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Magazine - Year 1956 - Version 2

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शरीर मालिश का महत्व

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First 13 15 Last
(डा॰ हरिकृष्णदास एम॰ ए॰)

मालिश मानव की शरीर-सम्पत्ति को सुरक्षित और आरोग्य को स्थिर रखने तथा गत्तोरभ्य को पुनः प्राप्त करने का एक विधान है। नियमित मालिश द्वारा चिरन्तन स्वास्थ्य, दीर्घ—जीवन, सम्पूर्ण सौंदर्य और अनुपम मानसिक बल की उपलब्धि होती है। मालिश एक प्रकार की चेतनाहीन व्यायाम है। कठोर अर्थात् सक्रिय व्यायाम सब लोग कर नहीं सकते। इस प्रकार के व्यायाम से हृदय, ज्ञान तन्तु और स्नायविक व्यवस्था पर एक प्रकार का बोझ पड़ता है। मन को इस प्रकार के व्यायाम के लिए तैयार करना पड़ता है। वृद्ध, निर्बल और बीमार व्यक्ति के लिए कठोर व्यायाम निरर्थक ही नहीं, अपितु हानिप्रद भी है। मालिश का व्यायाम का प्रभाव कठोर व्यायाम की उपेक्षा भिन्न होता है। ज्ञान तन्तुओं पर दबाव डाले बिना और हृदय की धड़कनों को बढ़ाये बिना शरीर में निरर्थक गरमी या प्रस्वेद उत्पन्न किए बिना मालिश शरीर के व्यायाम करने के सभी लाभों से पुरस्कृत करती है। प्रयोग- परीक्षाओं से सिद्ध कर दिया गया गया है कि मालिश से शरीर में श्वेत कण, लाल कण और हेमोग्लोबिन तत्व का सम्वर्धन होता है, रक्त-शुद्धि तीव्रगति से होती है फलतः शरीर में रोग- प्रतिरोधक शक्ति का संचय होता है शरीर की रक्त-संचालन-प्रक्रिया संयोजित होने से विजातीय पदार्थों (संचित मन) का निष्कासन सरलता से होता रहता है। विजातीय पदार्थ-निष्कासन-कार्य तत्पर अवय- फेफड़े, चर्म, मूत्र पिण्ड और आंतरिक जाल का स्वास्थ्य सुधरता है। मालिश से शरीर के अंग-प्रत्यंग, माँसपेशियाँ सुदृढ़ और शक्ति शाली बन जाती हैं। शरीर सुसंगठित, सुडौल और दर्शनीय बनता है। मालिश सौंदर्य- वर्धक है मालिश करने वाले का शरीर का कान्तिमय, सुन्दर और आकर्षक बन जाता है

मालिश पाचन-व्यवस्था के लिए अत्यन्त लाभ दायक है। सभी पाचन— अंगों— जैसे कि आँतें, यकृत, आमाशय आदि को एक प्रकार की गति और शक्ति मिलने से उनकी कार्यक्षमता और उनके आरोग्य में अभिवृद्धि होती है। मालिश से त्वचा की सिकुड़न और फटन दूर होती है और वह कोमल, चिकनी, तेजस्वी और मनोहर बनती है।

भारतीय भाषा में मालिश शब्द की उत्पत्ति ‘मसाज’ शब्द से हुई है। ‘मसाज’ शब्द ग्रीक भाषा का है, जिसका अर्थ है ‘दबाना’ ग्रीक लोग मालिश की कला में अत्यन्त पटु थे। रोमनों ने ग्रीक संस्कृति और समृद्धि का विशाल उत्तराधिकार हस्तगत कर लिया है रोमन लोगों के लिए मालिश आमोद-प्रमोद का साधन थी अतिशय उड़ाऊ खाऊ मनोवृत्ति और उन्मत्त आवेश का प्रभाव मिटाने के लिए रोमन लोग मालिश कराते थे रोमनों की वैभव- वृत्ति रोमन साम्राज्य विस्तार के साथ—साथ समग्र यूरोप में फैल गई। मालिश का विज्ञान ग्रीस से भी पहले भारत में विकसित हुआ था। मिश्र और भारत में धर्माचार्यगण व्याधिग्रस्त अंग को दबाकर या थपथपा कर स्वस्थ बना देते थे। वेद काल से आर्य इस कला में पूर्णतया निपुण थे। आयुर्वेद ने मालिश (तैंलाभ्यंग) को चिकित्सा- क्षेत्र में स्थान दिया है। आयुर्वेद में लकवा, ज्ञान तन्तु के रोग इत्यादि रोगों में शास्त्रीय तेलों द्वारा मालिश-क्रिया का समावेश किया गया है। मलवार में आज भी आयुर्वेदोक्त पद्धति के अनुसार संचालित मालिश-गृह भारतीय मालिश- पद्धति के विकास का दर्शन कराते हैं। गुजरात में मालिश का प्रचार बहुत कम है। मद्रास, बंगाल और उत्तर प्रदेश आदि प्रान्तों में बाल-वृद्ध को मालिश का शौक है। इन प्रान्तों के लोगों की त्वचा चमकीली और तेजस्वी होती है।

अतिशय गर्म या शीतल कमरे में मालिश न करनी चाहिये। अति गर्म कमरे में मालिश करने से पसीना आता है। पसीने का पानी मालिश के आनन्द को मार देता है। शीतल या जहाँ हवा के झोंके आते हों, ऐसा कमरा शरीर को बारंबार शीतल कर रक्त संचालन-क्रिया में बाधा डालता रहता है। स्वच्छ कमरे में चटाई पर बैठ कर मालिश करना चाहिये। सूर्य की कोमल किरणों में मालिश करने अथवा मालिश के बाद सूर्य का कोमल किरणों में बैठने से स्वास्थ्य सुधरता है। मालिश का अच्छा समय सुबह या शाम का है। बहुतेरे लोग रात में मालिश करके सो जाते हैं, यह पद्धति अच्छी नहीं। भोजन के बाद तुरन्त मालिश करनी न चाहिये। मालिश और भोजन के बीच कम से कम दो घन्टे का अन्तर रखना आवश्यक है। मालिश की पद्धति का ज्ञान होना जरूरी है। अधिकाँश लोग बलपूर्वक तेल घिसने की क्रिया को मालिश समझते हैं। बाजारू लोगों से मालिश कराना सचमुच हानिप्रद है। मालिश एक व्यवस्थित विज्ञान है; विकसित चिकित्सा-पद्धति है और आरोग्य-प्राप्त की सुन्दर कला है। शरीर विज्ञान की अज्ञानता, स्वास्थ्य-नियमों की अनभिज्ञता और मालिश पद्धति की अनुभव हीनता मालिश के लिए सर्वथा अनुपयोगी है। जिस मनुष्य की मालिश करनी हो, उसे स्वच्छ, चद्दर पर लिटा देना चाहिये। दांये या बांये पैर की उंगलियों से मालिश शुरू कर पैर के पंजे, पिंडली, घुटने और जंघा की ओर मालिश करते हुए क्रमशः आगे बढ़ना चाहिए। संक्षेप में बाल की विरुद्ध दिशा में हृदय की ओर मालिश के हाथ घुमाना उचित है। भूल से रक्त भ्रमण की दिशा में मालिश की न जाये। दोनों पैरों की मालिश हो जाने पर कमर की मालिश की जाये और हाथ की मालिश करनी चाहिए। हाथ की मालिश भी उंगलियों से शुरू कर कन्धे की ओर की जाये। तत्पश्चात् पीठ, क्रोड़-रज्जु, गर्दन, मुख के स्नायु और छाती की मालिश करनी चाहिये। सबसे अन्त में अधिक सावधानी और ध्यानपूर्वक पेट की मालिश करनी चाहिए। नाभि की दाहिनी ओर 4-6 अंगुल दूर छोटी और बड़ी आँत का सन्धि स्थान है। इस स्थान से ऊपर जाने वाली आँत से मालिश शुरू कर बाई तरफ हाथ लाकर नीचे लाया जाये अर्थात् नाभि के आस-पास गोलाकर दाहिनी ओर से शुरू कर पेट की मालिश करनी चाहिए। मालिश के समय पैर के तलुवों और सिर में अच्छी तरह तेल पचाया जाये।

मालिश कैसे तेल से की जाये? सामान्य नियम यह है कि शीतकाल में सरसों, ग्रीष्म-ऋतु में नारियल और वर्षा ऋतु में तिल के तेल का उपयोग किया जाये। तिल के तेल की मालिश बारहों मास की जा सकती है।

मालिश के पश्चात स्नान कब करना चाहिए? मालिश के एक दो घन्टे बाद काली मिट्टी या बेसन से शरीर का उबटन कर स्नान करना चाहिए।

मालिश किसे न करनी चाहिए? चर्म-रोग जैसे खाज, खुजली, सूजन, चट्ठे आदि हो जाने पर लम्बी बीमारी के बाद और उग्र रोगों में, मालिश न करनी चाहिए। जिन रोगों में आराम की जरूरत है, उनमें मालिश करना उचित नहीं, क्योंकि यह एक प्रकार का व्यायाम है।

मालिश स्वयं करनी चाहिए या किसी से करानी चाहिए? स्वयं मालिश करने से स्वेच्छानुसार और उत्तम ढंग से मालिश होने के अतिरिक्त परमोत्तर व्यायाम हाथों, कन्धों, छाती आदि अंगों को उपलब्ध होता है। निर्बल और विशेष प्रकार के रोगी को अच्छे मालिश कर्ता से मालिश करानी चाहिए। मालिश कर्ता स्वस्थ, स्वच्छ और सुदृढ़ शरीर का होना चाहिए। चर्म या अन्य किसी रोग से पीड़ित मानव से मालिश न करानी चाहिए और सावधानी रखनी चाहिए कि मालिश करते समय मालिश कर्ता का पसीना रोगी के शरीर पर न गिरे।

5— मालिश कसरत से पहले या पश्चात? मालिश करने के बाद कसरत या अन्य शारीरिक श्रम करने से तेल और पसीना मिलकर चर्मरोग-खुजली, दाद आदि उत्पन्न कर देते हैं। शरीर में तेल का समुचित शोषण नहीं हो पाता। व्यायाम या शारीरिक श्रम से शरीर, में विशेष परिणाम में तोड़-फोड़ होती है। विजातीय पदार्थों जैसे कि लोकाटिक एसिड, यूरिया और अग्नि वायु- का परिणाम बढ़ जाता है। थकावट भी बढ़ जाती है और कार्यक्षमता कम हो जाती है। अंग- प्रत्येक जड़ शुष्क और चेतनाशून्य हो जाते हैं। अतः कसरत करने के पश्चात् शरीर शीतल और पसीना बन्द हो जाने के बाद शरीर का अच्छी तरह पोंछ कर मालिश करना लाभदायक होगा। मालिश से स्नायु-जाल उत्तम सुसंग-चित बन जाता है। व्यायाम से कभी कभी स्नायु पर जब अघटित दबाव पड़ता है, तब वे टूट जाते हैं अथवा खिंच जाते हैं। मालिश इन स्नायुओं को सुयोजित कर चमकदार बना देती है।

6— पाउडर या बिजली के यन्त्र से मालिश करना उचित है? मालिश आज कल वैभव की वस्तु बन बैठी है। विद्युत यंत्र से की जाने वाली मालिश अप्राकृतिक है और उससे कोई लाभ नहीं। विद्युत से एक ही प्रकार की मालिश— कम्पन मालिश सम्भव बनती हे। रक्त- संचालन- क्रिया को सतेज बनाने के अतिरिक्त इसका अन्य कोई लाभ न होने से यह सर्वथा त्याज्य है। मालिश का मूल उद्देश्य शरीर में तेल को पचाने का है। कथित सुधरे हुए लोग तेल को पसन्द न कर सुगन्धित पाउडर पसन्द करते हैं पाउडर हस्त—संचालन की क्रिया को सरत और व्यवस्थित होने नहीं देता। अतः पाउडर या विद्युत-यन्त्र से मालिश करने की अपेक्षा न करना ही अच्छा है।

चिकित्सा— क्षेत्र में मालिश का महत्व समस्त जगत में बढ़त जा रहा है। प्राकृतिक चिकित्सा में मालिश पद्धति का बहुत उपयोग किया जाता है और इसके द्वारा अनेक रोगों में जिस रोगी की जीवनी शक्ति अल्प होती है; ऐसी घटनाओं में, जीर्ण, अशक्त और शारीरिक रूप से क्षीण रोगियों के रोगों की अचूक चिकित्सा विज्ञान सिद्ध मालिश ही है।

मानव का शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक विकास का केन्द्र— बिन्दु है। मानव ने आहार-विषयक भूलों से पेट को कबगस्तान बना दिया है। कब्जियत मन्दाग्नि, अपच आदि आदि रोग आजकल सर्व-व्यापक हैं। मालिश आंतों की आकुँचन क्रिया को बढ़ाती है। शिथिल और रोगग्रस्त पाचन-क्रिया को तेजवान बनाकर उदर- रोगों को दूर करती है। यकृत आमाशय और प्लीहा की पीड़ा और रोग में मालिश उपयोगी है।

दिन- प्रतिदिन जीवन-संघर्ष विकट बनता जा रहा है। चिन्ता, व्यग्रता, जातीय उत्तेजना, भ्रष्ट अम्ल प्रधान आहार से ज्ञान तन्तु रोगी होते जा रहे हैं। अनिद्रा शिर दर्द, थकावट, मानसिक उत्तेजना तथा मानसिक शिथिलता में वृद्धि हो रही है। ज्ञान-तन्तु के रोगी को पैर के तलुओं, मस्तक तथा क्रोड़-रज्जु की मालिश करानी चाहिये। यह मालिश बादाम के तेल की होनी चाहिये।

इस प्रक्रिया के अंतर्गत हृदय की निर्बलता, धड़कन और अन्य रोगों में मालिश एक अच्छे सेवक का काम करती है, मालिश से हृदय को पूर्ण—विश्राम मिलता है। रक्त भिसरण की अव्यवस्था के कारण उत्पन्न रोग दूर होते हैं। रक्त का संचालन उचित रूप में होते रहने से अपोषण से पीड़ित रोगी के लिए मालिश आशीर्वाद के समान है माँसपेशियों को खुराक मिलती है। वजन बढ़ता है। शरीर की अनावश्यक चरबी का प्रशमन होता है।

शरीर अम्लता बढ़ जाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। लकवा इत्यादि को आयुर्वेद में बात-व्याधियों के अंतर्गत माना गया है। इस प्रकार के रोगों में आयुर्वेद- प्रणीत विषगर्भ तेल या नारायण तेल की मालिश करनी चाहिये। बाललकवे की घटनायें बढ़ती जा रही हैं। बालक को आरम्भ से उचित रूप से मालिश की जाये, तो लकवा-रोग नहीं होता और यदि हो भी जाये, तो लाभ होता है।

मुख की त्वचा निस्तेल, फटी हुई या दाग वाली हो, तो चाहे जैसा सुव्यवस्थित रूप वाला मुख भी आकर्षक प्रतीत नहीं होता। हमारी गृह—देवियों— विशेषतया नागरिक जीवन में— निष्क्रिय बनती जा रही हैं, अतः शरीर में चरबी बढ़ती जाती है। गले और हड़पची को निम्न-भाग लटक पड़ता है। मालिश मुख की चरबी को बरफ की तरह गलाकर मुख को नवीन आकर्षण’ चमक और ताजगी प्रदान करती है। मुख पर मुंहासे दाग हों, तो दूध की मलाई घी में हाथ से मुख पर मलने से जादू का असर होता है। मुख सौंदर्य के लिए मलाई की मालिश आज से ही शुरू कर दें। इसके अतिरिक्त अस्थिभंग शारीरिक विकृति आदि में मालिश की परमोपयोगिता अनुभव सिद्ध है।

संक्षेप में शारीरिक अवयवों की कार्य— शक्ति के अभाव या स्वयं अवयवगत व्याधि में मालिश अति लाभ दायक है मालिश शरीर में चार प्रकार का काम करती है— (1) निमार्ण, (2) विनाश, (3) उत्तेजना और (4) आराम का काम करती है। नये तन्तु उत्पन्न कर शरीर को पोषण प्रदान करती तथा चयापचय की क्रिया को बल देती है। शरीर की अतिरिक्त चरबी विजातीय पदार्थ, टूटे हुए और निरर्थक तंतुओं को दूर कर शरीर के, साँघातिक तत्वों को नष्ट करती है। मालिश ज्ञान-तन्तुओं की उत्तेजनाजन्य शिथिलता अनिद्रा और शारीरिक निर्बलता दूर कर स्फूर्ति और चेतना प्रदान करती है। मानसिक थकावट मिटा कर शरीर की पीड़ा कम कर शरीर के किसी विशेष अवयव में एकत्र रक्त को वितरित कर मालिश शान्ति और विश्राम देती है। मालिश करते-करते कभी-कभी नींद आ जाती है।

सामान्य और स्थानीय इस प्रकार मालिश के दो भाग हैं। किसी विशेष अंग की मालिश कहा जाता है। समस्त शरीर की मालिश सामान्य कहलाती है। रोगग्रस्त अंग पर 20 से 30 और समग्र शरीर पर 40 से 50 मिनट तक मालिश करनी चाहिये। बहुत अधिक समय तक मालिश करना हानिकारक है।

मालिश बहुत जल्दी- जल्दी करने की आदत अच्छी नहीं। मालिश करते समय शरीर के सभी अंग ढील और आराम की स्थिति में होने चाहिये। मन को भी स्वस्थ रखना चाहिये। मालिश के समय मन को सभी ओर से हटाकर उन अंगों पर केन्द्रित कर अरोग्य का विचार करना चाहिये, जिनकी मालिश की जा रही हो। तेल को शरीर में रगड़ने की अपेक्षा थोड़ा-थोड़ा तेल शरीर में पचाने की आवश्यकता है।

सभी अंगों की समुचित और समान मालिश करनी चाहिये। एक अंग पर विशेष ध्यान देकर दूसरे की अपेक्षा करनी न चाहिये नियम समग्र शरीर के मालिश के लिए है। आरोग्याकांक्षियों को चाहिये कि वे 8-10 दिन में मालिश किया करें। रोगोपचार के लिए नित्य और आवश्यक होने पर दिन में दो बार भी मालिश करनी चाहिए।

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