाम होता है संताप विषयों की ओर खिंचा हुआ मैं निरन्तर संतप्त हो रहा हूं।

विषयों में पड़ कर मेरी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गई है। जहाँ पहले मेरी बुद्धि का सिक्का सब कोई मानते थे और मैं अपनी बुद्धि के बल से लोगों की जटिल से जटिल समस्याओं का सुलझा कर उन्हें चमत्कृत कर देता था, वहाँ आज मैं मतिहीनता से पीड़ित हो रहा हूँ। यदि मैं किसी को अपनी बात सुनाना चाहता हूँ तो संसार मुझे मूर्ख कह कर मेरी उपेक्षा कर देता है।

नग्नता भी मुझे व्याकुल कर रही है। पहले मैं भूखों को भोजन देता था, नंगा हूँ। मैं आज निर्धन हूँ, निर्बल हूँ, क्षीण हूँ। आज मेरी मति कंपायमान हो रही है, जैसे बात कि आगे चिड़िया भय से फड़फड़ाने लगती है, वैसे ही संकट और विपत्तियों को सामने देख कर मेरी मति भी भय से फड़फड़ा रही है।

अब मैं क्या करूं, कहाँ जाऊँ, अपनी दीन दशा किसके आगे निवेदन करूं?

मूषों न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शमक्रतो। सकृत्सु नो मघवन्निन्द्र मृडयाधा पितेव नो भव॥3॥

(शतक्रतो) हे सैंकड़ों कर्मों को करने वाले प्रभोः (ते स्तोतारं) तरे स्तोता मुझको (आध्य—व्यदन्ति) चिन्ताएं खाये जा रही हैं (मूषः न शिश्ना) जैसे चुहिया आटे से पान कराये गए सूत को खा जाती हैं। (मधवन् इन्द्र) हे ऐश्वर्यों के राजा प्रभो! सकृत् नः सुमृड) एक बार तो मुझे सुखी कर दे। (अध नः पिता इव भव) और मेरे लिए पितृ तुल्य हो जा।

हे इन्द्र! हे प्रभो! सब स्थानों पर भटक कर अन्त में मैं तुम्हारी ही शरण आया हूँ।

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