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Magazine - Year 1961 - Version 2

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आत्मोन्नति के प्रधान साधन

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(श्री अगरचन्द नाहटा)

प्रत्येक प्राणी उन्नति का इच्छुक है। पर उन्नति का सही मार्ग समझना कठिन है और उससे भी कठिन है उसको आचरण में लाना। कोई व्यक्ति कही जाना जाता है या कुछ प्राप्त करना चाहता है तो उसके मार्ग एवं साधना को जानना आवश्यक होता है पर केवल जान लेने से ही काम नहीं चलेगा। हमें कलकत्ते जाना है, उसका मार्ग भी मालूम हो गया, पर जब तक उस मार्ग पर चलेंगे नहीं, हम कलकत्ता नहीं पहुँच सकते। उसी प्रकार आत्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप का ज्ञान एवं स्वरूप प्रति के साधन जानकर उनको अपनाने व आचरति करने की परमावश्यकता है।

उपचार भी निरर्थक होते है दूसरी ओर वह सच्चे भक्तों के पीछे पीछे फिरता देखा जाता है। इस प्रकार में भी एक ही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर को प्रसन्न करना, उसके अनुग्रह से सद्गति सुख शान्ति, स्वर्गं, मुक्ति प्राप्त करना केवल आन्तरिक स्थिति की उत्कृष्टता पर ही निर्भर है।

आत्मा ही ज्ञान विज्ञान का केन्द्र है। सुख, शान्ति का मूल आधार वही है। उन्नति और समृद्धि के बीज उसी में छिपे है। स्वर्गं और मुक्ति का आधार वही है। कल्पवृक्ष बाहर कही नहीं अपने भीतर ही है। अगणित कामनाओं की तृप्ति आत्मज्ञान से ही सम्भव हो सकती हो सकती है। आत्मा ही पारस मणि है जिसे छूकर लोहे जैसा काला कलूटा मानव जीवन देवत्व में परिणाम होता है। यही वह अमृत है जिसे पीकर युग युग की अतृप्त तृष्णा का समाधान होता है। आत्मा अपने आप में पूर्ण है जिसमें उसे देख लिया वही सच्चा दृष्टा है, जिसने उसे प्राप्त कर लिया उसके लिए और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।

एक ही जगह पहुँचने के लिये मार्ग अनेक होते है, जिनके लिए जो मार्ग सुविधाजनक हो वह उसी का अनुसरण कर साध्य को प्राप्त कर सकता है। जो साधना की विविधता, अनेकता के लिए झगड़ा करते है, वे नासमझ है। वास्तव में योग्यता एवं परिस्थिति की विषमता के कारण कोई समग्र मार्ग वो अपना लेता है, कोई दुर्गम से जान को तैयार हो जाता है। इससे पहुँचने में देर सवेर, आगे पीछे हो सकता है, पर मार्ग सही है, लक्ष्य ठीक है और गति हो रही है तो पहुँच अवश्य जावेगा। यही बात लौकिक एवं लोकोत्तर कार्यरूप आत्मोन्नति के लिये समान रूप से लागू होती है। वैसे आत्मोन्नति के साधन अनेक हो सकते है, पर मुझे जितना विशेष रूप से अनुभव हुआ है उन्हीं साधन लक्ष्यों पर प्रस्तुत लेख में विचार किया जा रहा है वे है। (1) सरलता (2)समभाव (3) सन्तोष (4) सत्संग और (5) गुण ग्राहकता

सरलता निर्मल और गरलता हृदय को कलुषित करती है। अतः आध्यात्मिक गुणों के लिए पहले भूमि शुद्धि की यानी सरलता की आवश्यकता है कोई भी चित्रकार जब चित्र अंकन करने बैठता है तो पहले जिस भीत या जिस दीवार, कपड़े या कागज पर चित्र करता है उसे शुद्ध, धब्बा खुरदरे पर से रहित, साफ-सुथरा व पालिशदार बना लेता है। उसी प्रकार आत्मदेव की झाँकी पाने के लिए सरलता रूपी चित शुद्धि की सर्व प्रथम परमावश्यकता होती है। बाँकी टेड़ी भूमि पर चित्रों का चित्रांकन ठीक नहीं हो सकता। सरलता का वास्तविक अर्थ है जो चीज जिस रूप में है उसे उसी रूप में प्रकट करना। सत्य एवं सरलता की सीमा बहुत कुछ मिलती जुलती है। हमारे में जो गुण दोष है जो विचार है, जो करने का इरादा है, उसे उसी रूप में प्रकट करना सरलता व सत्य है। दिखावे के लिए, दूसरों भ्रम पैदा करने के लिये, भीतर कुछ है पर बाहर कुछ और है, जैसा दिखने का प्रयत्न ही आज अधिक किया जा रहा है। ऐसी कपट बुद्धि जहाँ वहाँ आध्यात्मिकता का पौधा पनप ही नहीं सकता। बाहर भीतर एक बनो। जैसा कुछ हो, जो कुछ जानते हो, उसको अन्यथा रूप में दिखाने का प्रयत्न नहीं करे। व्यवहार में हो सकता है इससे कुछ नुकसान प्रतीत हो, पर वास्तव में जो पराये को धोखा देता है वह अपने को पहिले धोखा देता है। जहाँ निर्मलता नहीं कलुषता है, वहाँ अन्य सद्गुणों का आगमन एवं विकास असंभव ही समझिये दिखावे एवं ढोंगरूप कोई भी काम न कर, जो कुछ किया जाय वह अतः प्रेरणा से हो। दुराव, छिपाव न हों।

दूसरे गुण समभाव की आवश्यकता है। समभाव का वास्तविक अर्थ है राग द्वेष का परिहार। जहाँ क्रोध एवं द्वेष की ज्वाला धधक रही है वहाँ आध्यात्मिक शान्ति आयेगी ही कैसे? जहाँ तक विषयाभिलाषा, धन, पुत्र, स्त्री, परिवार आदि में मोह है, वहाँ मन की वृत्ति बहिर्मुखी रहती है। अन्तर्मुखी बनने के लिए बाहर का आकर्षण, अच्छे एवं बुरे दोनों, कम करने होंगे हटाने होंगे। विश्व में अच्छे बुरे अनेक प्रकार क प्राणी है। भली बुरी अनेक प्रकार के प्राणी है। भली बुरी अनेक वस्तुएँ है। उनके विचार वैषम्य में समभाव के बिना वास्तविक साध्य तक पहुँचना कठिन है।

तीसरा साधन है संतोष। मनुष्य को कर्तव्य पथ से डिगाने, अन्याय में प्रवृत्ति कराने वाली वृत्ति लोभ की है। लोभ अनेक प्रकार का होता है। जहाँ तक धन, पुत्र, स्त्री या किसी भी प्रकार की तृष्णा कमजोर नहीं हो जाती, आध्यात्मिक सुख जाग्रत हो ही नहीं सकता। हमारे विचार एवं प्रयत्न जिन जिन वस्तुओं की आकांक्षा है, उन्हीं की प्राप्ति की उधेड़ बुन में चलते रहते है। लोभ की कोई सीमा भी तो नहीं एक मिला तो दूसरी आशा जाग उठी। इसलिए महापुरुषों ने कहा है कि संतोष के बिना सुख कहाँ है? लोभ, पाप का बाप कहा गया है। जीवन निर्वाह के लिए धनोपार्जन, प्रतिष्ठा व अन्य पारिवारिक जनों के लिए वस्तुओं का संग्रह करना पड़ता है पर उसी में रम मत जाइये। लोभ को पहले सीमित बनाइए एवं धीरे धीरे फलाशा रहित कर्तव्य बुद्धि से प्रवृत्ति करने के आदेशरूप गीता के वाक्यों परिस्थिति है उसमें असंतोष मत रखिये उच्च स्थानों की प्राप्ति का प्रयत्न करिये, पर विवेक के साथ संतोष के बिना आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती।

इसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिए सत्संग भी परमावश्यक है। सत्पुरुषों का सम्पर्क ही मानव को ऊँचा उठाने की प्रेरणा देता है, क्योंकि वे पथ प्रदर्शक होते है। असत् प्रवृत्तियों से दूर कर सही रास्ता दिखा देते है। असत् प्रवृत्तियों से दूर कर सही रास्ता दिखा देते है। अनुभवी होने से, जहाँ भी अपनी कमजोरी विदित हुई, वे सावधान कर देंगे। जहाँ मार्ग अवरुद्ध नजर आयेगा, वे अपने अनुभव प्रकाश से हमारा पथ आलोकित कर देंगे। अतः उपयुक्त साधन सत्संग को अपना कर आध्यात्मिक उन्नति करे।

पाँचवाँ साधन है गुण ग्राहकता। हमारी अव गुणग्राही वृत्ति ने हमें दोषों का खजाना बना दिया है। जैसा देखेंगे तदनुसार संस्कार दृढ़ होकर हम वैसे ही बन जायेंगे अवगुणग्राही दृष्टि से हमें दोष ही नजर आयेंगे और गुणग्राही की दृष्टि हो तो सर्वत्र से कोई लाभ नहीं, अपितु हानि ही हानि है और गुण ग्राहकता की वृत्ति से लाभ ही लाभ है। गुणी का अपनाना सीखे, दोष तो अपने में ही बहुत है, उन्हें ही दूर करने का प्रयत्न करे। दूसरे के तो गुण ही देखे। इससे आपका गुणों के प्रति आकर्षण बढ़ेगा और अच्छे गुणों का विकास होने लगेगा। उन्नति का सच्चा व सीधा यही मार्ग है।

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