Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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दोनों ही उपहार
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मानव के हित जग-उपवन के दोनों ही उपहार ! तुम फूलों को गले लगा लो शूलों को दुत्कार !! तुम्हारा यह अनुचित व्यवहार ! जिस पथ पर है धूप उसी पर छाया की ड़ड़ड़ड़, यह संयोग कि कुछ दूरी पर मिली, मिली कुछ पास, भेद बरतने वाले राही पा न सके हैं लक्ष्य-धूप छाँह मिलकर लिखती है मंजिल का इतिहास, यह दोनों पूरक हैं इसको समझो भली प्रकार ्! तुम्हारा यह अनुचित व्यवहार !! पाप-पुण्य के बीच नहीं है कोई लक्ष्मण-रेख दृष्टि पड़ गयी जैसी उसने लिया उसी विधि देख, इन दोनों के अक्षर प्रायः हैं परिवर्तनशील-अर्थ योजना, माध्यम द्वारा बदला सारा लेख, यह असत्य मझधार एक है और दूसरा पार ! तुम्हारा यह अनुचित व्यवहार !! अभिशापों की विफल नीति से ही प्रकटे वरदान-काव्य-कला को इष्ट रही है आँसू की मुस्कान, दूर क्षितिज पर नभ-अवनी का सबने देखा मेल-निर्झरिणी का स्त्रोत किसी गिरि का निर्मम पाषाण, रूप बदल जाता जब बनता निराकार साकार, तुम्हारा यह अनुचित व्यवहार !! घृणा-प्रेम के बीच अवध्ोि की छोटी-सी दीवार, हार जीत है एक, जरा बस बदल गया शृंगार, कोन भला समझा पाया क्या ज्ञान और विज्ञान-नहीं मुक्ति से रहा अपरिचित बंदी कारागार, धन्य हुए जो दोनों को ही करते अंगीकार ! तुम्हारा यह अनुचित व्यवहार !! *समाप्त*
श्रीमती-विद्यावती मिश्र)