Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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दीर्घजीवन के आध्यात्मिक कारण
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दीर्घ जीवन एवं निरोगिता का कारण केवल खान-विहार ही नहीं वरन मनोदशा भी है। कुविचारों में निरत रहने वाले व्यक्ति कितना ही ड़ड़ड़ड़ अपनी दुविधाओं और दुर्भावनाओं के कारण स्वास्थ्य को खो बैठते हैं और आन्तरिक आग में झुँझलाते हुए नारकीय जीवन जीते हैं। इसके विचार भूमिका उच्चकोटि की है वे साधारण विहार रखते हुए भर शान्तिपूर्ण जीवन यापन करते हैं।
कागभुसुणिड़जी अमर और दीर्घजीवी माने जाते है। एक दिन महर्षि वशिष्ठ जी ने कागभुशुणिडजी से उनके दीर्घजीवन का कारण पूछा तो उनने बताया कि -
माषार्माषयमयीं चिन्ता मीहतानीहितान्विताम
विमृश्यात्मनि तिष्ठामि चिरंजाव्यम्यनामयः
प्रशान्तं चापलं वीतशोकं स्वस्थं समाहितम्।
मनो मम सने शान्तं तेन जीवाम्यनामयः।
किमद्य मम सम्पत्रं प्रातर्वा भविता पुनः।
इति चिन्ताज्वरो नास्तितेन जीवाम्यनामयः।
जरामरण दुःखेपु राज्य लाभ सुखेपुच।
न विभेमि न हृप्यामि तेन जावाभ्यनामयः॥
अयं बन्धुः परश्चायं ममायमयमन्यतः।
इति ब्रह्यत्र जानामि तेन जीवाम्यनामयः॥
आहारन्विहरन्तिष्ठन्नुत्तिष्ठत्रच्त्रछ्र-सन्खपन्-देहोहमिति नो विझि तेनासिम चिरजीवित
अपरिचलया शक्त्या सुहशास्निग्धमुग्ध्या।
ऋजु पश्यामि सर्वत्र तेन जीवाम्यनामय।
करोमाशोऽपि नाकान्ति परिवाषे न खेदवान्।
दरिद्रोऽपि न वान्छामि तेन जावाम्यनामय।
करोमाशोऽस्मि सुखापन्ने दुखितो दुखितेजन।
सर्वग्य प्रिय मित्रं च तेन जा भ्यनामय।
आपद्यचल धीरोऽस्मि जगन्मित्रं च संपदि।
भावाभावेपु नेवास्मि तेन जीवाम्यनामय।
-योग वशिष्ठ 6।26।10-35
‘मेरे पास यह है यह नहीं है इस प्रकार की चिंता मैं ड़ड़ड़ड़ मेरा मन शान्त, अचंचल, शोक रहित और सम्मोहित रहता है इसलिए निरोग दीर्घजीवन जाता हूँ। आज मैंने कितना कमा लिया कल कितना कमाऊँगा ऐसा तृष्णा ज्वर मुझ पर नहीं चढ़ा रहता इसलिए मैं निरोग दीर्घजीवन जीता हूँ। न तो मैं मौत, बुढ़ापे से डरता हूँ और न राज्य जैसे बड़े लाभ मिलने पर भी मुझे हर्ष होता है, इसलिए मैं निरोग दीर्घजीवन जीता हूँ। यह मेरा भाई है, यह शत्रु है, यह अपना है यह पराया ऐसा भेद भाव मेरे मन में नहीं आता इसलिए निरोग दीर्घजीवन जीता हूँ। आहार में, विहार में, सोने जागने में, उठने बैठने में किसी भी समय में ब्रह्मभाव छोड़ देहभाव में नहीं भ्रमता इसलिए निरोग दीर्घजीवन जीता हूँ। अपने स्वरूप में अविचल भाव से स्थित रहता हूँ ओर आत्मशक्ति बनाये रखता हूँ, मधुर-प्रेम भरी दृष्टि से सबको समान दृष्टि से देखता हूँ। सर्वत्र मण्डल ही देखता हूँ, इसलिए निरोग दीर्घजीवन जीता हूँ। समर्थ होने पर भी किसी को सताता नहीं, दूसरों के द्वारा अनिष्ट किये जाने पर क्षुब्ध नहीं होता, निर्धन होने पर किसी से आकांक्षा नहीं करता, इसलिए दीर्घजीवन जीता हूँ। दूसरों को सुखी देखकर सुखी होता हूँ, दुखियों को देखकर करुणा करता हूँ। सबको अपना प्रिय मित्र मानता हूँ इसलिए निरोग दीर्घजीवन जीता हूँ कि आपत्ति आने पर विचलित नहीं होता, धैर्य को कभी भी नहीं छोड़ता, सुख के समय सबसे उदार व्यवहार करता हूँ, भाव और अभाव में एक सा रहता हूँ। इसलिए निरोग दीर्घजीवन जीता हूँ।’