Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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कहीं आप भी तो ऐसे नहीं हैं ?
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अरुन्तुदं परुषं रुक्ष वाचं वाक्कंट कैर्वितुदन्तं मनुष्यान् विद्यादलक्ष्मी कतमं जनाना मुखेनिकवद्धां निव्जृ तिंवैवहन्तम् विदुरनीति 4। 8 जिसकी वाणी रूखी और स्वभाव कठोर है, जो मर्मभेदी वाक् बाणों से दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है, उसे मनुष्यों में महा दरिद्र ही मानना चाहिए ऐसा मूर्ख अपने मुख में दरिद्रता और मौत बाँधे फिरता है। सहजान्धदृशः स्वदुर्नयें, परदोषो क्षणादिव्य चक्षुषः स्वगुणोड़ड़ड़गरो मुनिव्रताः परवर्णप्व साधवः॥ दुर्जन लोग अपने दोषों की ओर से आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं, दूसरे के दोष देखने में दिव्य नेत्र धारण करते हैं। अपने गुणों को गला फाड़-फाड़ कर गाते हैं और दूसरों की प्रशंसा का अवसर आने पर मौन धारण कर लेते हैं। दुरेअपि परस्यागसि पटुर्जनानात्यन समीपैअपि। स्वंब्रणमक्षिम प्श्यनि शशिनि कलंकं निरुपयति॥ दूर होने पर भी लोग दूसरों के दोष ढूँढ़ने में निपुण होते है पर समीप होने पर भी अपने दोष नहीं देखते। आँख अपना घाव नहीं देखती, चन्द्रमा के कलंक को निहारती हैं। वरममी तरवो वन गोचराः शकुनिसार्थ विलुप्त फलश्रियः। न तू धनाढ्य गृहाः कृपणाः फणाः निहित रत्न भुजगंमवृत्तयः॥ सर्प के समान फन में मणिधर रखने वाले इन धनी कंजूसों से तो वन के वृक्ष ही अच्छे जिनके फल श्री का लाभ पक्षीगण उठाते हैं। मोध मत्रं विन्देते अप्र्रचेताः सत्यं व्रवीमि व्रध इत स तस्य। नार्यमणं पुप्यति नो सखायं केवलाधो भवति केवलादी। ऋग्वेद 10। 117।6 कंजूस को धन प्राप्त होना व्यर्थ हैं। यह एक प्रकार से उसकी मृत्यु ही है। वह न तो धर्म करता है और न साथियों का पोषण करता है। जो अकेला खाता है सो पाप ही खाता हैं। सुखं दुःखातमोलस्यं दाक्ष्यं दुःखं सुखोदयं। कीर्तिर्दक्षे भूतिः श्री हृीधृतिं: वसति नालसे॥ महा0 शान्ति0 17। आलस्य सभी दुखों की जड़ हैं। श्री,ह्रीं धृति, कीर्ति तथा भूति का वास दक्ष पुरुषार्थी प्राणी में ही होता है आलस्य सभी में नहीं । निद्रा तंद्रा भयं क्रोधो आलस्य दीर्घ सूत्रता । षडदोषा पुरुपेंणेह हानव्याभूति मिच्छता॥ हितोपदेश निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता यह छः दोष ऐश्वर्य चाहने वाले को त्याग ही देने चाहिए। कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति। अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति॥ कंजूस के समान दाता भला ओर कौन होगा? जो अपने काम के लिए धन का कुछ भी उपयोग न करके दूसरों के लिए उसे छोड़ जाता है। जावर्त्यथ दरिद्रोअपि धी दरिद्रो न जावति धन का दरिद्री तो जीवित रहता है, पर बुद्धि का दरिद्री नहीं जीता। अथवाभिनिविष्ट बुद्धिपु व्रजति र्व्यथकताँ सुभाषितमः दुराग्रह ठाणे हुए लोगों के लिए उपदेश करना व्यर्थ ही जाता है।