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Magazine - Year 1956 - Version 2

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प्रगतिशील जीवन और आध्यात्मिक चिन्तन

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(लेखक—पं. श्रीलालजीराम जी शुक्ल, एम. ए.)

मनुष्य-जीवन की प्रगति दो बातों पर निर्भर करतीं है—एक सदा नये काम करते रहने पर और दूसरे सदा नये आध्यात्मिक विचारों को मन में लाने पर। काम करने से मनुष्य का लौकिक अनुभव बढ़ता है, उसके मानसिक भावों का शोधन होता है और उसे अपने-आपको जानने का अवसर मिलता है। आध्यात्मिक चिन्तन से मनुष्य अपने भीतर रहने वाली अमित शक्ति का ज्ञान प्राप्त करता है, इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। उसके मन में नयी सूझ उत्पन्न होती है, इसके कारण वह अपनी भूलों को सुधार सकता है और अपने काम को नये ढंग से कर सकता है। इंगलिस्तान के प्रसिद्ध साहित्यकार बेकन महाशय ने क्रिया और चिन्तन दोनों को प्रगतिशील जीवन के लिये नितान्त आवश्यक बताया है। अरस्तू महाशय के अनुसार सच्चा सद्गुणी मनुष्य बाहरी सफलता से अपने जीवन की मौलिकता को नहीं मापता, वह किसी कार्य की सफलता इस विचार से देखता है कि उसे कहाँ तक मौलिक ज्ञान प्राप्त हुआ। हमारे पुराने ग्रन्थ योगवासिष्ठ में वसिष्ठ जी ने कर्म और ज्ञान को जीव रूपी पक्षी के दो पंख माने हैं। मनुष्य न तो केवल कर्म से और न केवल ज्ञान से ही अपने जीवन को प्रगतिशील अथवा सफल बना सकता है। अच्छा ज्ञान वह है जो कर्म का सच्चा पथ प्रदर्शक बने, जो मनुष्य की विशुद्ध कार्य क्षमता को बढ़ावे। इसी प्रकार कोई भी भला कर्म मनुष्य में नये आध्यात्मिक ज्ञान की वृद्धि करता है। सभी कर्मों का अन्त नये आध्यात्मिक ज्ञान की वृद्धि करना है।

जब मनुष्य के जीवन में कर्म और ज्ञान दोनों का साम्य न होकर किसी एक की अत्यधिक वृद्धि होने लगती है तो मानसिक विषमता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही स्थिति मानसिक रोग की स्थिति है। जो मनुष्य सदा काम में ही लगे रहते हैं, वे आध्यात्मिक चिन्तन की क्षमता को खो देते हैं। ऐसे मनुष्य अपने जीवन की सफलता को बाहरी परिणामों के द्वारा मापने लगते हैं। जैसे-जैसे उन्हें वाह्य संसार में सफलता मिलती जाती है वे आगे बढ़ते जाते हैं। बाहरी सफलता को अपने जीवन की प्रगति का माप-दण्ड बना लेने पर मनुष्य में अहंकार की वृद्धि हो जाती है। फिर वह अपनी सफलता के आध्यात्मिक कारण को भूल जाता है। ऐसी अवस्था में उसकी सूक्ष्म दृष्टि का ह्रास हो जाता है। इसके कारण उसके द्वारा नाना प्रकार की भूलें होने लगती हैं। इन भूलों के कारण को वह अपने आप में न खोजकर अपने से बाहर खोजने लगता है। वह अपनी असफलता का दोष दूसरों के सिर मढ़ने लगता है और जब उसमें दूसरों के प्रति दोष दृष्टि आ जाती है तो वह अपने मित्रों की संख्या घटा लेता है एवं शत्रुओं की संख्या बढ़ा लेता है। जब मनुष्य की दृष्टि सर्वथा लौकिक हो जाती है तो प्रत्येक नये काम के हाथ में लेते ही उसके मन में अनेक प्रकार के सन्देह होने लगते हैं। इन सन्देहों के कारण वह किसी भी काम को पूरी लगन के साथ नहीं कर सकता। फिर वह अपने चारों ओर निराशावाद का वातावरण देखता है। ऐसा व्यक्ति उत्साहहीन होकर क्रिया ही हो जाता है। यदि उसका पूर्व अभ्यास भला हुआ तो वह क्रिया होने पर अपने आप में ही अपनी असफलता का कारण खोजने की चेष्टा करता है। वह अपने अभिमान को त्याग कर अपने आप को किसी महान तत्व के प्रति समर्पित कर देता है। ऐसा करने पर उसमें नया उत्साह आ जाता है। जिस मनुष्य का पूर्व अभ्यास आध्यात्मिकता के प्रतिकूल होता है वह लौकिक विफलता की उपस्थिति होने पर मृत्यु का आवाहन करने लगता है। फिर जैसा कि उसका आन्तरिक मन चाहता है बाहरी घटना भी उसी प्रकार घटित होती है अर्थात् वह अपने आपका विनाश कर डालता है।

जिस प्रकार केवल कर्म मनुष्य के जीवन को प्रगतिशील नहीं बनाता। कर्म के बिना ज्ञान अनुभवहीन होता है, वह पोथी-पण्डित का ज्ञान हो जाता है। कर्म के द्वारा मानसिक भाव परिष्कृत होते हैं। इसके न होने पर मनुष्य को चिन्तन निराशावादी, नकारात्मक और अन्धकारमय हो जाता है। उसकी बुद्धि उसे किसी एक निश्चय के ऊपर नहीं ले जाती। उसे सभी दृष्टि-बिन्दु दोष पूर्ण दिखाई देने लगते हैं। वह सभी वादों में झूठ ही झूठ को देखता है। किसी भी सिद्धान्त से उसे संतोष नहीं होता। ऐसी अवस्था में उसे बाध्य होकर आध्यात्मिक चिन्तन से उदासीन होना पड़ता है। जिस प्रकार कर्म की अवहेलना करके जो व्यक्ति सर्वदा आध्यात्मिक चिन्तन में लगा रहता है, उसे भी ठोस ज्ञान लाभ नहीं होता। सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान वह है जो कि अनुभव की भित्ति पर खड़ा हो। यह अनुभव संसार में अनेक प्रकार की परिस्थितियों में पड़ने से, अनेक प्रकार के लोगों के संपर्क में आने से और अनेक तरह के आचरण-व्यवहार में से चलकर पार होने से आता है। जो मनुष्य जान बूझकर अपने मन को कर्म में नहीं लगाता, उसे बाध्य होकर अपने आपको कर्म में लगाना पड़ता है।

संसार के साधारण लोग भोगासक्त और कर्मासक्त होते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान की ओर वृत्ति बहुत थोड़े लोगों की होती है, अतएव जितनी आवश्यकता ज्ञानासक्त लोगों को कर्म की आवश्यकता बताने की है, उससे कही अधिक आवश्यकता कर्मासक्त लोगों को ज्ञान में अनुराग रखने की आवश्यकता बताने की है। आध्यात्मिक चिन्तन से मनुष्य अपने आप में निहित मूल शक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। मनुष्य की कर्म में सफलता उसके अपने आपके विषय में अर्थात् अपनी मानसिक शक्तियों के विषय में समुचित ज्ञान प्राप्त करने पर निर्भर करती है। जो व्यक्ति अपनी मानसिक शक्तियों के विषय में जितना ही अधिक सोचता है, वह उतना ही अधिक उन शक्तियों के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। विचार की शक्ति कितनी अधिक है, इसका अनुमान लगाना कठिन है। जब मनुष्य अपने विचार की शक्ति को केवल अपनी बाहरी सफलता से मापता है तो वह एक भारी भूल करता है। हम जो कुछ कार्य बाह्य जगत में कर सकते हैं, वह हमारी वास्तविक कार्य करने की योग्यता को क्षुद्र भाग है। मनुष्य में कितनी कार्य करने की शक्ति है, इसका स्वयं उसे ज्ञान नहीं रहता। वह थोड़ी सी सफलता को ही बहुत सी मान लेता है और फिर वह उसे भी खो देता है।

मनुष्य में किसी बात की कार्य क्षमता उसके आत्म विश्वास (अहंकार नहीं) पर निर्भर करती है। यह आत्म विश्वास सच्चे आध्यात्मिक चिन्तन का परिणाम होता है। जो मनुष्य वर्तमानकाल के कर्तव्य पर ही अपने ध्यान को केन्द्रित करता है और बची हुई शक्ति को आध्यात्मिक चिन्तन में लगाता है, उसका आत्म विश्वास कभी विनष्ट नहीं होता। जो व्यक्ति प्रत्येक काम के सम्बन्ध में आगे पीछे की बात बहुत कुछ सोचता रहता है, जो भविष्य के बारे में अत्यधिक चिन्तित रहता है, वह अपनी बहुत सी शक्ति व्यर्थ की चिंता में खो देता है। ऐसे व्यक्ति का आत्म विश्वास नष्ट हो जाता है। फिर उसकी कार्य क्षमता भी जाती रहती है और उससे अनेक प्रकार की भूलें होती रहती हैं। ये भूलें बिगड़े हुए मानसिक साम्य की प्रतीक हैं। ये मनुष्य अत्यधिक अपनी सफलता से फूलकर लंबी-लंबी योजनायें बनाने लगता है तभी वह अपने मानसिक साम्य को खो देता है। उसकी योजनाएँ अनेक प्रकार की चिन्तायें उत्पन्न करती है, उसके मन में अनेक प्रकार के सन्देह लाती है और इस प्रकार उसकी मानसिक शक्ति का व्यर्थ के आगे पीछे के सोचने में खर्च कर देती हैं। इस प्रकार मनुष्य की सफलता भी उसकी विफलता का कारण बन जाती है।

आध्यात्मिक चिन्तन चिन्ताओं के निवारण का सर्वोत्तम उपाय है। जब मनुष्य का मन नित्य तत्व की पहिचान में लग जाता है तो वह अपने जीवन की आने जाने वाली घटनाओं को उतना महत्व नहीं देता जितना कि वह आध्यात्मिक चिन्तन को देता है। इसके कारण ये घटनाएँ उसके मन को उद्विग्न नहीं करतीं। जब मनुष्य शान्त रहता है तो वह मन की अशान्त अवस्था की अपेक्षा कहीं अधिक काम कर सकता है। मनुष्य भावी अप्रिय घटनाओं के चिन्तन करने से जितना अपनी मानसिक शक्ति को खोता है, उतना अपनी मानसिक शक्ति को काम में खर्च करने से नहीं खोता। मनुष्य की अत्यधिक मानसिक शक्ति अपने में भय उसके जीवन में उन्हीं घटनाओं को घटा देते हैं, जिनसे वह डरता रहता है। इन भयों की उत्पत्ति का कारण वर्तमान कर्त्तव्य को छोड़कर भविष्य के विषय में अत्यधिक चिन्ता करना है। आध्यात्मिक चिन्तन से मनुष्य वर्तमान में रहना सीखता है और इस प्रकार वह अकारण भयों से अपने आपको मुक्त कर लेता है।

आध्यात्मिक चिन्तन मनुष्य को नित्य तत्व की ओर ले जाता है। मनुष्य की शक्ति के ह्रास का प्रधान कारण उसका व्यक्तिगत स्वार्थों के विषय में अत्यधिक चिन्ता करना होता है। जब मनुष्य अपने कार्यों का लक्ष्य अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति न बनाकर किसी महान् आदर्श की प्राप्ति बना लेता है तो उसका मन डावाँडोल अवस्था से मुक्त हो जाता है। वह क्षणिक सफलता और विफलता से न तो उल्लसित होता है और न उद्विग्न। जिस मनुष्य के कार्यों का लक्ष्य सभी का कल्याण करना होता है, उसकी कार्य क्षमता अपार होती है। परन्तु अपने कार्यों का लक्ष्य मनुष्य सभी का कल्याण तब तक नहीं बना सकता जब तक कि वह अपने आन्तरिक स्वत्व की सर्वव्यापी तत्व से एकता नहीं देखता। जब मनुष्य यह देखने लगता है कि सभी के कल्याण के बारे में सोचने में ही उसका कल्याण है और सबके हित चिन्तन से उसे वास्तविक सुख और शान्ति प्राप्त हो सकती है, तभी वह अपने वैयक्तिक स्वार्थ को छोड़कर अपने मन को दूसरों के कल्याण के कार्य में लगा सकता है। इसके लिये प्रतिदिन आध्यात्मिक चिन्तन करना नितान्त आवश्यक है। जब तक मनुष्य को यह ज्ञान नहीं होता कि दूसरों का लाभ करके न केवल उसे लौकिक लाभ होता है, वरं उसे आन्तरिक पूर्णता भी प्राप्त होती है, तब तक वह पूरे मन से कभी भी दूसरों के कल्याण के कार्य में नहीं लग सकता।

जो लोग आध्यात्मिक चिन्तन से विमुख होकर केवल लोकोपकारी कार्य में लगे रहते हैं, वे अपनी ही सफलता पर अथवा सद्गुणों पर मोहित हो जाते हैं। वे अपने आपको लोक सेवक के रूप में देखने लगते हैं। ऐसी अवस्था में वे आशा करते हैं कि सब लोग उनके कार्यों की प्रशंसा करें और उनका कहा मानें। अपनी बात को सच्ची मानने की प्रवृत्ति ऐसे लोगों में उत्पन्न हो जाती है। फिर उनका बढ़ा हुआ अभिमान उन्हें अनेक लोगों का शत्रु बना देता है। इससे उनकी लोक-सेवा उन्हें वास्तविक लोकसेवक न बनाकर लोक विनाश का रूप धारण कर लेती है। जिस बात को वे भला समझते हैं उसे वे सब प्रकार के विरोध होते हुए भी करते ही चले जाते हैं। उनकी यह हठधर्मी उन्हें विनाश की ओर ले जाती है। आध्यात्मिक चिन्तन के बिना मनुष्य में विनीत भाव नहीं आता और न उसमें अपने आपको सुधारने की क्षमता रह जाती है। वह भूलों-पर-भूल करता चला जाता है और इस प्रकार अपने जीवन को विफल बना लेता है।

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