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Magazine - Year 1956 - Version 2

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छह महान् सद्गुण

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(स्वर्गीय महामना पं॰ मदन मोहन मालवीय)

सत्येन ब्रह्मचर्येण व्ययामेनाथ विद्यया। देशभक्त्यात्मयागेन समभाईः सदा भव॥

सत्य वचन, ब्रह्मचर्य धारण, व्यायाम, विद्याध्ययन, देशभक्ति और आत्म त्याग के द्वारा सम्मान के योग्य बनो। मैं चाहता हूँ, प्रत्येक छात्र इस श्लोक को अपने इस हृदय पर अंकित करें और उसी के अनुसार आचरण भी रखे। इस श्लोक का भाव भारत नहीं, अपितु समस्त संसार के लिए लाभप्रद है। संसार न सही तो भारतवासी, उनमें भी विशेषतः हिन्दू सन्तान मात्र का अनिवार्य कर्त्तव्य हैं कि वे इस श्लोक में उल्लिखित छः गुणों का पालन करके अपने मानव जन्म को सफल करें।

1—सत्य

सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं, ‘सत्यान्नास्ति परो धर्मः’ ‘सत्यमेव जयते, नानंत’ सत्य की ही विजय होती है, झूठ की नहीं। महाभारत, रामायण और पुराणों के पढ़ने से पता चलता है कि राजा हरिश्चंद्र, रामचन्द्र, युधिष्ठिर आदि अनेक सम्राटों ने सत्य के पीछे नाना प्रकार के सीमातीत कष्ट उठाये, पर सत्य से नहीं डिगे। आर्य जाति की विशेषता को संसार के समस्त ऐतिहासिकों ने श्रद्धा भरे शब्दों में माना है। मैं आशा करता हूँ कि हमारे देश के प्राणरूप हिन्दू बालक अपने पूर्वजों की इस पवित्र और आदर्श धरोहर की रक्षा करेंगे। सच बोलने का अर्थ है अपने जीवन का सबसे बढ़कर कीमती काम करना। प्राचीन काल में आश्रमों में 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्या पढ़कर जब छात्र अपने घरों को चलते थे तो ऋषिगण सबसे पहला उपदेश यही देते थे कि ‘सत्यं वद’ ‘सच’ बोलना। इस गुरु-प्रदत्त उपदेश की अमिट छाप उनके जीवन भर एक दिव्य ज्योति जगाये रखती थी। किसी ने ठीक ही कहा है—

‘साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप। जाके हृदय साँच है, ताके हृदय आप।

शास्त्रों में असत्यवादियों को बड़ी-बड़ी दुर्गति लिखी है जिसकी कल्पना से भी रोमाञ्च हो उठता है, भोगना तो बहुत दूर की बात है। सच बोलने वाले का सिर ऊंचा रहता है, चेहरा प्रसन्न और निर्भय रहता है; और झूठ बोलने वाले को लज्जा के मारे सभ्य समाज में मुँह दिखलाना मुश्किल हो जाता है। मेरा वश चले तो मैं भी भारतीयों के लिये ‘नियमित सत्यवादी बनना’ अनिवार्य कर दूँ। फिर भी अपने पूर्वजों के इस आदर्श व्रत को हमें एकदम भूल जाना चाहिये। जिससे जितना भी हो सके इस पथ पर चले।

सताँ वर्त्मानुगन्तब्यं कृत्स्नं यदि न शक्यते, स्वल्पमप्यनुगन्तब्यं मार्गस्यो नावसीदतिं।

सज्जनों के मार्ग पर यदि पूर्णतया न हो सके तो थोड़ा भी चलना चाहियें, क्योंकि पथ पर चलते रहने वाला कभी कष्ट नहीं पाता।

अब भी अन्य देशों की अपेक्षा हमारे देश में सत्य बोलने का महत्व अधिक है। भगवान् वह दिन शीघ्र दिखलावे जब कि दुनिया के लोगों का यह विश्वस्त मत हो जाये कि ‘भारतवासी झूठ बोलना जानते ही नहीं। ’ मेरे देश के भविष्य-कर्ण-धारो! क्या तुम मेरे सुनहले स्वप्न को सत्य करोगे?

2—ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य की महिमा को कौन बखान सकता है।

‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत’

देवताओं ने ब्रह्मचर्य के द्वारा मृत्यु को जीत लिया! एक ब्रह्मचारी अपने ब्रह्मचर्य के बल पर अधिक से अधिक समय तक जीवित रह सकता है, असाध्य से असाध्य कार्य को कर सकता है। ‘भीष्म-पितामह’ का दृष्टान्त प्रसिद्ध है उनकी ‘इच्छा मृत्यु’ हुई थी। ब्रह्मचर्य बल, बुद्धि और विद्या का परम सहायक है। चिन्ता और भय, ये ब्रह्मचारी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। हिन्दू जाति के इतिहास का पन्ना-पन्ना ब्रह्मचर्य के ज्वलन्त आदर्शों से भरा पड़ा है। ब्रह्मचर्य के लिए एक स्थान पर कहा गया है।

धन्यं यशस्यामायुष्यं लोकद्वयरसायनम्, अनुमोदामहे ब्रह्मचर्य नित्यकल्मषम्।

अर्थात् ब्रह्मचर्य धन्य, कीर्ति का देने वाला, लोक-परलोक दोनों को बनाने वाला उत्तम रसायन, आयु बढ़ाने में समर्थ और नित्य-निरन्तर पुण्यमय है। आज ब्रह्मचर्य के अभाव से ही हमारे देश की दशा दीन-हीन है। यदि ब्रह्मचर्य के प्रभाव का प्रत्यक्ष फल देखना हो तो महावीर हनुमान का स्मरण करिये। इष्टदेव के समान उनको पूजिये; फिर देखिये उनका प्रभाव। आज भी प्रत्येक पहलवान ‘जय बजरंगबली’ की हुँकार के साथ अपने अन्दर अकूत ताकत का अनुमान करता है। वास्तविक बात तो यह है कि उनके जैसा इन्द्रिविजयी दूसरा है ही नहीं। अखाड़ों की तरह ही स्कूलों, कालेजों, पाठशालाओं, विश्वविद्यालयों या सर्वत्र शिक्षा-संस्थाओं में महावीर जी का चित्र होना चाहिये। इससे बालकों और तरुणों में उत्साह का भाव पुष्ट होगा। ब्रह्मचर्य और सेवाधर्म इन दोनों का अपूर्व संयोग उनमें है। मेरा तो विश्वास यह है—

‘महावीर को इष्ट है ब्रह्मचर्य का नेम, दृढ़ता अपने धर्म में सारे जग से प्रेम। ’

ब्रह्मचर्य, स्वधर्म में दृढ़ता और विश्व-प्रेम इन तीनों का मूलमन्त्र महावीर हनुमान में है। उचितता यह है कि ब्रह्मचर्य की भावना को पूर्ण रूप से व्याप्त करने के लिए भारत के गाँव-गाँव में महावीर दल और अखाड़े स्थापित किये जायं; जिससे अटक से कटक तक तरुणाई का समुद्र उमड़ पड़े। दीन-दुखियों, असहाय अबलाओं, मन्दिरों गौओं, ब्राह्मणों-गरज यह कि हिन्दुत्व की मान-रक्षा हो। बहू-बेटियों पर कोई आँख न उठा सके। हिन्दू जाति के बच्चे और युवक मालिक की तरह चलें; गुलाम की तरह नहीं।

3—व्यायाम

मैं प्रत्येक भारतीय युवक, विशेषकर हिन्दू समाज, से प्रार्थना करता हूँ कि वह व्यायाम की प्रथा को फिर से गाँव-गाँव में चला दे। शरीर में स्वास्थ्यरुपी सोने को चमकाने के लिए व्यायाम एक कसौटी है। व्यायाम करने से शरीर तगड़ा, हृष्ट-पुष्ट होता है और व्यायामी पुरुष अपने उद्देश्यों को दृढ़ संकल्प होकर पूरा-पूरा कर सकता है! व्यायाम के लिए एक स्थान पर कहा गया है—

शरीरयासजननं कर्म व्यायामसंज्ञितम्, तत्कृत्वा ससुखंदेहं विमृद्रीयात्समन्ततः।

शरीर को परिश्रम से थका देना ही व्यायाम है, उसको करके मनुष्य शरीर को सुख पूर्वक माँसल और मजबूत बना सकता है। आजकल कुछ व्यायाम प्रेमी, विदेशी व्यायाम करते हैं, यह ढंग ठीक नहीं। एक तो यह ‘स्वदेशी’ नहीं, दूसरे व्यय-साध्य होने से सब के लिए सुलभ भी नहीं है। हमारे देश के व्यायाम की यह विचित्र खूबी है कि वह सस्ता होने के साथ-साथ सभी हालत में सुविधाजनक भी है इसमें मुग्दर, लाठी बनेठी, गदका से लेकर डण्ड-कसरत, गुल्ली—डण्डा ओल्हा-पाती, चिकई-कबड्डी, दौड़, तक शामिल है। व्यायामी और अव्यायामी सभी को गो-दुग्ध पीने का व्रत लेना चाहिये और भीगे भुने चने के लिए कहना ही नहीं है। मनुष्य के लिए गोदुग्ध से बढ़कर संसार में और कोई चीज इतनी उपयोगी नहीं। गोदुग्ध में ही यह विशेषता है कि उसको पीने वाला मनुष्य अन्य कुछ भी न खाकर जीवित रहते हुए कार्य क्षम रह सकता है। दुग्ध जैसे अमृततुल्य आयु-आरोग्य दायक वस्तु को देने के कारण ही गौ ‘माता’ के समान पूजी जाती है। दूध व्यायाम का परम सहायक मित्र है। मेरा कहना तो यह है—

‘दूध पियो कसरत करो नित्य जपो हरिनाम हिम्मत से कारज करो पूरेंगे सब काम।

दूध पीने और व्यायाम करने से मनुष्य पराक्रमी बनता है, वीर्यशाली बनता है। पराक्रम और वीर्य से हीन पुरुष, सब गुणों से युक्त होकर भी कुछ नहीं कर सकता इस भाव का श्लोक भी है—

‘सर्वेर्गुणेः सुयुक्तोऽपि निवीर्य्यः किं करिष्यति गुणीभूता गुणाः सर्वे तिष्ठन्ति हि पराक्रमे।

यह भी कहा गया है कि नित्य नियम से व्यायाम करने वाले और तलवे में तैल लगाने वाले पुरुष से रोग वैसे ही भागते हैं जैसे सिंह के भय से क्षुद्र मृग। इस भाव का श्लोक यह है—

व्यायाम कुर्वतो नित्यं पद्भ्यामुद्वर्त्तितस्य च। व्याघयो नोपसप्न्ति सिंहात् क्षुद्र मृगा इव।

4—विद्या

विद्या का महत्व भी क्या बतलाना पड़ेगा? लिखा है—

विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनार्द्धम, तत सुखम्।

विद्या मनुष्य को विनय देती है, विनय से योग्यता मिलती है, योग्यता के द्वारा धन प्राप्त होता है, धनादि से धर्म और फिर धर्म से सुख मिलता है, यह है विद्या का चमत्कार! विद्या से हीन मनुष्य पशु के तुल्य है; विद्या पढ़ने से पशुता छूट जाती है। ‘यह बुरा है, यह भला है’ की विवेचक बुद्धि हो जाती है। वेदों में विद्वानों को देव स्वरूप कहा गया है। आजकल के शिक्षालयों के विद्यार्थी गरीब माता-पिता के कष्ट पूर्वक भेजे गये रुपयों का व्यय खेल-तमाशा नाटक-सिनेमा आदि चरित्र-नाशक कार्यों में कर डालते हैं, यह बहुत ही दुःखद बात है। हृदय—हीनता का इससे बढ़कर दूसरा उदाहरण क्या हो सकता है। सदैव परिश्रम करके गुरुभक्ति-पूर्वक विद्या पढ़ना चाहिये, ऊँची से ऊँची श्रेणी में परीक्षा पास करना चाहिये। धर्म और चरित्र से हीन कुशिक्षा की ओर दृष्टिपात भी नहीं करना चाहिये। इस सारा जीवन सुखपूर्वक होगा।

5—देशभक्ति

अगर मनुष्य में विश्व के समस्त गुण आ जायं और देश भक्ति न हुई तो कुछ नहीं हुआ। अपने देश के प्रति मान भाव न रखने वाले मनुष्य के लायक नीच से भी उपाधि देना कम है। आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र ने जननी-जन्मभूमि को स्वर्ग से बढ़कर बतलाया है। अब कहना क्या शेष रहा?

जो देशभक्ति आ जावै, तब सब स्वारथ भग जावें। ’

देशभक्ति से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है। पुराने समय की बात को जाने दीजिये। इधर के इतिहास में भी शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह, राणा प्रताप आदि देशभक्ति ही के कारण अजर-अमर हो गये हैं।

‘स्वारथ तजि जो देश की सेवा करैं उदार, धन्य पुरुष वे रत्न हैं मनुजन के सरदार। ’

भगवान् की कृपा से हम लोगों को तो देश भी ऐसा ही मिला है जहाँ के लिए देवगण तरसते हैं। मीठी-मीठी नदियाँ, गर्जनशील नाले, स्वच्छ पहाड़ी झरने रंग-बिरंगे फूल, अमृततुल्य फल सुहावने जंगल, आकाश के दर्पण के समान समुद्र, सुषमा के निकुंज से गिरि, ये सब दृश्य, पूर्व जन्म के सुकृत के ही फल हैं। आज भी धनबल, जनबल विद्याबल, प्रज्ञाबल, में भारत अद्वितीय है। फिर भी एकमात्र एकता के अभाव से पराधीन रहा। देशोन्नति के काम में आलस्य छोड़कर शीघ्रातिशीघ्र एका कर लेना पड़ेगा। तभी काम चलेगा।

सब मिलि बोलो एक आवाज, अपना देश अपना राज। ’

उठो। देशभक्ति की दीक्षा लो। भगवान् सब मंगल करेंगे।

6—आत्मत्याग

यह अन्तिम छठा गुण है। लेकिन सबसे अधिक महत्व रखता है, कोई भी काम करो, तन-मन-धन से करो, यही आत्म त्याग या आत्मसमर्पण है। निस्वार्थ, निरालस्य और निश्चिन्त होकर देश के, धर्म के और समाज के हित के लिए काम करना मनुष्य की शोभा का बढ़ाता है।

ये ही छः गुण हैं। भारत के प्रत्येक बालक बालिका और तरुण-तरुणी जनों के लिए मेरा सन्देश है कि वे इन गुणों से युक्त होने का व्रत लें। इससे वे अपना ही नहीं अपने देश की काया पलट सकने में सर्वथा समर्थ होंगे; यह मेरा दृढ़ विश्वास है। आजमा कर देखिए। दीन मत बनो। ‘हिन्दू गऊ होते हैं’ इस अपवाद को साबित करो। अब तो साँड़ भाँति बलिष्ठ निर्भीक और साहसी बनो। स्वराज्य का उपभोग करने के लिए तैयार रहो। आततायी के अत्याचार का बदला लेने का सामर्थ्य रखो। हिन्दुओं का भविष्य बहुत अच्छा है। गाँव-गाँव प्रतिदिन रात को 8 बजे सब काम से निपट कर किसी पुराण की कथा या गोस्वामी तुलसीदास के ‘अखण्ड खजाना’ रामायण से कुछ कहो सुनो। मेरा हृदय से आशीर्वाद है कि भगवान तुम्हें सफलता दें।

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